पुलिस का मानवीय चेहरा !
भारत के लोकतन्त्र की यह विशेषता रही है कि जब भी इसका कोई स्तम्भ थरथराने लगता है तो दूसरा आकर उसे थाम लेता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत के लोकतन्त्र की यह विशेषता रही है कि जब भी इसका कोई स्तम्भ थरथराने लगता है तो दूसरा आकर उसे थाम लेता है। बेशक यह चौखम्भा राज विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और चुनाव आयोग से मिल कर ही बनता है परन्तु इन स्तम्भों के भी ऐसे कई अंग व उप अंग हैं जो संकट काल में अपनी निर्णायक भूमिका अदा करने से पीछे नहीं हटते हैं। कोरोना संक्रमण को लेकर जिस तरह देश में हाहाकार मचा हुआ है और सामान्य नागरिक अपने परिजनों की जान की सुरक्षा के लिए आक्सीजन के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटक रहे हैं उसे देखते हुए देश की आंतरिक कानून-व्यवस्था को सुचारू बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस प्रशासन पर ही आ जाती है। इस संकट की घड़ी में पुलिस की भूमिका केवल 'कोरोना वारियर' की ही नहीं बल्कि आम जनता में बेचैनी को रोकने की भी बन जाती है। एक तरफ जब विभिन्न राज्य सरकारें आक्सीजन की सप्लाई पर लगभग झगड़ रही हैं वहां ऐसे राज्यों की पुलिस की विशेष जिम्मेदारी बन जाती है कि वह लोगों के आक्रोश को अराजकता में न बदलने दे। इसके साथ ही राज्य सरकारें स्वयं ही संक्रमण की रोकथाम के लिए नागरिकों पर जो प्रतिबन्ध लगा रही हैं उन्हें भी लागू होते देखने का दायित्व पुलिस पर ही आ जाता है। जाहिर है कि भारत में अभी तक पुलिस की प्रतिष्ठा ऐसे बल के रूप में रही है जो नागरिकों के प्रति सौजन्यता कम और आक्रामकता ज्यादा रखती है परन्तु लोकतन्त्र की यह भी विशेषता होती है कि इसमें परिवर्तन समय के अनुसार होता रहता है। आज का समाज सत्तर के दशक का समाज बिल्कुल नहीं है और न ही वे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां हैं जो उस काल में थीं।