तीसरी लहर में बच्चे

चिकित्सा जगत की प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लैंसेट की यह स्टडी रिपोर्ट बड़ी महत्वपूर्ण है

Update: 2021-06-14 04:28 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| चिकित्सा जगत की प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लैंसेट की यह स्टडी रिपोर्ट बड़ी महत्वपूर्ण है कि भारत में कोरोना की तीसरी लहर से बच्चों के बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका का कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है। 'लैंसेट कोविड-19 कमिशन इंडिया टास्क फोर्स' ने एक्सपर्ट्स ग्रुप की मदद से दोनों लहरों के दौरान अस्पतालों के उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर कहा है कि भारत में बच्चों के संक्रमण की स्थिति कमोबेश वैसी ही रही है, जैसी दुनिया के अन्य हिस्सों में। औसतन पांच लाख संक्रमित बच्चों में 500 को ही अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा, इनमें भी दो फीसदी की मौत हुई। मौत वाले इन मामलों में 40 फीसदी केस ऐसे थे. जिनमें बच्चे दूसरी गंभीर बीमारियों से भी ग्रस्त थे। इसलिए स्टडी ग्रुप की साफ राय है कि तीसरी लहर को बच्चों के लिए विशेष तौर पर खतरनाक मानने की कोई वजह नहीं है। दरअसल, दूसरी लहर ने देश में जिस तरह के भयावह हालात बना दिए थे, उसमें आम लोगों के बीच तरह-तरह की आशंकाएं पैदा होना स्वाभाविक था। इसी माहौल में कुछ एक्सपर्ट ग्रुप्स की तरफ से भी ऐसे बयान आए, जिनसे आशंकाओं को बल मिला।

तीसरी भयावह लहर आने और उनमें बच्चों के लिए खास खतरा होने की बात ऐसी थी, जिसकी किसी भी सूरत में अनदेखी नहीं की जा सकती थी। हालांकि ऐसी आशंका जताने के पीछे कोई गलत इरादा था, यह नहीं कहा जा सकता। चूंकि दूसरी लहर में अपेक्षाकृत युवा मरीजों की मौत का अनुपात अधिक देखने में आ रहा था, इसलिए कुछ विशेषज्ञों को ऐसा लगा कि संभव है तीसरी लहर में और कम उम्र के लोग इसकी चपेट में आएं। सरकारी तंत्र और आम लोगों को आगाह करने के इरादे से उन्होंने अपनी यह राय सार्वजनिक कर दी। मगर इतनी अहम लड़ाई में हर कदम फूंक-फूंक कर रखने की जरूरत होती है। इन बयानों के बाद जहां आम लोगों में भय और आशंका की भावना भरने लगी, वहीं हेल्थकेयर ढांचे में भी बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था करने की तैयारियां शुरू हो गईं।
संसाधनों की सीमा को देखते हुए अगर अवैज्ञानिक सूचनाओं के आधार पर तैयारियां जारी रखी जाएं तो फिर ज्यादा जरूरी तैयारियां छूट जाने का खतरा रहता है। ऐसे में लैंसेट की यह रिपोर्ट जहां हमें अपने बच्चों के स्वास्थ्य के मोर्चे पर अनावश्यक आशंकाओं से मुक्त करती है, वहीं संसाधनों की संभावित बर्बादी भी रोक सकती है। सबसे बड़ी बात यह कि आम लोगों के अलावा एक्सपर्ट समूहों को भी सावधान करती है कि गंभीर अध्ययन, जांच-पड़ताल और ठोस सबूतों की रोशनी में कोई बात की जाए तभी उसका वैज्ञानिक महत्व है। और, वायरस से लड़ाई के बीच में किसी भी वजह से वैज्ञानिकता का साथ छोड़ना आत्मघाती हो सकता है।


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