बिल्कुल उसी तरह जैसे देश की अर्थ-व्यवस्था की तरक्की को टटोल-टटोल कर मचान पर बैठे अंधे निशानची अपने-अपने नारों, भाषणों और वक्तव्यों के फायर कर रहे हैं। एक ओर बना है विश्व व्यापार संगठन, जिसके दादा गुरु हैं बड़े-बड़े सम्पन्न देश। पिछले वर्षों से लगातार मंदी झेलते हुए उनके नाम बड़े और दर्शन छोटे हो चुके हैं। आजकल सैन्य बलों के शक्ति प्रदर्शन और परमाणु हथियारों से अधिक ज़रूरी हो गया है, अपने फालतू उत्पादन और उनसे बना सकने वाली पूंजी, श्रम और उद्यम को खपाना। वह वक्त नहीं रहा कि अपने भारी फौजी बूटों की धमक और परमाणु विस्फोटों के डर से नई भौगोलिक बस्तियां काबू कर गर्वोक्ति करना कि 'हमारा शासन इतना फैला है कि यहां कभी सूरज नहीं डूबता। पूर्व से पश्चिम तक हमारी अमलदारी है।' आज इसके बोझ को अपनी चरमराती हुई अर्थ-व्यवस्था के कंधों पर कोई अमीरजादा देश नहीं ङोल सकता। यूरो हो या पैन, डालर हो या पाऊंड, सब जगह इनकी मुद्रा की आब उतर चुकी है।
इसे जि़ंदा करने के लिए ज़रूरी है कि नई भौगोलिक बस्तियां नहीं, नई ग्राहक मंडियां उनकी गुलाम हो जाएं। तीसरी दुनिया के देशों की कुंवारी मांग वाली बस्तियों को सधवा बनाने से बेहतर है इन जागते देशों को अपने व्यापारिक उपनिवेश बनाना। इसलिए विकास के हाथी की पड़ताल करने वाले से अंधे समीक्षक अंधे निशानचियों की तरह खोखले फायर कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हमारे देश का दर्जा घटाकर विकासशील से अल्पविकसित कर दिया, लेकिन विश्व व्यापार संगठन तो है, धनी व्यापारियों के वर्चस्व वाला मंच या अपनी बैठक जमाते हैं, सब आंखें बंद करके इस हाथी को अपने निशाने पर ले रहे हैं। कोई कहता है यह अब गरीब देश नहीं रहा, विकसित हो चुका है। बहुत दिन इन्होंने अपनी गरीबी का रोना रोकर टैक्स राहतें और टैक्स छूटें प्राप्त कर ली हैं। अब राहतें और छूटें वापस लो, इन पर पूरे टैक्स लगाओ, अपनी कमाई करो, अपनी मंदी दूर करो। हमारा माल इन भूखे नंगों के देश में बिकता है तो यह भला गरीब कैसे हुए? इन्हें विकसित देश का तगमा दो और यहां ऊंची कीमत पर अपना माल बेचे। देखो, अंधे निशानचियों ने आपके विकास को अपने निशाने पर ले लिया। आपके अधूरे फ्लाईओवरों, बहुमंजि़ली इमारतों को देख कर उसे विकसित घोषित कर दिया। नहीं देखा, इन ऊंची इमारतों के साये तले पलते वर्षो से छटपटाते उन लोगों को जो एक युग से एक नई सुबह का इंतज़ार कर रहे हैं।
सुरेश सेठ
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