बुक रिव्यू : शाहरुख खान के लिए तन्हा जवां महिलाओं की बेपनाह चाहत की कहानियां

तन्हा जवां महिलाओं की बेपनाह चाहत की कहानियां

Update: 2021-11-16 08:29 GMT
चिंतन गिरीश मोदी।
श्रयाना भट्टाचार्य, एक अर्थशास्त्री हैं और साथ ही शाहरूख खान की बड़ी फैन भी. उनकी नई किताब में शाहरूख के जीवन के दोनों पहलू एक दूसरे से संवाद करते नजर आते हैं और एक ऐसी साहसिक नॉन-फिक्शन कृति सामने आती है, जिसमें उदार भारत की हेटेरोसेक्सुअल महिलाओं की इच्छाओं और असंतोष के बारे भी बताया गया है, और जो अपने फिल्मी आइडल को लेकर "रूमानी तौर पर तबाह" हैं. समानता और आर्थिक आजादी के साथ-साथ उन्हें सेक्सुअल और भावनात्मक संतुष्टि की भी तलाश है.
क्या उन्हें ये सब हासिल हो जाएंगे? भट्टाचार्य की किताब Desperately Seeking Shah Rukh: India's Lonely Young Women and the Search for Intimacy and Independence (2021) के मुताबिक देखें तो जवाब नकारात्मक होगा. खान के साथ उनके रिश्ते – जो कि उन्होंने उनकी फिल्में, पब्लिक एपियरेंस और मीडिया इंटरव्यू के आधार पर कायम की है – उन्हें निराशा के दौर में राहत देता है. इन महिलाओं के जीवन में शाहरूख की मौजूदगी उन्हें आगे बढ़ते रहने का हौसला देता है.
अपनी दीवानगी के बारे में खुलकर लिखती हैं
भट्टाचार्य की किताब, एक शानदार कृति है क्योंकि वह इसमें अपनी दीवानगी के बारे में लिखती हैं. इसकी वजह से उनकी नजर और शब्द, ऐसे नहीं लगते कि जैसे कोई दूर से कुछ कह रहा हो. वह मजाकिया हैं, अपनी आलोचना से नहीं हिचकचाती हैं और चतुर वाक्यों का प्रयोग करती हैं. हार्वर्ड से शिक्षा और वर्ल्ड बैंक की नौकरी से मिले रुतबे को लेकर वह चिंतित नजर आती हैं. शिक्षा ने उन्हें जो शक्ति दी है, उसे लेकर वो जिम्मेदार हैं और इसलिए शब्दों को लेकर काफी संवेदनशील भी हैं.
इस किताब को HarperCollins India ने प्रकाशित किया है, और इसमें दिल्ली, जैसलमेर, लखनऊ, रायपुर, चंड़ीगढ़, मुंबई, कोलकाता और पटना की महिलाओं की कहानियां शामिल हैं. ये महिलाएं विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमियों से आती हैं. खर्च करने की उनकी आदतें एक जैसी नहीं हैं. लेकिन, इन सभी में एक बात कॉमन है, और वो हैं एक्टर शाहरूख खान, जो उन्हें निराश नहीं होने देते. इनके लिए यह एक्टर एक सेलिब्रिटी से बढ़कर है. वो इन्हें सुने, देखे और प्यार किए जाने का अहसास कराता है.
ये कोई भोलीभाली फैन नहीं हैं. उन्हें पता है कि खान एक "व्यावसायिक प्रेम" है. उन्हें कल्पना की दुनिया में लाया गया है क्योंकि किसी न किसी रूप में उन्हें यह लुभाता है, भले ही यह दूसरों के समझ से परे हो, लेकिन उनके लिए यह मायने रखता है. ये महिलाएं 'डर(1993)' फिल्म में उनकी नकारात्मक भूमिका को नजरअंदाज कर देती हैं और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995)' में किचन में मदद करने वाले शख्स की भूमिका को पसंद करती हैं. खान के बारे में अपनी सोच को आगे बढ़ाते हुए, वे वही व्यक्त करती हैं जो वे अनुभव करना चाहती हैं.
कठोर पुरुषत्व का विकल्प
अहमदाबाद में गारमेंट का कारोबार करने वाली एक महिला इस लेखिका को बताती हैं, "मैं कल्पना करती हूं कि मुझसे भी कोई ऐसे बात करता या मुझे ऐसे टच करता… जैसे 'कभी खुशी, कभी गम' में शाहरूख ने काजोल के साथ किया… लेकिन मेरे पति का स्वभाव और उनके हाथ बहुत कठोर हैं." यह एक्टर, कठोर पुरुषत्व का विकल्प उपलब्ध कराता है, लेकिन यह विकल्प उनके काल्पनिक जीवन में ही उपलब्ध है, न कि वास्तविक जीवन में. भट्टाचार्य इनका नाम जाहिर नहीं करतीं, क्योंकि वह इस महिला निजता का सम्मान करती हैं.
भट्टाचार्य स्पष्ट करती हैं कि उनकी कृति मानवजाति का चरित्रचित्रण नहीं है. यह किताब दावा नहीं करता कि इसमें शामिल कहानियां महिलाओं की रोजमर्रा के जीवन को दर्शाता है. ये कहानियां, "लोगों की बातों, फोन कॉल, फिल्म स्क्रीनिंग, शादियां, महिलाओं के प्यार और मेहनत को पंद्रह सालों तक देखने-सुनने पर आधारित है – जिनके जरिए मैं यह चित्रित कर पाई कि कैसे आम महिलाएं फुर्सत, फैनडम और फैंटसी की मदद से भेदभाव और अकेलेपन का सामना कर पाती हैं."
विद्रोही महिलाओं की कहानी
इस किताब में उन महिलाओं की कहानियां हैं जिन्होंने अपने माता-पिता से विद्रोह कर दिया, जिन्होंने अपने बच्चों के देखभाल की खातिर अपनी नौकरियां छोड़ दीं, जिन्होंने अपने परिवार का कर्ज चुकाया, जिन्होंने अपने पैसों में पढ़ाई की, जो अपनी शादी से नाखुश हैं, जो उन व्यक्तियों के साथ सोती हैं जिनके साथ उनका कोई भविष्य नहीं है, जो अपनी नियोक्ता कंपनी के सामने अपनी योग्यता को साबित करते-करते थक गई हैं, ऐसी महिलाएं जो अमीर आदमी के साथ जुड़ना चाहती हैं. इस किताब में एक कहानी उस एकाउंटेंट के बारे में भी है जिसके पिता उसे खान के प्रति अति-लगाव के लिए रोकते हैं. भट्टाचार्य लिखती हैं, "कई बार उसके पिता उसे रंगे हाथों पकड़ लेते हैं जब वो अपनी डायरी में शाहरूख के कट-आउट पेस्ट कर रही थी. उसे डांट पड़ती. लगता था कि उसके पिता अपनी बेटी की सेक्सुअलिटी को लेकर परेशान थे. वो डायरी उन्हें डराती थी." उनकी चिंता थी कि खान के प्रति उसकी दीवानगी के चलते उनकी बेटी उनके हाथों से निकल जाएगी.
यह किताब उन पाठकों को विचित्र लग सकती है जो विचारों के बदलाव से सहज नहीं होते. किंतु यही किताब उन पाठकों को आनंदित कर सकती है जो दबी उम्मीदों के जाहिर करने को लेकर सहज हैं. एक तरफ तो भट्टाचार्य पितृसत्तात्मक परिवारों में महिलाओं के गैर-वेतनप्राप्त कार्यों के बारे में अंतर्दृष्टि उपलब्ध कराती हैं. दूसरी तरफ, वो ऐसी खुली सोच वाली महिलाओं के बारे में बताती हैं जो अपनी बौद्धिक उत्सुकता और व्यावसायिक सफलता के लिए पुरुषों के प्रति कम सम्मान रखती हैं. भट्टाचार्य, संदर्भों का एक विस्तृत स्रोत पेश करती हैं, इनमें पत्र-पत्रिकाओं के लेख, कॉन्फ्रेंस पेपर्स, आलोचकों से हुई बातचीत, डाक्यूमेंट्री फिल्म, समाचार, सरकारी टिप्पणियां, विभिन्न थिंक टैंकों के आंकड़े और उनकी खुद की चेतना शामिल हैं. उनका यह प्रयोगात्मक लेख, उन पाठकों को निराश कर सकता है जो ऐसा कठोर विचार रखते हैं कि एक अर्थशास्त्री को मौजूदा लोकप्रिय संस्कृति के बारे में कैसा लिखना चाहिए.
अपना पक्ष रखते हुए लेखिका कहती हैं, "यह किताब मैंने इसलिए लिखा है क्योंकि मैं जेंडर और पितृसत्ता को लेकर सोशल साइंटिस्ट्स और विकास संस्थाओं के अस्पष्ट और जटिल परिभाषाओं को लेकर अंसतुष्ट हूं. इसलिए मैं उन शोधकर्ताओं का धन्यवाद करना चाहूंगी जो कम पैसे वाले भारतीय थिंक-टैंक और महिला संगठनों से आते हैं. इस किताब पेश की गई अंतर्दृष्टि, जीवंत अनुभव को सामने लाने के प्रति उनके उत्साह के कारण संभव हो पाया है."
कावेरी बामजई की किताब The Three Khans and the Emergence of New India (2021), (Westland द्वारा प्रकाशित), भट्टाचार्य की किताब से शानदार जुगलबंदी करेगी. बामजई ने अपनी किताब में उस सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की पड़ताल की है जिसने शाहरूख खान, सलमान और आमिर खान के ऑन-स्क्रीन और ऑफ-स्क्रीन व्यक्तित्व को आकार दिया है. उनका तुलनात्मक विश्लेषण भट्टाचार्य की कृति का पूरक है.
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