मंत्रिमंडल विस्तार से महाराष्ट्र की राजनीति में स्थिरता की उम्‍मीद

Update: 2023-07-17 04:09 GMT

Written by जनसत्ता:  महाराष्ट्र का घटनाक्रम इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। कब किसी को पता था कि भाजपा की धुर विरोधी मानी जाने वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस में भारी टूट होगी और उसके विधायक भाजपा के समर्थन से चल रही सरकार में शामिल हो जाएंगे। मगर ऐसा हुआ और सरकार में कुछ इस कदर नाटकीय बदलाव हुआ कि शिव सेना से अलग हुआ शिंदे गुट ठगा हुआ महसूस करने लगा।

एकनाथ शिंदे वहां मुख्यमंत्री हैं, मगर वे अपने समर्थक विधायकों को मनचाहा मंत्रालय नहीं दिला सके और दो हफ्ते पहले सरकार में शामिल हुए अजित पवार ने अपने सारे मनचाहे विभाग ले लिए। एक तरह से घूम-फिर कर सरकार का वही स्वरूप बन गया, जो पहले महाविकास आघाड़ी के समय था।

अजित पवार उपमुख्यमंत्री के साथ-साथ वित्तमंत्री भी बन गए और अपने विधायकों को सहकारिता, कृषि, चिकित्सा शिक्षा, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, खेल, महिला एवं बाल विकास जैसे महत्त्वपूर्ण महकमे दिला दिए। राकांपा के विधायक इन विभागों की ख्वाहिश पहले से पाले हुए थे, इसलिए कि उनमें से कई सहकारी या निजी चीनी मिलें चलाते हैं, कइयों के चिकित्सा शिक्षा से जुड़े संस्थान हैं। जाहिर है, इसमें सबसे अधिक फायदा राकांपा से टूटे विधायकों को मिला है।

हालांकि इस मंत्रिमंडल विस्तार से महाराष्ट्र की राजनीति में स्थिरता आएगी, इसका दावा अभी नहीं किया जा सकता। कई लोगों की स्वाभाविक दिलचस्पी है कि अब महाराष्ट्र का ऊंट किस करवट बैठेगा, देखने की बात है। इसकी वजह भी है। दरअसल, इस मंत्रिमंडल विस्तार से शिंदे गुट के विधायकों में असंतोष उभरने लगा है।

पिछली सरकार में भी अजित पवार वित्तमंत्री थे और शिंदे गुट यानी तबके शिव सेना के इन्हीं विधायकों की शिकायत रहती थी कि वे उन्हें कोष का आबंटन नहीं करते। वही शिकायत अब भी रहेगी। फिर, जबसे यह सरकार बनी है, शिव सेना से अलग होकर आए विधायकों को महत्त्वपूर्ण महकमों की ख्वाहिश थी, मगर ज्यादातर अहम विभाग उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पास थे।

अब उन्होंने अपने हिस्से के विभाग शिंदे गुट के विधायकों को न देकर अजित पवार के साथ आए विधायकों को दे दिए हैं। बताया जा रहा है कि यह बंटवारा दिल्ली में भाजपा आलाकमान की सहमति से किया गया है। इसलिए कई लोगों का मानना है कि शिंदे गुट के विधायक फिर से बागी तेवर दिखा सकते हैं। मगर इससे भाजपा को कोई नुकसान नहीं होने वाला। वह शिव सेना और राकांपा को तोड़ कर न सिर्फ महाराष्ट्र की सरकार में ताकतवर हुई है, बल्कि आने वाले चुनावों में भी इसका लाभ उसे ही मिलने वाला है।

मगर महाराष्ट्र के इस घटनाक्रम से नुकसान लोकतंत्र को हुआ है। मतदाता ठगे गए हैं। जिन सिद्धांतों और भरोसे पर उन्होंने अपने प्रतिनिधि चुने थे, वे इस कदर पाला बदल करके अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग जाएंगे, शायद उन्होंने सोचा भी न होगा। यह ठीक है कि हर कोई सत्ता में जगह बनाने के मकसद से ही चुनाव लड़ता है, मगर जब इसके लिए सारे सिद्धांतों और राजनीतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दी जाए, तो सवाल उठने स्वाभाविक हैं।

लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं और वहां की विधानसभा का कार्यकाल भी ज्यादा नहीं बचा है। ऐसे में जब ये नेता फिर से लोगों के बीच वोट मांगने जाएंगे, तो किस सिद्धांत की दुहाई देंगे, देखने की बात होगी। पर फिलहाल महाराष्ट्र की सियासत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को एक बार फिर कमजोर किया है।

 

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