संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश में राष्ट्रपति का निर्वाचन वयस्क मताधिकार से होता है और मेरा विचार है कि यदि राष्ट्रपति का चुनाव हर पांचवें या चौथे वर्ष वयस्क मताधिकार से हो, तो उससे आम जनता को जागृत करने का अवसर मिल सकेगा, उसके सामने महत्वपूर्ण आर्थिक समस्याएं रखी जाएंगी। यदि राष्ट्रपति का निर्वाचन अखिल भारतीय आधार पर होगा, तो उससे आम जनता में जागृति पैदा की जा सकेगी।
वर्तमान वाक्य खण्ड 1 के उप-वाक्य खण्ड (2) के अंतर्गत तो राष्ट्रपति केवल बहुसंख्यक दल की कठपुतली बन जाएगा और संपूर्ण यूनियन के लिए राष्ट्रपति का निर्वाचन वे लोग करेंगे, जिन्होंने चुनाव आंशिक रूप से प्रांतीय आधार पर और आंशिक रूप से अखिल भारतीय आधार पर लड़े हैं।
कल जब हम राष्ट्रपति को दिए गए अधिकारों पर बहस कर रहे थे, तो यह विचार प्रकट किया गया था कि उसे व्यापक अधिकार प्रदान किए गए हैं। उसे किसी प्रांत के संपूर्ण विधान अथवा उसके किसी भाग को स्थगित कर देने का अधिकार होगा। जिस राष्ट्रपति को बहुसंख्यक दल का भय होगा और जो उप-वाक्य खण्ड 2 के अंतर्गत निर्वाचकों द्वारा चुना जाएगा, मेरे विचार में वह संपूर्ण राष्ट्र का अखिल भारतीय आर्थिक आधार पर अथवा अखिल भारतीय मामलों में प्रतिनिधित्व नहीं कर सकेगा। इस संबंध में एक और महत्वपूर्ण कठिनाई है। रियासतों की सुविधा की दृष्टि से हमने यह स्वीकार कर लिया है कि रियासती धारासभाओं के सदस्य यूनियन की निचली सभा के सदस्य होंगे।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि रियासतों में लोकप्रिय शासन नहीं है, और रियासतों की धारासभाओं (बाद में विधानसभाओं) में संभवत: ऐसे व्यक्ति होंगे, जो उनके शासकों द्वारा नामजद किए गए होंगे अथवा जो जनता के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं होंगे, ऐसे प्रतिनिधियों द्वारा जिनकी संख्या मतदाताओं की संख्या के लगभग एक तिहाई जितनी होगी, ... सभापति (राष्ट्रपति) के निर्वाचन का अर्थ होगा कि वह रियासती जनता का प्रतिनिधि न बनकर रियासती शासकों द्वारा नामजद किए गए व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करेगा। इन परिस्थितियों में राष्ट्रपति को रियासतों की जनता का सच्चा प्रतिनिधि कदापि नहीं कहा जा सकता।
इन परिस्थितियों में, मैं इस परिषद से जोरदार अपील करता हूं कि यदि आप लोकतंत्रीय शासन चाहते हैं, यदि आप यह चाहते हैं कि राष्ट्रपति ऐसे लोगों का सच्चा प्रतिनिधि हो, जो उसे खण्ड 1 के उप-खण्ड 2 में उल्लिखित निर्वाचक मण्डल द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनेंगे, तो जहां तक विशेष रूप से रियासतों का संबंध है, वह उनकी जनता का प्रतिनिधि नहीं हो सकता। इसलिए मैं इस संशोधन का विरोध करता हूं।
(तत्कालीन मध्य प्रांत और बरार से आए नेता सैय्यद काजी करीमुद्दीन ने भारतीय संविधान सभा में यह उद्बोधन 24 जुलाई,1947 को दिया था, तब सभापति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद थे।)
writer-सैय्यद काजी करीमुद्दीन, स्वतंत्रता सेनानी
source-livehindustan