सच यह है कि एयर इंडिया के हर मालिक ने निजी विमान कंपनियों के हित में काम किया और सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी को डुबाने में लोक-लाज का कोई ख्याल नहीं किया। इसकी भी एक खुली जांच होनी चाहिए कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय के मंत्री और वरिष्ठतम अधिकारी इसकी मलाई कैसे खाते रहे और कैसे ऐसी नीतियां बनाते रहे कि एयर इंडिया हवा से उतर कर जमीन में धंसती रही? किसी निजी कंपनी में ऐसा हुआ होता तो अब तक कितने सिर जमींदोज हो गए होते और कितने जेल की सलाखों के पीछे होते, लेकिन यहां आलम यह रचा जा रहा है कि यह इस सरकार की कितनी बड़ी सफलता है कि उसने एक डूबी हुई, दम तोड़ चुकी कंपनी एयर इंडिया को टाटा के मत्थे मढ़ दिया है और देश को मालामाल कर दिया है! यह झूठ की पराकाष्ठा है। थोड़ी कहानी तो आंकड़े ही कह डालते हैं। वर्ष 2009-10 से अब तक सरकार ने एयर इंडिया की फटी झोली में हमारी जेब से निकाल कर 54584 करोड़ रुपए नकद और 55692 करोड़ रुपए बाजार से उठाए गए कर्जों की एवज में जमानतस्वरूप डाले हैं। सरकार बता रही है कि एयर इंडिया में प्रतिदिन का घाटा 20 करोड़ रुपयों का था, इसलिए इस बोझ को कंधे से उतारना जरूरी था। अगर यह सच है तो हम मान रहे हैं कि 'सबका साथ, सबका विश्वास' लेकर देश का विकास करने की कोशिश में लगी इस सरकार ने टाटा कंपनी को 'मामू' बनाया। अगर यह सच है तो इससे दो बातें स्वतः सिद्ध होती हैं। पहली, कि सरकार सबका विकास के दायरे में टाटा कंपनी को शरीक नहीं करती है, तभी तो उसे 'मामू' बनाया न! और दूसरी बात, कि टाटा इतनी लल्लू कंपनी है कि उसने यह 'भंगार' खरीद लिया। क्या ये दोनों बातें सरकार का काइयां चेहरा नहीं दिखातीं? आंकड़े ही इस कहानी का दूसरा पक्ष हमारे सामने रखते हैं। टाटा ने 18000 करोड़ रुपयों में एयर इंडिया खरीदा है जिसमें से देश को मात्र 2700 करोड़ रुपए नकद मिलेंगे।
बाकी 15300 करोड़ रुपए उस 60000 करोड़ रुपयों के कर्ज के चुकाए जाएंगे जो 31 अगस्त 2021 को एयर इंडिया पर था। तो देश को इस विनिवेश से मिला क्या? मात्र 2700 करोड़ रुपए! इसके एवज में टाटा को क्या मिला? घरेलू हवाई अड्डों पर 1800 अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के उतरने व ठहरने की सुविधाएं, विदेश में 900 तथा देश में 4400 सुरक्षित हवाई स्थानों की सुविधाएं, 30 लाख से अधिक निश्चित यात्री, 141 विमानों का जत्था, 13500 प्रशिक्षित व अनुभवी कर्मचारी तथा घरेलू आसमान में 132 प्रतिशत की हिस्सेदारी। मानिए कि एक बनी-बनाई, जांची-परखी हवाई कंपनी भारत सरकार ने टाटा को उपहार में दे दी है। अब इस कंपनी को चाहिए तो बस एक कुशल, ईमानदार प्रबंधन तथा व्यापार-बुद्धि जो दोनों टाटा के पास हैं। इसलिए तो सौदा पूरा होने के बाद रतन टाटा ने इतने विश्वास से कहा, 'हम एयर इंडिया की खोई प्रतिष्ठा फिर से लौटा लाएंगे!' तो क्या हम सब एयर इंडिया को और रतन टाटा को इसकी शुभकामना दें! सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हमारी गाढ़ी कमाई से बनाई गईं वे राष्ट्रीय संपत्तियां हैं जिन्होंने लंबे औपनिवेशिक शोषण से बाहर निकले देश की आत्मनिर्भरता को मजबूत बनाया है। अंतरराष्ट्रीय मंदी के लंबे दौर से हम खुद को जिस हद तक बचा सके, उसके पीछे हमारी इन आत्मनिर्भर परियोजनाओं की, लघु उद्योगों के जाल की बड़ी भूमिका रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की हमारी कंपनियां देश की उन जरूरतों को पूरा करती हैं जिनकी तरफ मात्र मुनाफा व सुरक्षा को देखने वाले निजी व्यापारी व कारपोरेट देखते भी नहीं हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के पास दो सबसे बड़ी ताकत होती है, जनता से मिलने वाली बड़ी अकूत पूंजी और सत्ता से मिलने वाली सुविधाएं व संरक्षण। किसी भी व्यापारिक उपक्रम को सफल बनाने वाले ये दोनों तत्व किसी कारपोरेट को नहीं मिलते हैं।
उसे यह सब चोर दरवाजे से हासिल करना पड़ता है। फिर यह कैसे व क्यों होता जा रहा है कि विनिवेश के नाम पर हम सार्वजनिक क्षेत्रों को खोखला बनाते जा रहे हैं? कारण दो हैं, सरकारों ने सार्वजनिक उपक्रमों को लोक कल्याण की अपनी प्रतिबद्धता की नजर से नहीं देखा, बल्कि इससे मनमाना कमाई का कारपोरेटी रास्ता बनाया है। उसने सार्वजनिक क्षेत्र के नाम पर ऐसे उपक्रमों में हाथ डाला जो किसी भी तरह लोककल्याण के उपक्रम नहीं थे। दूसरी तरफ, सरकारी होने के कारण उनके प्रति किसी की निजी प्रतिबद्धता नहीं रही। तो नजर भी गलत रही और प्रतिबद्धता भी खोखली रही। सार्वजनिक उपक्रमों की कठोर समीक्षा का सिलसिला न कभी बनाया गया, न चलाया गया, इसलिए ये उपक्रम निकम्मे मंत्रियों और चालाक नौकरशाहों की आरामगाह बन गए। अब विनिवेश के नाम पर वे ही लोग अपनी नंगी विफलता व बेईमानी को छुपाने में लगे हैं। अत्यंत केंद्रित औद्योगिक क्रांति के साथ ही एक नया चलन सामने आया है, पूंजी व सत्ता का गठजोड़! यह गठजोड़ हमेशा सार्वजनिक हित के खिलाफ काम करता रहा है। यहीं से उपनिवेशों का क्रूर शोषणकारी चलन बना। अब उसने नया रूप धरा है और विनिवेश व विकास के नाम पर पूंजी व प्राकृतिक संसाधनों को कारपोरेटों के हवाले कर रहा है। इसलिए हमें सावधानीपूर्वक यह देखना चाहिए कि सार्वजनिक पूंजी और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण न हो, इसमें से शोषण व गुलामी के सिवा दूसरा कुछ हमारे हाथ आएगा नहीं।
-(सप्रेस)
कुमार प्रशांत
स्वतंत्र लेखक
एक था 'एयर इंडिया'