चुनौती बनता मानसिक स्वास्थ्य

वर्ष 2017 के मानसिक स्वास्थ्य देखभाल कानून में मानसिक आरोग्य के लिए सुव्यवस्थित ढांचा एवं रोगियों की पहचान से लेकर पुनर्वास के प्रभावी प्रावधान हैं।

Update: 2022-03-01 03:36 GMT

अजय खेमरिया: वर्ष 2017 के मानसिक स्वास्थ्य देखभाल कानून में मानसिक आरोग्य के लिए सुव्यवस्थित ढांचा एवं रोगियों की पहचान से लेकर पुनर्वास के प्रभावी प्रावधान हैं। लेकिन पांच साल बाद भी देश के सभी राज्यों में यह कानून लागू नहीं हो पाया है। संघीय ढांचे का रोना रोने वाली राज्य सरकारें इस मुद्दे पर जरा भी गंभीर नहीं दिख रही हैं।

कोविड महामारी के बाद देश में मानसिक रुग्णता एक गंभीर खतरे के रूप में सामने आई है। मध्यप्रदेश में पिछले दस दिन में सात लोगों ने मानसिक अवसाद के चलते खुदकुशी कर ली। सभी ने आत्महत्या से पहले बाकायदा वीडियो बनाए और उन्हें साझा किया। इससे पहले भी खासतौर से पिछले दो साल में खुदकुशी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। ये घटनाएं इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि हालात के चलते लोग तेजी से मानसिक व्याधियों का शिकार होते जा रहे हैं।

देश में लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर आंकड़े जो हालात पेश करते हैं, उससे स्थिति की गंभीरता का पता चलता है। एक अनुमान के मुताबिक देश में कुल बीस करोड़ नागरिक किसी न किसी प्रकार की मानसिक रुग्णता से पीड़ित है। यानी हर सातवां भारतीय मानसिक स्वास्थ्य के पैमानों पर बीमार है। हर दस में एक व्यक्ति को ही मानसिक व्याधियों में मानक उपचार मिल पाता है। कोई व्यक्ति शारीरिक रुग्णता के साथ मानसिक रूप से भी बीमार है, इसे चिह्नित करने का भी हमारे जन स्वास्थ्य ढांचे में कोई प्रामाणिक तंत्र उपलब्ध नहीं है। इस वर्ष के केंद्रीय बजट में सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों से निपटने को लेकर विशेष घोषणाएं की हैं।

आम लोगों को शायद ही पता हो कि देश में 1982 से राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम और 1996 से जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि यह कार्यक्रम केवल नाममात्र के हैं। वर्ष 1987 में मानसिक स्वास्थ्य कानून भी बनाया गया था। मौजूदा सरकार ने 2017 में 1987 के इस कानून को नया स्वरूप देकर समावेशी बनाने का प्रयास तो किया, लेकिन देश के एक दर्जन से अधिक राज्यों ने अभी तक भी इसे अपने यहां लागू ही नही किया है।

इस साल के बजट में पहली बार मानसिक आरोग्य के लिए राष्ट्रव्यापी टेली काउंसलिंग सहित अन्य प्रावधानों पर बजट आबंटन देखने को मिले हैं। इस बार कुल स्वास्थ्य बजट का करीब बारह फीसद हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च के लिए आबंटित किया गया है। यह एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन तथ्य यह है कि देश के सामने लोगों को मानसिक समस्याओं से निपटने चुनौती लगातार बढ़ती जा रही है। कोविड के अकेलेपन ने आर्थिक रूप से समृद्ध ही नहीं, प्रबुद्ध एवं गरीब वर्ग को भी मानसिक विकारों से घेर लिया है।

भारत में केवल सैंतालीस मानसिक आरोग्यशाला (मेंटल हास्पिटल) हैं जिनमें से भी दो या तीन ही ऐसे हैं जो मानक सुविधाओं से युक्त हैं। यानी सवा तीन करोड़ लोगों पर णात्र एक मानसिक चिकित्सालय हमारे देश में है। वर्ष 2017 के मानसिक स्वास्थ्य देखभाल कानून में मानसिक आरोग्य के लिए सुव्यवस्थित ढांचा एवं रोगियों की पहचान से लेकर पुनर्वास के प्रभावी प्रावधान हैं। लेकिन पांच साल बाद भी देश के सभी राज्यों में यह कानून लागू नहीं हो पाया है। संघीय ढांचे का रोना रोने वाली राज्य सरकारें इस मुद्दे पर बिल्कुल भी गंभीर नहीं दिख रही हैं।

वित्त वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के लिए तिरासी हजार करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है। कोविड महामारी से पहले के वित्त वर्ष 2019-20 की तुलना में यह लगभग तैंतीस फीसद की बढ़ोतरी है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी गुणवत्तापूर्ण सेवाओं के लिए राष्ट्रीय टेली-मेंटल हेल्थ कार्यक्रम के गठन का प्रस्ताव महत्त्वपूर्ण है।

देश के तेईस केंद्रों से नागरिकों को टेली-परामर्श सेवाएं उपलब्ध कराने का दावा किया गया है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज की देखरेख और विनियमन के साथ आइआइआइटी, बंगलुरु के तकनीकी सहयोग के जरिए ये सेवा मुहैया कराई जाएगी। इसके बाबजूद देश के आम आदमी के लिए मानसिक आरोग्य का लक्ष्य अभी बहुत कठिन ही नजर आता है क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य बजट में बारह फीसद की बढ़ोतरी को ध्यान से देखा जाए तो मूल रूप से ये केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित किए जा रहे दो संस्थानों- मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, बंगलुरु और तेजपुर के लिए ही है। आवश्यकता तो राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य मिशन में बड़े बदलाव की है, जिसे लेकर कोई खास आबंटन नहीं है और इसे राज्यों के भरोसे छोड़ दिया गया है, जो पहले से ही इस मामले में उदासीन बने हैं।


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