दुनिया के वो देश, जहां साल में दो बार बदलते हैं घड़ी का समय...

दुनियाभर में ऐसे कई देश हैं, जो साल में दो बार घड़ी के समय को सेट करते हैं। यानी इन देशों में घड़ी का समय करीब एक घंटा आगे-पीछे हो जाता है।

Update: 2020-11-13 13:29 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| दुनियाभर में ऐसे कई देश हैं, जो साल में दो बार घड़ी के समय को सेट करते हैं। यानी इन देशों में घड़ी का समय करीब एक घंटा आगे-पीछे हो जाता है। इस सिस्टम को डेलाइट सेविंग टाइम के तौर पर समझा जाता है। वैसे इस सिस्टम को समझना कोई पहेली नहीं है। अमेरिका समेत दुनिया के कई अन्य देशों में साल के 8 महीनों के लिए घड़ी एक घंटे आगे चलती है और बाकी 4 महीने वापस एक घंटे पीछे कर दी जाती है। मार्च के दूसरे रविवार को अमेरिका में घड़ियों को एक घंटा आगे कर दिया जाता है और नवंबर के पहले रविवार को वापस एक घंटा पीछे। आइए जानते हैं कि ऐसा क्यों किया जाता है?

पुराने समय में ये मानाा जाता था कि इस प्रक्रिया से दिन की रोशनी का अधिक से अधिक इस्तेमाल के कारण किसानों को अतिरिक्त कार्य समय मिल जाता था। लेकिन, समय के साथ यह धारणा बदली है। अब इस सिस्टम को बिजली की खपत कम करने के मकसद से अपनाया जाता है। यानी गर्मी के मौसम में घड़ी को एक घंटा पीछे करने से दिन की रोशनी का अधिक इस्तेमाल के लिए मानसिक तौर पर एक घंटा अधिक मिलने का कॉंस्पेट है।

इन देशों में है ये सिस्टम

दुनिया के करीब 70 देश इस सिस्टम को अपनाते हैं। हालांकि,  भारत और अधिकांश मुस्लिम देशों में यह प्रैक्टिस नहीं अपनाई जाती है। अमेरिका के राज्य इस सिस्टम को मानने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य नहीं हैं। वो इस सिस्टम को अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं। यूरोपीय यूनियन में शामिल देश इस सिस्टम को अपनाते हैं।

डेलाइट सेविंग टाइम होने वाला फायदा

इस सिस्टम को अपनाने के पीछे वजह ये थी कि एनर्जी की खपत कुछ कम हो, लेकिन अलग-अलग अध्ययनों में अलग-अलग आंकड़े दे चुकी हैं। इसलिए इस सिस्टम को लेकर हमेशा बहस चलती रहती है। उदाहरण के लिए साल 2008 में अमेरिकी एनर्जी विभाग ने कहा कि इस सिस्टम के लिए करीब 0.5 फीसदी बिजली की बचत हुई, लेकिन आर्थिक रिसर्च के नेशनल ब्यूरो ने उसी साल एक स्टडी में कहा कि इस सिस्टम के कारण बिजली की डिमांड बढ़ी।

अमेरिका में इस सिस्टम की शुरुआत साल 2007 में हुई थी। लेकिन डेलाइट सेविंग का सिस्टम काफी पुराना है। ऐसा माना जाता है कि बेंजामिन फ्रेंकलिन ने 1784 में इसका पहली बार उल्लेख अपने एक पत्र में किया था। वहीं ब्रिटेन और जर्मनी जैसे कई देशों में पहले विश्व युद्ध के समय इस सिस्टम को अपनाया गया।


 


 


 


 

 

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