उपचुनाव के बाद : भाजपा कार्यकारिणी का संदेश

उन्हें संबोधित करने के लिए कोई नई बात निकलकर सामने नहीं आई, जिसकी अपेक्षा थी।

Update: 2021-11-10 01:53 GMT

विभिन्न राज्यों में हुए उपचुनाव के नतीजों की पृष्ठभूमि में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक ऐसे समय में संपन्न हुई, जब उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। देश की आम जनता महंगाई, बेरोजगारी से बुरी तरह से जूझ रही है, किसान लगभग साल भर से धरने पर बैठे हैं। इसलिए इस बैठक का महत्व समझा जा सकता है।

इस बैठक से अपेक्षाएं थीं कि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा लोगों की मुश्किलों को कम करने के लिए कुछ उपाय करेगी और कोई नई रणनीति लेकर सामने आएगी। लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ खास नहीं हुआ, बल्कि पुरानी बातें ही दोहराई गईं। उपचुनाव के नतीजों ने साफ दिखाया है कि महंगाई एक बड़ा मुद्दा है। आम जनता महंगाई के बारे में खुलकर बात करने लगी है, लेकिन इसकी कोई चर्चा नहीं हो रही है। महंगाई का आम लोगों के जीवन पर काफी असर पड़ रहा है। हिमाचल प्रदेश के उपचुनाव के नतीजे पर इसका काफी असर दिखा। आगे भी इसका असर चुनावों पर पड़ेगा।
आम तौर पर उपचुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की ही जीत होती है, लेकिन नतीजा अगर इसके विपरीत जाता है, तो वह चौंकाने वाली बात है। भाजपा शासित हिमाचल और कर्नाटक के उपचुनाव के नतीजे चौंकाने वाले हैं। हिमाचल के मुख्यमंत्री ने तो स्पष्ट कहा कि महंगाई की वजह से ऐसा नतीजा आया है। पर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। यानी केंद्र सरकार सार्वजनिक रूप से इसे मान भी नहीं रही और इस पर अंकुश लगाने की कोशिश भी नहीं दिख रही है। हालांकि डीजल-पेट्रोल के मूल्यों पर से उत्पाद कर में कटौती की घोषणाएं हुई हैं, पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। खुदरा विक्रेता अपनी कीमतों में कमी तो नहीं करेगा।
भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ऐसा कुछ भी नहीं निकला है, जिससे महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों का मुकाबला किया जा सके। इस बैठक में भाजपा नेताओं ने परिवारवाद पर चोट की है। लेकिन सवाल उठता है कि जब आम लोग आर्थिक कठिनाइयों के चलते त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, तो क्या यह आगामी चुनाव में मुद्दा बनेगा। वंशवादी राजनीति से तो भाजपा भी बची हुई नहीं है। ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के परिवार के लोग राजनीति में नहीं हैं, लेकिन अन्य कई भाजपा नेताओं के परिवार के लोग तो राजनीति में हैं। अगर सिद्धांत की बात करें, तो भाजपा इससे अछूती नहीं है। पार्टी ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर भरोसा जताया है। उनके अलावा उसके पास कोई विकल्प भी नहीं है।
हालांकि जनमत को अपने पक्ष में करना भाजपा को बहुत अच्छी तरह से आता है। इस मामले में विपक्ष मात खा जाता है। विपक्ष में एकजुटता नहीं है, यह भाजपा के लिए अच्छा संकेत है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में विपक्षी एकता की कमी के चलते भाजपा को लाभ होगा, लेकिन कमजोर नेतृत्व वाले छोटे राज्यों में उसे मुश्किल होगी। और उत्तर प्रदेश में विपक्ष एकजुट न हो पाए, इसके लिए भाजपा कुछ भी कर सकती है।
उत्तर प्रदेश के संदर्भ में एक और बात महत्वपूर्ण है कि पार्टी शानदार प्रदर्शन करती है तो उसका पूरा श्रेय योगी आदित्यनाथ को मिलेगा, जिनकी नजर भी दिल्ली की कुर्सी पर है। शानदार जीत के बाद योगी दिल्ली के लिए जोर-आजमाइश करेंगे और तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी उन्हें समर्थन मिलेगा। असल में भाजपा के सामने अभी योगी के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। क्या यह स्थिति केंद्रीय नेतृत्व को मंजूर होगी? यहीं पर पेच है, ऐसे में हैरत नहीं कि केंद्रीय नेतृत्व चाहे कि उत्तर प्रदेश में पार्टी की सरकार दोबारा बने, लेकिन पूरा श्रेय योगी को न मिले। ऐसा इसलिए कि अगर पार्टी उत्तर प्रदेश का चुनाव हार जाती है, तो 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी।
उपचुनाव के नतीजों से जो एक और संदेश निकलकर आया है, वह यह कि क्षेत्रीय स्तर पर जो कद्दावर नेता हैं, पार्टी हाई कमान उसकी अनदेखी नहीं कर सकती। कर्नाटक में येदियुरप्पा ने और हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अपने-अपने पार्टी हाई कमान को दिखा दिया कि उनकी उपेक्षा करके पार्टी आगे नहीं चल सकती। जहां क्षेत्रीय स्तर पर नेतृत्व मजबूत है, वहां वह जनता के असंतोष को अपने-अपने तरीके से संभाल पा रहा है, लेकिन जहां नेतृत्व कमजोर है, वहां जनता के असंतोष से निपटने में भाजपा को मुश्किल हो रही है। इसलिए भाजपा को अपने सहयोगी दलों के प्रति जो नीति है, उसकी भी समीक्षा करनी पड़ेगी।
लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इस बारे में कुछ कहा नहीं गया है। हालांकि भाजपा ने उत्तर प्रदेश में छोटी-छोटी पार्टियों से गठजोड़ तो किया है, लेकिन उन्हें कितनी तवज्जो देंगे, उस बारे में कुछ नहीं कहा गया है। लोगों को अपेक्षा थी कि किसान आंदोलन को लेकर इस बैठक में थोड़ी नरमी दिखाई जाएगी, लेकिन किसान आंदोलन के बारे में सरकार के रुख में बदलाव के कोई संकेत नहीं मिले हैं। बल्कि कहा गया है कि पहले से ही मोदी सरकार किसानों के हित में काम कर रही है। लेकिन यह तय है कि किसान आंदोलन का असर पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक उत्तराखंड में भी दिखाई देगा। उप-चुनाव में भी इसका असर हुआ है।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में विपक्ष को वंशवादी, अवसरवादी, नफरत फैलाने वाले, नकारात्मकता फैलाने वाले और सोशल मीडिया तक ही सीमित रहने वाले बताया है, लेकिन जनता से जुड़े मुद्दों को किस तरह संबोधित करेंगे, इस बारे में कोई नई बात नहीं कही गई है। विपक्ष का तो काम ही है, सरकार की गलतियों पर उंगली उठाना, अगर विपक्ष वह भी नहीं करेगा, तो लोकतंत्र में उसके होने के मायने क्या हैं? जनता यही तो विपक्ष से अपेक्षा करती है। यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश में विपक्षी पार्टियां लगभग सोई पड़ी हैं।
प्रियंका वाड्रा कुछ कर भी रही हैं, तो उनके पास जमीनी कार्यकर्ता नहीं हैं। अखिलेश के पास कार्यकर्ता हैं भी, तो वह इक्का-दुक्का मामलों में ही थोड़ी-बहुत सक्रियता दिखाते हैं। लेकिन सिर्फ विपक्ष को कोसने से तो जनता की परेशानियां दूर नहीं होंगी। उसके लिए सरकार को ठोस रणनीति के साथ सामने आना पड़ेगा। कुल मिलाकर, भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने की ही कोशिश दिखी, लेकिन जिन समस्याओं से देश की जनता जूझ रही है, उन्हें संबोधित करने के लिए कोई नई बात निकलकर सामने नहीं आई, जिसकी अपेक्षा थी।
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