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भूस्खलन के सभी हादसों को प्राकृतिक मान कर उनसे एकदम किनारा नहीं कर लेना चाहिए। यह माना कि यह सब प्राकृतिक आपदा का हिस्सा हैं। न्युगलसरी (किन्नौर) में हुए भूस्खलन एवं पहाड़ी चट्टानें खिसकने से 14 लोगों की जानें चली गईं और इतने ही लोग गायब हैं मलबे के नीचे, क्योंकि जिस बस में वे यात्रा कर रहे थे, चट्टान उसी बस से टकरा गई। ऐसे ही हादसे में जुलाई महीने में बस्तेरिया (किन्नौर) में चट्टानें खिसकने से एक पुल बह गया और 9 पर्यटकों की मौत हो गई। राष्ट्रीय राजमार्ग पांच पर भूस्खलन के यह हादसे चौंकाने वाले हैं। सरकार को इन सभी जगहों को चिन्हित करना होगा और बचाव के लिए 100 किलोमीटर के दायरे में सुरक्षा टुकडि़यां तैनात करनी चाहिए, क्योंकि इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर अत्यधिक यातायात रहता है…
हिमाचल प्रदेश की भौगोलिक स्थिति देखते हुए इस बात में कोई दो राय नहीं कि यहां पर प्राकृतिक आपदा, जैसे भूकंप, आकस्मिक बाढ़ एवं भूस्खलन का डर निरंतर बना रहता है, बाकी अन्य राज्यों की तरह जो हिमालय की पर्वत शृंखला के आसपास हैं, जैसे उत्तराखंड। पिछले दो महीनों में हिमचाल में कई जगह भूस्खलन हुए। कई लोगों की जान भी गई। यह अधिकतर किन्नौर जिले में हुए। धर्मशाला में आकस्मिक बाढ़ से आसपास के क्षेत्रों को काफी हानि हुई। पार्वती घाटी में भी आकस्मिक बाढ़ से काफी नुक्सान हुआ। जून 2013 में उत्तरकाशी, केदारनाथ एवं जोशीमठ के आसपास के इलाकों में आकस्मिक बाढ़ ने तबाही मचा दी थी। अभी भी लोग अपने जीवन को राह पर लाने में लगे हुए हैं। हिमाचल का कुल क्षेत्रफल 55673 वर्ग किलोमीटर है, जो देश के कुल क्षेत्रफल का मात्र 1.69 प्रतिशत है। अगर देखा जाए तो हिमाचल में 37033 वर्ग किलोमीटर जंगल हैं, जो प्रदेश की पूरी भूमि का 62 प्रतिशत है।
पिछले पच्चीस सालों में सरकारी आंकड़ों के अनुसार जंगलों का अनुपात बढ़ा है और निरंतर वृक्षारोपण हो रहा है। इसके साथ ही प्रदेश प्रगति के पथ पर अग्रसर है, जिसमें रास्तों को 4 लेन, सुरंगों का निर्माण तथा पन बिजली परियोजनाएं शामिल हैं। किनौर, कुल्लू तथा अन्य जिलों में यह प्रगति साफ दिखाई देती है। लेकिन इन क्षेत्रों में कुछ जगहें ऐसी हैं जहां पर चट्टानें गिरने और भूस्खलन का भय हमेशा बना रहता है। अगर हम भूस्खलन के पुराने आंकड़े देखें तो मालूम होगा कि 1968 में मलिन में एक बड़ा भूस्खलन हुआ था जो करीब एक किलोमीटर के दायरे में था। 1982 में शोल्डिंग नाला में तीन पुल बह गए थे और एक किलोमीटर क्षेत्र प्रभावित हुआ था। 1989 में नाथपा झाकड़ी के पास झलान में भूस्खलन हुआ था। 1995 में सितंबर के महीने में कुल्लू में लेफ्ट बैंक में ब्यास नदी के किनारे लुगड़ भट्टी में एक बड़ा हादसा हुआ था।
इस भूस्खलन में 65 स्कूली बच्चों की जान चली गई थी। पूरी ढलानबह कर नीचे आ गई थी। सड़क पर जो लोग चल रहे थे, इस हादसे का शिकार हुए। 25 सालों के बाद भी यह रास्ता उस जगह से अब भी ख़राब रहता है। कभी भी पहाड़ी बरसात में बह कर फिर नीचे आ सकती है। इस जगह पर अगर हादसे के बाद वृक्षारोपण किया होता तो 25 साल में किसी भी प्रजाति के पेड़ आज बड़े हो गए होते और जमीन की पकड़ मज़बूत हो गई होती। हमें चीड़, देवदार के पेड़ों की जगह दूसरी प्रजाति के पेड़ भी अपनाने होंगे जो जल्दी बड़े हों, उनसे चारा भी मिले तथा सतत हों। कुल्लू जिले में पलचान से लेकर भुंतर तक ब्यास नदी के किनारे अकस्मात बाढ़ से बह जाते हैं, क्योंकि इन जगहों पर काफी अतिक्रमण हुआ है। जैसे ही बरसात में जलस्तर बढ़ता है, नदी पर बने पुलों एवं आसपास की आबादी के बहने का अंदेशा रहता है। नदी का आकार काफी बदल गया है। ब्यास नदी को हेरिटेज नदी घोषित कर देना चाहिए। इसके रखरखाव, किनारों की देखभाल एवं पर्यटकों के लिए ऐसे शेल्टर्स का निर्माण किया जाना चाहिए जहां से वे नदी के सुंदर दृश्य देख सकें, महसूस कर सकें, नदी में सीधे उतर कर जान जोखिम में न डालें। 80 के दशक में पंडोह से लेकर औट तक रास्ता बरसात में अधिकतर भूस्खलन और चट्टानें गिरने से बंद रहता था। फिर सड़क की चौड़ाई बढ़ाई गई। अवैध खनन को रोका गया, राष्ट्रीय राजमार्ग को सड़क के किनारे रेलिंग लगा कर सुरक्षित किया गया तथा आपदा की स्थिति में सड़क का रखरखाव करने के लिए बुलडोज़र तैनात किए गए।
अब यह राष्ट्रीय राजमार्ग हमेशा सुचारू रूप से चलता है। भूस्खलन के सभी हादसों को प्राकृतिक मान कर उनसे एकदम किनारा नहीं कर लेना चाहिए। यह माना कि यह सब प्राकृतिक आपदा का हिस्सा हैं। न्युगलसरी (किन्नौर) में हुए भूस्खलन एवं पहाड़ी चट्टानें खिसकने से 14 लोगों की जानें चली गईं और इतने ही लोग गायब हैं मलबे के नीचे, क्योंकि जिस बस में वे यात्रा कर रहे थे, चट्टान उसी बस से टकरा गई। ऐसे ही हादसे में जुलाई महीने में बस्तेरिया (किन्नौर) में चट्टाने खिसकने से एक पुल बह गया और 9 पर्यटकों की मौत हो गई। राष्ट्रीय राजमार्ग पांच पर भूस्खलन के यह हादसे चौंकाने वाले हैं। सरकार को इन सभी जगहों को चिन्हित करना होगा और बचाव के लिए 100 किलोमीटर के दायरे में सुरक्षा टुकडि़यां तैनात करनी चाहिए, क्योंकि इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर अत्यधिक यातायात रहता है। इस दुर्गम क्षेत्र में यातायात पर भी नियंत्रण की आवश्यकता है। सतलुज नदी पर बनी सभी जल विद्युत परियोजनाओं का संज्ञान लेना होगा। यह भी ज़रूरी है कि यह संस्थाएं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का किस तरह से पालन कर रही हैं। क्या वे पहाड़ों के प्रति चिंतित हैं। क्या उन्होंने वृक्षारोपण किया है, स्थानीय लोगों के जीवन उत्थान के लिए कोई योगदान दिया है। पहाड़ों के प्रति सजगता और वहां सतत विकास की जरूरत है। प्रकृति का संरक्षण करते हुए विकास कार्यों को किया जाना चाहिए। मनुष्य ने प्रकृति का बहुत विनाश किया है, इसलिए प्रकृति भी अब मानव से रुष्ट लगती है। तभी आए दिन इस तरह की घटनाएं पहाड़ों पर हो रही हैं। सतत विकास का मंत्र यही है कि विकास भी हो और साथ-साथ में प्रकृति का संरक्षण भी हो।
रमेश पठानिया
स्वतंत्र लेखक