सूनी सडक़ों पर कोहराम
हम हवा में तीर चलाने और अधूरे सपनों की सहायता से अपने जीवन की उजड़ी हुई बगिया को एक शालीमार बाग बना देने की कल्पना करने में पारंगत हो चुके हैं
हम हवा में तीर चलाने और अधूरे सपनों की सहायता से अपने जीवन की उजड़ी हुई बगिया को एक शालीमार बाग बना देने की कल्पना करने में पारंगत हो चुके हैं। लेकिन केवल कल्पनाओं की उड़ान अगर हवाई घोड़े होती तो आज उस पर सभी मरभुक्खे सवार होकर अपने लिए नंदन कानन रच चुके होते। लेकिन बागों में घास की मखमली रविशों का बिछ जाना एक वास्तविकता तो क्या, हमारे भूखे-प्यासे सपनों में आने से भी कतराने लगी। यहां तो अब बिखरी है वही कैक्टस नुमा दिन रात चुभती असलीयत और एक ऐसी पंगु और शर्मसार कर देने वाली वास्तविकता कि इस बार खूब गर्मी पड़ी और हमारे घरों के दरवाज़े खटखटा कर मौत के पैगाम बांट गई। आज से नब्बे साल पहले दुनिया में महामंदी में एक राजसी इच्छा थी। तब बेकारों के हुजूम भूख से पागल होकर सडक़ों पर तोड़-फोड़ करते घूम रहे थे और फ्रांस की एक राजकुमारी ने अपने मुसाहिबों से पूछा, 'भूख, भई यह क्या होती है भूख।' 'एक कचोटती हुई आग जो अगर रोटी पानी से शांत न हो तो आदमी इस दुनियाये फानी से कूच कर जाता है।' जवाब मिला। राजकुमारी घबराई। उसे अपने खिलते हुए बगीचों, स्वर्णिम राजमहल में गद्दों पर रोटी के बिना भूख से तड़प कर मरते आदमियों की कल्पना भयावह लगी। उसे वहां नींद नहीं आई।
तब उसने मासूमियत से सवाल किया, 'अरे रोटी नहीं है तो ये लोग केक और पेस्ट्री खाकर अपनी भूख क्यों नहीं मिटा लेते।' लेकिन रोटी से लेकर केक और पेस्ट्री खाने पर एकाधिकार तो ऊंची अटारियों ने किया हुआ है। तब भी कर रखा था। आज नब्बे साल के बाद ऐसे ही दिन फिर आए तो पता लगा कि इस बीच कुछ भी नहीं बदला। सब को रोज़ी रोटी देने का अधिकार दे देने के बड़बोले भाषणों के बावजूद राजशाही चली गई। तब भूखा आदमी राजा-महाराजाओं का चंवर झुलाता था।
उनके राजसी खाने की मेज़ से केक और पेस्ट्री के टुकड़ों की अपने लिए गिरने की कल्पना करता था। आज लोकशाही आ गई, नेताओं की गलदश्रु भावुकता से सने भाषणों से उनके लिए बीस लाख करोड़ रुपए की आर्थिक अनुकम्पा बरसती है। 'हर माल मिलेगा बारह आना' की तरह 'कर्ज ले लो, सस्ते कर्ज ले लो' की बोली उभरती है। लेकिन कुछ न समझे खुदा करे कोई। घोषणाएं हवाई हो गईं। घोड़े जिनकी कमर पहले ही भारी कजऱ् के बोझ से टूट गयी थी, उन्हें नया कजऱ् उठा कर ताज़ा दम किसी नई रेस में भागने की सीटी बजाई जा रही है। घोड़े कैसे भागते? लेकिन उन्हें बची केक, पेस्ट्री खाने जैसे ये सस्ते कजऱ्े नहीं चाहिए। पहले उनके पेट में जलती भूख की आग को तुष्ट कर दो। भूखे को रोटी नहीं, बेकार को काम नहीं, दुकानें खोल दीं उन पर ग्राहक नहीं, बसें.रेलगाडिय़ां चला दीं, उन पर मुसाफिर सवार होते घबराते हैं। पहले दम तोड़ते सपनों की तरह दाहक्रिया हो जाने दो। उनकी लाशों के अम्बार पर ही नई जिन्दगी के फूल रोपने की चाह न करो। अब इस माहौल में किसी नई प्रेम कविता की उम्मीद न करना। बहुत दिन पहले एक क्रान्ति धर्मी कवयित्री दुनिया बदलने का अलख जगाती हुई बागी महफिलों में घूमती थी और नकियाये सुर में कविता पढ़तीए 'मेरा चुम्बन, मेरा आलिंगन, सब मज़दूरों के लिए है ताकि वे अपनी प्रताडऩा के प्रतिकार में निज़ाम को बदल दें।' निज़ाम बदलने की ज़रूरत तो आज भी है। इस बीच शोषण ने कई रूप ले लिए। अच्छे भले काम करते लोग अपने बच्चों को रूखी-सूखी दो जून की रोटी खिलाते थे। लोग चलते कर दिए। इस शोषक निज़ाम को बदल देने की इच्छा भला उनसे अधिक किस में होगी? लेकिन इच्छा असलियत में बदल जाए, यह जरूरी तो नहीं। इसलिए इच्छा कहां से उपजी है, देखना होगा। इमारतों की ऊंची फुनगियों से या अंधेरे फुटपाथों से? फुटपाथों को इच्छा रखने का अधिकार ही है।
सुरेश सेठ
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By: divyahimachal