मध्यप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का विकल्प बन पाएगी भीम आर्मी

क्या भीम आर्मी, बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) का विकल्प बनने जा रही है

Update: 2022-01-04 10:03 GMT

दिनेश गुप्ता क्या भीम आर्मी, बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) का विकल्प बनने जा रही है. भीम आर्मी (Bhim Army) के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad) की नजर इन दिनों मध्यप्रदेश के 17 प्रतिशत अनुसूचित जाति के वोटरों पर है. इस वर्ग के वोटर का जिस तरह से बीएसपी से मोह भंग हुआ है,उसमें स्वाभाविक तौर पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भीम आर्मी विकल्प बनने की राह पर है.

यदि भीम आर्मी बेहतर विकल्प देने में सफल हो जाती है तो सबसे ज्यादा मुश्किल कांग्रेस को आने वाली है. बीएसपी के उदय के साथ ही अनुसूचित जाति वर्ग की कांग्रेस (Congress) से दूरी साफ दिखाई दी. इस दूरी के कारण ही कांग्रेस हिन्दी पट्टी के राज्यों में लगातार पिछड़ती जा रही है.
कांशीराम के नाम से बन पाएंगे विकल्प
इस साल उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं. ऐसे वक्त में चंद्रशेखर आजाद की मध्यप्रदेश में सक्रियता चौंकाने वाली है. उत्तरप्रदेश में चुनावी रैलियों का दौर शुरू हो चुका है. इसमें केवल दो ही दलों के नेता सक्रिय नजर आ रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी. कांग्रेस की ओर से प्रियंका गांधी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश कर रही हैं. नजर नहीं आ रहीं हैं तो सिर्फ बीएसपी प्रमुख मायावती. चुनाव में मायावती की भूमिका को लेकर अभी संशय बना हुआ है. उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान बहुजन समाज पार्टी से हुआ है. बीएसपी के आने के बाद कांग्रेस से उसका परंपरागत दलित वोटर दूर हुआ.
समाजवादी पार्टी ने अल्पसंख्यक वोटर को अपने पक्ष में कर लिया. वोटों के लिहाज से बीएसपी आज भी उत्तरप्रदेश में मजबूत राजनीतिक दल के तौर पर पहचान रखती है. उसका अपना वोट बैंक है. चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाली भीम आर्मी का टारगेट वोटर भी अनुसूचित जाति वर्ग का ही है. चंद्रशेखर आजाद रावण अपनी पार्टी आजाद समाज पार्टी के साथ कांशी राम का नाम भी उपयोग करते हैं. जाहिर है कि वे कांशीराम का उत्तराधिकारी होने का संदेश अपने वर्ग में दे रहे हैं.
मध्यप्रदेश में घट रहा है बीएसपी का जनाधार
आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद अपनी गतिविधियों का विस्तार उत्तरप्रदेश से बाहर भी कर रहे हैं. राजस्थान और मध्यप्रदेश दोनों ही राज्यों को उन्होंने अपने चुनावी एजेंडे में रखा है. मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित कुल सीटों की संख्या 35 है. कुल सत्रह प्रतिशत आबादी इस वर्ग की है. पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से बीएसपी इस वर्ग के सहारे ही राज्य में राजनीति कर रही है. वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बन जाने के बाद बीएसपी उत्तरप्रदेश की सीमाओं से लगे विधानसभा क्षेत्रों में अपनी मजबूत स्थिति दर्ज कराती रही है. लेकिन सीटों की संख्या के लिहाज से वह कमजोर होती जा रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में बीएसपी के खाते में सिर्फ दो सीट ही आईं थीं. उसके वोट का प्रतिशत घटकर पांच प्रतिशत रह गया. कुल वोट भी घट गए.
आबादी के अनुसार नहीं मिली भागीदारी
सीटों के लिहाज से बसपा के लिए नब्बे का दशक काफी अच्छा रहा है. बीएसपी ने साढ़े तीन प्रतिशत वोटों के साथ चुनावी राजनीति शुरू की थी. छत्तीसगढ़ भी मध्यप्रदेश का हिस्सा था. बीएसपी को अधिकतम ग्यारह विधानसभा की सीटें मिली हैं. लोकसभा की सीट भी बीएसपी जीत चुकी है. वर्ष 2008 में बसपा को 8.72 प्रतिशत वोट मिले थे. इसके बाद वोटों में लगातार गिरावट देखने को मिल रहा है. बसपा को अधिकतम 22 लाख वोट ही अब तक मिले हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे कुल बीस लाख से भी कम वोट मिले थे. बीएसपी के वोट कम होने का फायदा कांग्रेस को मिला और उसने पंद्रह साल बाद राज्य की सरकार में अपनी वापसी की.
इस वापसी में ग्वालियर-चंबल अंचल में चुनाव से ठीक पहले हुए वर्ग संघर्ष का बड़ा योगदान रहा है. इस अंचल में बीएसपी को वोटर कांग्रेस के पक्ष में जाता दिखाई दिया है. 28 सीटों के उप चुनाव के नतीजों में भी इस बात के संकेत मिले कि अनुसूचित जाति वर्ग बीएसपी से दूर जा रहा है. आजाद की नजर इसी वोटर पर है. आजाद लगातार मध्यप्रदेश में सक्रिय भी दिखाई दे रहे हैं. नेमावर हत्याकांड के विरोध में भी आजाद अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं. यद्यपि हत्या आदिवासी परिवार के पांच सदस्यों की हुई थी.
सामान्य सीटों पर निर्णायक होता है अनुसूचित जाति वर्ग का वोटर
मध्यप्रदेश में बीएसपी को कभी सत्ता में आने का मौका नहीं मिला. कभी वह कांग्रेस और कभी बीजेपी की बी टीम के तौर पर दिखाई दी. बीएसपी के उम्मीदवारों के कारण सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को होता रहा है. सामान्य वर्ग की लगभग पचास विधानसभा की सीटें ऐसी हैं, जहां अनुसूचित जाति वर्ग निर्णायक हो जाता है. यह सीटें ग्वालियर-चंबल संभाग के अलावा रीवा एवं सागर संभाग की हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में रीवा संभाग में कांग्रेस को बड़ी सफलता नहीं मिली थी. इस इलाके में बीजेपी ने बढ़त बनाई थी. इस बढ़त के कारण ही बीजेपी को कांग्रेस के मुकाबले में में लगभग एक प्रतिशत वोट ज्यादा मिले थे. लेकिन,सीटें कांग्रेस को ज्यादा मिलीं.
इन सीटों के कारण ही वह सरकार बनाने में सफल रही थी. पिछले ढाई दशक के चुनाव नतीजों में यह साफ दिखाई देता है कि कांग्रेस यदि चालीस प्रतिशत से अधिक वोट हासिल कर लेती है तो वह सरकार बनाने में सफल हो जाती है. बीजेपी का सबसे अच्छा प्रदर्शन वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला था. पार्टी को 44.87 प्रतिशत वोटों के साथ 165 सीटें मिली थीं. यद्यपि सबसे ज्यादा 171 सीटें वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में मिली थीं. इस चुनाव में बीजेपी को कुल 42.5 प्रतिशत वोट मिले थे. बीएसपी को 7.26 प्रतिशत और कांग्रेस को 31.61 प्रतिशत वोट मिले थे.
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