अमेरिका से निराशा

ह्वाइट हाउस में जब एक डेमोके्रट राष्ट्रपति चुनकर पहुंचे

Update: 2021-08-18 06:35 GMT

ह्वाइट हाउस में जब एक डेमोके्रट राष्ट्रपति चुनकर पहुंचे, तब दुनिया ने इत्मीनान महसूस किया था कि अब कम से कम शांतिकामी लोकतंत्रों के लिए स्थितियां अनुकूल होंगी। बतौर प्रत्याशी जो बाइडन ने अपनी चुनावी बहसों में लोकतंत्र के हक में सक्रिय होने का वादा किया था, उन्होंने अमेरिकी विदेश नीति को पर्याप्त अहमियत देने की भी बात कही थी, मगर अफगानिस्तान के घटनाक्रम ने उन सभी वादों और आशाओं पर पानी फेर दिया है। वहां न सिर्फ अस्थिरता की स्थिति व्यापक हो गई है, बल्कि काबुल बीस साल पुरानी स्थिति में पहुंचता दिख रहा है। कई बडे़ देशों के लाखों करोड़ रुपये के निवेश संकट में पड़ गए हैं और 60 से अधिक देश अपने दूतावास कर्मियों की सुरक्षा को लेकर अब तालिबान के रहमो-करम पर हैं। अफगानिस्तान के इस सूरते-हाल के लिए दुनिया भर में अमेरिका और खासकर राष्ट्रपति जो बाइडन की हो रही मुखर आलोचना का ही असर है कि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन को उन तमाम देशों के अपने समकक्षों का नंबर डायल करना पड़ा, जो काबुल के घटनाक्रम से सीधे प्रभावित हुए हैं। खुद राष्ट्रपति बाइडन को अपने देशवासियों के सामने सफाई पेश करनी पड़ी है।

बाइडन ने पूर्ववर्ती ट्रंप प्रशासन और तालिबान के बीच हुए करार को अपने बचाव के तौर पर इस्तेमाल किया है, लेकिन अमेरिकी लोग ही सवाल उठा रहे हैं कि जब तालिबान ने करार के तहत हिंसा बंद करने की शर्त का उल्लंघन कर दिया था और हालिया महीनों में अपने हमले तेज कर दिए थे, तब बाइडन प्रशासन समझौते का पाबंद क्यों बना रहा? ऐसी सूरत में तो उसे तालिबान के प्रति कहीं सख्त रुख अपनाना चाहिए था।
जाहिर है, एक रणनीतिक लाभ की स्थिति को बाइडन प्रशासन ने ऐसे नुकसानदेह उदाहरण के रूप में तब्दील कर दिया है, जो अमेरिकियों को लंबे समय तक चिढ़ाएगा और दुनिया आशंकाओं से घिरी रहेगी।
बहरहाल, अब जब वहां पूरी तरह से तालिबान काबिज हो चुका है और सत्ता के हस्तांतरण की आंतरिक कवायद हो रही है, तब अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र को विशेष रूप से सक्रिय होने की जरूरत है। तालिबान ने संकेत दिया है कि वह सार्वजनिक माफी और नई सरकार में औरतों की भागीदारी पर विचार कर सकता है। ऐसे में, वहां एक वैध व्यवस्था जल्द से जल्द कायम हो, यह अफगानियों के लिए ही नहीं, इस पूरे खित्ते और दुनिया के लिए बहुत जरूरी है। मौजूदा स्थिति में ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि तालिबान के भीतर नेतृत्व की सर्वमान्यता कितनी है और दुनिया के देश उसे लेकर क्या कुछ सोचते हैं, लेकिन आतंकवाद का संकट जितना गंभीर रूप अख्तियार कर चुका है, उसमें तालिबान और उसके खैरख्वाहों की गतिविधियों को निगरानी-मुक्त नहीं किया जा सकता। विश्व बिरादरी को पहले से कहीं अधिक सतर्कता के साथ तालिबान पर नजर रखनी पडे़गी। अमेरिका की नाकामी के बाद अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के जरिये तालिबान पर दबाव बनाना होगा कि वह राजनीतिक समझौते के तहत ही आंतरिक उलझनों को सुलझाए और यदि शासन करने को लेकर वाकई गंभीर है, तो आतंकी समूहों से अपना नाता तोडे़। निस्संदेह, तालिबानी निजाम को लेकर भारत का पुराना अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। पर बदली स्थितियों में इसे अब एक तार्किक भूमिका के लिए तैयार होना पडे़गा।
क्रेडिट बाय लाइवहिंदुस्तान 
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