दरअसल, इस पूरे विवाद की वजह मीडिया में साया हुए कुछ शब्द हैं। खबरों के मुताबिक, यह कानून 'चीन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को अक्षुण्ण मानता है' और राष्ट्र को कहता है कि 'वह इसकी अखंडता की रक्षा करने या इसे कमजोर करने वाली ताकतों का मुकाबला करने के लिए उचित कदम उठाए'। चूंकि इसमें विवादित सीमावर्ती क्षेत्र पर भी अपना अधिकार जताया गया है, इसलिए इस कानून का एक संकेत यह है कि अब सीमा विवाद पर चीन कोई बातचीत नहीं करेगा, बल्कि वह अपने कब्जे वाली सभी जमीन पर अपना झंडा लहराएगा। यानी, पिछले तीन दशकों से सीमा विवाद सुलझाने के लिए भारत के साथ उसकी जितनी द्विपक्षीय वार्ताएं हुई हैं, वे सभी बेजा हो गई हैं।
तो, क्या चीन का रवैया बदल गया है? फिलहाल, इसे सही-सही नहीं कहा जा सकता। मगर सीमा विवाद सुलझाए बिना विवादित क्षेत्र को संप्रभु बताने की उसकी कोशिश द्विपक्षीय वार्ता में जटिलता जरूर पैदा कर सकती है। हम साल 2005 के 'भारत-चीन सीमा प्रश्न के समाधान के लिए राजनीतिक मानदंड और मार्गदर्शक सिद्धांत' के मुताबिक द्विपक्षीय सीमा विवाद का हल ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके तहत हमारे विशेष प्रतिनिधि, जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं, चीन के विशेष प्रतिनिधि से मिलते हैं। कई बार दोनों में बातचीत हो चुकी है। अगर नया कानून वाकई संप्रभुता पर जोर देता है, तो क्या अब यह बातचीत नहीं होगी? हमारी चिंता की वजह यही है।
दूसरी तरफ, कुछ विश्लेषक चीन की इस कवायद को एक अलग चश्मे से देख रहे हैं। उनके मुताबिक, यह अब तक स्पष्ट नहीं है कि नए कानून से चीन के रवैये में कोई बदलाव आने वाला है। वे इसे सीमावर्ती क्षेत्रों के प्रबंधन से जोड़ते हैं, जो हर देश का निजी और आंतरिक मसला है। उनके अनुसार, यह कानून सीमा पार से होने वाली गैरकानूनी गतिविधियों को रोकने और घुसपैठ बंद करने के लिए बनाया गया है। इसलिए इसका असर द्विपक्षीय बातचीत पर नहीं होगा और हमारे तमाम समझौते पूर्ववत कायम रहेंगे।
इन दोनों नजरिये में कौन सही है और कौन गलत, यह तभी पता चलेगा, जब कानून को लेकर पूरी तरह से स्पष्टता आएगी। संप्रभुता घोषित करने का एक अर्थ यह निकलता ही है कि चीन के रवैये में सख्ती आई है। इसीलिए, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की चिंता समझी जा सकती है। भारत और चीन की सीमा पर मई, 2020 से हालात तनावपूर्ण हैं। गलवान की हिंसक झड़प ने अविश्वास की खाई बढ़ा दी है। सैन्य कमांडर स्तर की 12 दौर की वार्ताओं के बावजूद अब तक बीच का रास्ता नहीं निकल पाया है। चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा की स्थिति को बदलने की एकतरफा कोशिशें करता रहता है, जिससे सीमा पर शांति व्यवस्था प्रभावित होती है।
अफसोस की बात है कि भारत के आग्रह के बावजूद चीन एलएसी को स्पष्ट करने के लिए सहमत नहीं हुआ है। सीमा के बारे मे गंभीर बातचीत की तो खैर कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब चीन एलएसी के नजदीक गांवों का निर्माण करके और बड़ी संख्या में सैनिकों को तैनात करके सीमा का उल्लंघन कर अपनी जमीन बनाने में जुटा है। इन कृत्यों का यही मतलब है कि वह सीमा विवाद के समाधान को लेकर गंभीर नहीं है। ऐसे में, नया कानून भारत के मन में स्वाभाविक तौर पर संदेह पैदा कर रहा है। मगर सीमा विवाद पर जब कभी बैठकें हों, तो हम अपने रुख के साथ ही बातचीत की मेज पर बैठें। हमारा एजेंडा पूर्ववत रहना चाहिए। हमें सावधान होकर आगे बढ़ना होगा, क्योंकि सीमा एक गंभीर मसला है। सिर्फ अनुमान लगाकर द्विपक्षीय बातचीत को बेपटरी करना या आपसी तनाव को हवा देना उचित नहीं। जब तक कानूनी प्रावधान स्पष्ट नहीं हो जाते, किसी तरह के कदम उठाने की जरूरत नहीं है।
7 सितंबर, 1993 को भारत और चीन के बीच ऐसा पहला द्विपक्षीय समझौता हुआ था, जिसमें वास्तविक नियंत्रण रेखा को शामिल किया गया था। सन 1996 के समझौते में दोनों देश एलएसी के ऊपर विश्वास बहाली को लेकर एकमत हुए। इसके बाद एलएसी को स्पष्ट करने के लिए मानचित्रों के आदान-प्रदान पर भी सहमति बनी। मगर, एक सेक्टर को छोड़कर किसी और के मानचित्र का आदान-प्रदान चीन ने नहीं किया है। 1 अक्तूबर, 2013 का एक और समझौता हुआ, जो यह सुनिश्चित करता है कि एलएसी पर गश्त कभी सशस्त्र संघर्ष का रूप न ले। इन सबका यही अर्थ है कि दोनों देशों के पास द्विपक्षीय सीमा विवाद सुलझाने के पर्याप्त तंत्र हैं, लेकिन उचित प्रगति नहीं हो रही। ऐसे में, चीन के नए कानून से सीमा पर जटिलताएं और बढ़ेंगी, जो पहले से ही एक जटिल समस्या है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)