मतदाताओं के रवैये के दूरगामी असर होंगे, संसदीय लोकतंत्र का नया सवाल- मतदाता कैसा हो?
उत्तर प्रदेश के चुनाव से पहले मेरे विचार में भारत के संसदीय लोकतंत्र का केंद्रीय प्रश्न एक ही था
अभय कुमार दुबे का कॉलम:
उत्तर प्रदेश के चुनाव से पहले मेरे विचार में भारत के संसदीय लोकतंत्र का केंद्रीय प्रश्न एक ही था : 'हमारा प्रतिनिधि कैसा हो?' इस सवाल का संतोषजनक जवाब अभी मिल भी नहीं पाया था कि इस विधानसभा चुनाव ने एक दूसरा केंद्रीय प्रश्न सामने रख दिया है। यह है : 'हमारा मतदाता कैसा हो?' इस सवाल के महत्व को समझने के लिए चुनावी गोलबंदी में इस्तेमाल की जा रही युक्तियों और उनसे प्रभावित होने वाले मतदाता के मानस पर गौर करना जरूरी है।
इस तर्ज पर सोच-विचार करते ही हमें कुछ आनुषंगिक प्रश्नों का सामना करना पड़ेगा। मसलन, हमें सोचना होगा कि क्या भारतीय मतदाता को किसी पार्टी या नेता के प्रति इतना निष्ठावान होना चाहिए कि वह उससे लगातार असंतुष्ट होते हुए भी उसके खिलाफ वोट डालने से परहेज करता रहे? क्या हमारे मतदाता को उसे आर्थिक या अन्य तरह की राहत देने वाली सरकार के प्रति इस हद तक कृतज्ञ होना चाहिए कि वह उसे वोट देने के ज़रिये 'नमक का हक' अदा करता हुआ महसूस करे?
क्या किसी मतदाता को बार-बार एक ही पार्टी को केवल इसलिए वोट देते रहना चाहिए कि उसने अतीत में कभी उसके समुदाय को सत्ता का दुर्लभ स्वाद चखाया था, भले ही उस एक सफलता के बाद उस मतदाता-समूह के सभी वोट चुनाव-दर-चुनाव बरबाद होते रहें? क्या उन्हें इतना तंगनज़र होना चाहिए कि वह किसी नेता या पार्टी की घोषणा को केवल अपने इलाके, प्रदेश या अपने समुदाय या अपनी लैंगिक-स्थिति के मद्देनज़र ही देखे और दृष्टि की व्यापकता और गहराई का इस्तेमाल न करे- भले ही तथ्य पुुकार-पुकार कर अपनी कहानी स्वयं कह रहे हों?
ये सभी सवाल उत्तर प्रदेश की चुनावी हकीकत पर ही रोशनी नहीं डालते, बल्कि हमारे समूचे लोकतंत्र की हुलिया को सामने रख देते हैं। मिसाल के लिए, एंटी-इनकम्बेंसी या सरकार विरोधी भावनाओं का सामना हर सत्तारूढ़ दल को करना पड़ता है। उसे बेअसर करने के लिए सत्तारूढ़ ताकतें मतदाताओं को याद दिलाती हैं कि उनके हित में क्या-क्या किया गया है।
'नमकहरामी' और 'नमकहलाली' जैसे फिकरों का इस्तेमाल किया जा रहा है। वोटों की गोलबंदी के इतिहास में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल और इस तरह के मनोभावों को उभारने के प्रयास का यह पहला उदाहरण है।मतदाता को सरकारी मदद के ज़रिये 'लाभार्थी' की श्रेणी में बदला जाता है, ऐसा 'लाभार्थी' कहीं जातिगत और सामुदायिक निष्ठाओं के चलते 'सरकारी कृपा' को भूल न जाए इसलिए प्रचारकों की तरफ से उसे नमक का हक अदा करने की नैतिकता याद कराई जा रही है।
यह प्रकरण बताता है कि आधुनिक राजनीति को विशुद्ध सामंती सामाजिक-आर्थिक संबंधों तक भी गिराया जा सकता है। पिछले सात-आठ साल से कई राज्यों में नकद या अन्य तरह की राहत से विभिन्न पार्टियों की सरकारों ने लाभार्थियों की यह श्रेणी तैयार की है। चुनावों में इस श्रेणी के कारण एंटी-इनकम्बेंसी का सामना करने में मदद भी मिली है।
लेकिन, इन प्रदेशों में लाभार्थियों को वोटरों में बदलने की रणनीति की खुली दावेदारियां नहीं की गईं। इसके विपरीत उप्र के चुनाव में यह प्रयोग मुखर ढंग से किया जा रहा है। अगर सरकारी पार्टी इस प्रयोग में सफल हो गई, तो निकट भविष्य में चुनाव के जरिए सरकारें बदलना पहले के मुकाबले बहुत मुश्किल हो जाएगा।
इन सभी लिहाज़ से उत्तर प्रदेश का चुनाव मतदाताओं की परीक्षा बन गया है। सारे देश की निगाहें इस बात पर लगी हुई हैं कि देश के सबसे बड़े राज्य के मतदाता क्या रुख अपनाते हैं। क्या वे सरकारी मदद को अपने अधिकार की तरह ग्रहण करने का तर्कसंगत रवैया प्रदर्शित करेंगे? क्या ये मतदाता आर्थिक राहत के बदले अपनी जातिगत-समुदायगत निष्ठाओं को कम से कम वोट डालने के मामले में स्थगित कर देंगे? अगर मतदाताओं ने ऐसा किया तो इसके दूरगामी असर होंगे। राजनीति के साथ-साथ अर्थनीति पर भी।
एक खास तरह की राजनीतिक प्रोद्योगिकी के माध्यम से जरूरतमंद नागरिक को पहले सरकारी मदद के ज़रिये 'लाभार्थी' की श्रेणी में बदला जाता है, और फिर उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सरकारी पार्टी के प्रतिबद्ध वोटर की भूमिका निभाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)