वैसे तो यह विषय विवाद का है, परन्तु प्रेम करने की कोई उम्र भी नहीं होती और देखा जाये तो इसके लिये उम्र की सीमा रेखा निर्धारित होनी भी चाहिए। इसके अभाव में मामला इतना होच-पोच हो गया है कि जिनकी उम्र प्रेम करने की है, वे मुंह बिचका रहे हैं तथा बिना दांत वाले चने चबा रहे हैं। खैर हमारे देश का यह दुर्भाग्य रहा है कि जिसे चाहिए, उसे कुछ नहीं तथा जिन्हें खाने-पीने का शौक नहीं, वे लोग गुलाब जामुनों को ठोकर मार रहे हैं। हालांकि प्रेम की आयु सीमा निर्धारित करते ही प्रौढ़ एवं अधेड़ लोगों को परेशानी होगी, परन्तु युवा लोगों का भाग्य चमक उठेगा। हमारे यहां के बूढ़ों को जवान फूटी आंख भी नहीं सुहाते। सारे काम खुद ही करते रहना चाहते हैं। खास तौर से मुहब्बत का रोग तो बड़ा बुरा है। किसी भी उम्र में हो जाये। दवा नहीं मिले तो, वैसे मरे और दवा मिल जाये तो मौत का आना लगभग तय है। इसके बाद भी लोग डरते नहीं और प्रेम करते हैं। मेरे पड़ौसी रूप किशोर जी इस मामले में काफी आगे हैं।
जब देखा तभी कराहते और छटपटाते हुये। उम्र पचास के आस-पास है। परन्तु न लोगों को पता चलने देते हैं और न खुद को ही। सदैव बेमेल कपड़ों में कसे, बालों में डाई कराके, प्रेमिका की प्रतीक्षा में अपलक राह निहारते रहते हैं। पिछले तीस वर्षों से वे इस काम में लगे हैं। परन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात। एक दिन मैंने उनसे जाकर पूछा-‘सुना है आप प्रेम करते हैं?’ मेरे प्रश्न पर लजा गये। आंखों में भरपूर लाज का आंचल लोढक़र बोले-‘हां, करता तो हूं। परन्तु समझ में नहीं आता कि क्या करूं?’ ‘क्या मतलब?’ ‘मतलब यही कि तीस वर्षों से दाढ़ी बनाते रहे, कपड़ों की क्रीज बनाये रखी तथा लेटेस्ट फैशन के कपड़े पहने, परन्तु किस्मत में खाक छानना लिखा था-सो छान रहे हैं।’ ‘ओह आई सी। आपके साथ धोखा हुआ है?’ ‘नहीं भाई, प्रेम में धोखा तो सफलता का द्योतक माना जाता है।
धोखा भी हो जाता तो तसल्ली कर लेता, परन्तु मुझे किसी ने धोखा भी नहीं दिया। हर बार लगता रहा कि धोखा अब हुआ, बस हुआ, परन्तु खुद को ही धोखा देते रहे।’ ‘कमाल है पहेली बुझाने में तो आपका, रूप किशोर जी आखिर रहस्य से पर्दा भी हटायेंगे या यों ही तड़पाते रहेंगे?’ मैंने कहा। वे बोले-‘असल में तय ही नहीं हो पाता कि वे हमसे प्रेम करते हैं या नहीं, इससे पहले ही पटाक्षेप हो जाता है।’ ‘इसका मतलब वन-साइडेड गेम की गिरफ्त में हैं आप!’ ‘कुछ ऐसा ही लगता है। एक पड़ौसन पिछले पन्द्रह वर्षों से बाजार से सब्जी मंगा रही है। मैं सब्जी ला रहा हूं इस आशा में कि एक दिन कोई गुल खिलेगा, परन्तु अभी तक तो मुस्कान के साथ ‘धन्यवाद’ के अलावा कुछ मिला नहीं।’ ‘आपने कभी उनकी मुस्कान का मूल्यांकन किया?’ मैंने पूछा। ‘मुझ में यही तो कमी है कि मैं मूल्यांकन करने में हर बार गलत निकला। एक दिन मैंने इस मुस्कान के एवज उनका हाथ छू दिया तो उन्होंने कहा-‘जरा ध्यान तो रखिये भाई साहब। हमें यह पता नहीं था कि आप ऐसे निकलेंगे’, बस तब से ब्लैकमेल हो रहे हैं और सब्जी का थैला लाये चले जा रहे हैं।’
‘इसके अलावा भी आपने तो अन्यत्र प्रयास किये होंगे?’ मैंने पूछा। ‘प्रयास में तो मैं कभी हार नहीं मानता। परन्तु सफलता को मुझसे चिढ़ है। आपको बताऊं जिस बस से दफ्तर जाता हूं-उसी से एक महिला भी जाया करती थी। बरसों तक उसका टिकिट भी खरीदते रहे और जब पास बैठने को कहा तो लगी आंख दिखाने। हमने कहा भी कि हम आपका पिछले सात वर्षों से टिकिट ले रहे हैं। कृपा करके इतना गुस्सा मत कीजिये, परन्तु सब बेकार था। बीच में ही बात बिगड़ गई। मैं तो उसका टिकिट खरीदने में ही खुश हो लेता था, अब उससे भी गये।’
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal