Assembly Election Result : चुनावों में महिला मतदाताओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ा लेकिन राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व जारी है
चुनावों में महिला मतदाताओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ा लेकिन राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व जारी है
मेधा दत्ता यादव
हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International Women's Day) के मौकों पर महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment) की बड़ी-बड़ी बातें जरूर करते हैं कि महिलाएं किस तरह रोज नए-नए आयाम छू रही हैं. लेकिन हकीकत में अगर भारतीय राजनीति की बात करें तो महिलाओं का आगे बढ़ना महज एक भ्रम नजर आता है. इसे समझने के लिए चलिए भारतीय राजनीति में प्रमुख महिला नेताओं की गिनती करते हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) का नाम तुरंत दिमाग में आ जाता है. और फिर, उसके बाद… वाकई कोई नहीं है. सोनिया गांधी में अब वो ताकत नहीं बची है.
कभी अपना लोहा मनवाने वाली मायावती की स्थिति भी कमोबेश सोनिया गांधी जैसी ही है. और प्रियंका गांधी की बात करें तो अभी तो उन्होंने बस शुरुआत की है, उन्हें अभी बहुत लंबा सफर तय करना है. वर्तमान सरकार ने कश्मीर की महबूबा मुफ्ती के पंख काट दिए हैं, जिनसे उन्हें लंबी उड़ान भरने की उम्मीद थी. और निर्मला सीतारमण या स्मृति ईरानी को पुरुष-प्रधान बीजेपी में केवल महिला प्रतिनिधि का कार्ड खेलने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, उन्हें सशक्त नेता का दर्जा नहीं दिया जा सकता.
2019 के लोकसभा चुनाव में महिला मतदाताओं का मतदान 67.18 प्रतिशत था
दूसरे देशों की तुलना में आधुनिक भारत का राजनीतिक इतिहास अपेक्षाकृत नया है. 1950 में भारत ने अपना संविधान बनाकर खुद को एक संप्रभु, लोकतांत्रिक और गणतंत्र राज्य घोषित किया और महिलाओं को वोट देने का कानूनी अधिकार दिया. मतदान का अधिकार देकर देश भर की महिलाओं में राजनीतिक आकांक्षाओं के बीज बोए गए. 1966 में, इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री का पद हासिल करने वाली दुनिया की दूसरी महिला बनीं. उनसे पहले, एक और एशियाई महिला-सिरिमावो भंडारनायके 1960 में श्रीलंका की प्रधानमंत्री बनी थीं. तब से लेकर अब तक दुनिया भर में कई महिला नेता हुईं हैं. रोमानिया, इथियोपिया, बारबाडोस से लेकर न्यूजीलैंड, ग्रीस और कई अन्य देशों में महिला नेताओं ने कार्यभार संभाला. यह दुखद है कि इंदिरा गांधी (1984) के बाद, भारत में अब तक दूसरी कोई महिला प्रधानमंत्री नहीं बन सकी, जबकि पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों में कई महिला नेता सामने आईं हैं.
ऐसा क्यों है कि भारत में महिला राजनेता बड़े पदों पर नहीं पहुंच पाती? 2021 के पश्चिम बंगाल चुनावों में ममता के अजेय बनने से पहले, जयललिता और मायावती जैसी नेता राजनीति में महिलाओं को परिभाषित करती थी. अम्मा और बहनजी तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में एक शक्ति के रूप में उभरीं. उस दौरान यह अफवाह तक उड़ी कि मायावती प्रधानमंत्री बन सकती हैं. और इसके कुछ ही समय बाद, दोनों भ्रष्टाचार के आरोपों में उलझ गईं. अम्मा की मौत ने उन्हें एक शानदार भविष्य से वंचित कर दिया और वहीं बहन जी अपने पुराने दमखम को पाने के लिए संघर्ष करती रहीं.
उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी का आक्रामक अभियान मीडिया और लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने में कामयाब रहा. लेकिन क्या इससे उनकी पार्टी को फायदा होगा? चुनाव परिणामों ने यह साफ कर दिया कि उत्तर भारत में महिला नेताओं को जनता का समर्थन नहीं मिला है. यह विडंबना ही है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में महिला मतदाताओं का मतदान 67.18 प्रतिशत था, जो पुरुष मतदान से 0.17 प्रतिशत ज्यादा था, लेकि इसके बावजूद देश की राजनीति में शायद ही कोई सशक्त महिला नेता नजर आती है.
2020 के दिल्ली चुनावों में महिलाओं ने बीजेपी की तुलना में AAP को ज्यादा वोट दिए थे
लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक, पिछले साल पश्चिम बंगाल में महिला मतदाताओं के चलते तृणमूल कांग्रेस बीजेपी को हराने में कामयाब रही. 2020 के दिल्ली चुनावों में महिलाओं ने बीजेपी की तुलना में AAP को ज्यादा वोट दिए थे. दोनों ही चुनावों के नतीजे बताते हैं कि महिला मतदाता किसी नेता को जिताने में कितनी अहम भूमिका निभा सकती हैं. महिला मतदाताओं का मतदान लगातार अधिक हो रहा है, इसलिए कांग्रेस की यूपी चुनाव प्रभारी प्रियंका गांधी खास तौर से महिलाओं वोटरों को रिझाने के लिए 'गुलाबी घोषणा पत्र' लेकर आईं. पार्टी ने अपने 40 प्रतिशत टिकट महिला उम्मीदवारों के लिए भी आरक्षित किए.
2019 के अंत और 2020 की शुरुआत में, पूरे देश में लगभग 30,000 वयस्कों के बीच किए गए एक सर्वे के मुताबिक, ज्यादातर भारतीयों का कहना है कि "महिला और पुरुष समान रूप से अच्छे राजनेता बनते हैं." लेकिन एक चौथाई भारतीय वयस्कों का कहना है कि पुरुष ज्यादा अच्छे राजनेता बनते हैं. अधिकांश भारतीय अभी भी इस बात पर सहमति रखते हैं कि पत्नियों से पति श्रेष्ठ होते हैं. यह स्थिति तब है जब महिलाएं पुरुषों के समान ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं. इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का भरोसा देने वाला महिला आरक्षण विधेयक दशकों बाद भी ठंडे बस्ते में पड़ा है. इस बिल को आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नजर नहीं आती. 21वीं सदी में भी हमें महिलाओं के लिए आरक्षण विधेयक की जरूरत है, ये एक अलग बहस का विषय है.
यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी द्वारा "वीमेन लेजिस्लेटर एंड इकोनॉमिक परफॉर्मेंस" शीर्षक से प्रकाशित 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक जिन निर्वाचन क्षेत्रों में महिलाओं को चुना गया था वहां आर्थिक गतिविधियों में तेजी देखी गई. रिपोर्ट में पाया गया कि महिला विधायकों के आपराधिक और भ्रष्ट होने की संभावना बहुत कम होती है, वे अधिक कुशल होती हैं और राजनीतिक अवसरवाद से परहेज करती हैं (यहां हम मायावती या जयललिता की बात नहीं कर रहे हैं). वर्ल्ड बैंक की 2021 की इकोनॉमिक रिव्यू की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में एक राज्य विधानसभा सीट के लिए औसतन 9.1 उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं, जिनमें से केवल 0.37 (चार प्रतिशत) महिलाएं होती हैं.
महिलाओं को अपनी पैठ बनाने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना होगा
महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने और एक सशक्त महिला नेता को सामने लाने के लिए जरूरी है कि ऐसी महिलाओं को बढ़ावा दिया जाए जो स्थानीय लोगों से जुड़ी हैं उनकी परेशानियां समझती हैं, न कि ऐसी महिलाएं जिनका स्थानीय लोगों से कोई संपर्क नहीं होता और आसमान से चुनावी मैदान में उतारी जाती हैं. ममता और मायावती इस बात से इत्तेफाक रखेंगीं. दोनों ने अपनी शुरुआत जमीनी स्तर से की और आम लोगों से जुड़कर आज इस मुकाम तक पहुंची हैं. अफसोस है कि मायावती अपनी वह जगह कायम नहीं रख पाईं. स्थानीय स्तर पर महिला राजनेताओं की कामयाबी राष्ट्रीय राजनीति में नई महिला उम्मीदवारों के सामने आने वाली मुश्किलों को कम करने में मदद कर सकती है, और न्यूजीलैंड की लोकप्रिय प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न जैसी महिला नेताओं के निर्माण में सहायक हो सकती हैं. भारत में पौरुष दिखाने और सीना ठोंकने वाले नेताओं की कोई कमी नहीं है. यहां महिलाओं को अपनी पैठ बनाने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना होगा.