कैलिफोर्निया: हीरे अपने आप में बेहद खास होते हैं और अब वैज्ञानिकों ने ऐसे हीरों की खोज की है जो तापमान बेहद कम होने पर अपना रंग बदल लेते हैं। ठंडे तापमान में ये ग्रे से पीले रंग के हो जाते हैं। 'गिरगिट' जैसे हीरों की खोज पहली की जा चुकी है जो अंधेरे में या गर्मी में रंग बदलते थे लेकिन ठंडक में रंग बदलने वाले हीरे पहली बार देखे गए हैं।
ठंडक में बदला रंग
यह खोज कैलिफोर्निया के जेमॉलजिकल इंस्टिट्यूट ऑफ अमेरिका की स्टेफनी परसॉद ने की है। अभी तक यह साफ नहीं है कि इन हीरों की कीमत कितनी होगी लेकिन दुर्लभ होने के कारण ये काफी कीमती हैं। ये हीरे -196 डिग्री सेल्सियस जितने तापमान में रंग बदलते हैं। हीरों को लैब में इतना ठंडा इनका वाइब्रेशन कम करने के लिए किया जाता है। इनसे निकलने वाली रोशनी को सटीकता से नापने में कम तापमान मदद करता है।
Chameleon diamond या गिरगिट जैसे हीरे सबसे पहले 1866 में जॉर्जेस हाल्फेन ने खोजे थे। अभी तक यह नहीं समझा जा सका है कि ये रंग क्यों बदलते हैं। कई हीरे 200 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा के तापमान पर या 24 घंटे से ज्यादा अंधेरे में रखे जाने पर रंग बदलते पाए गए हैं।
ऐस्ट्रॉनमी मैगजीन की एक रिपोर्ट में जिक्र है 1859 की एक रात का जब मशहूर केमिस्ट रॉबर्ट बेनसन और गुस्टाव किर्शॉफ ने जर्मनी में मैनहीम शहर में एक आग बढ़कती हुई देखी। ये आग उनकी हीडलबर्ग यूनिवर्सिटी स्थित लैब से 10 मील यानी कम से कम 10 मील दूर थी। इस घटना में उन्हें आइडिया आया अपने नए स्पेक्ट्रोस्कोप के इस्तेमाल का। इस डिवाइस की मदद से रोशनी को अलग-अलग वेवलेंथ में बांटकर केमिकल एलिमेंट्स को पहचाना जा सकता है। उन्होंने खिड़की पर ही स्पेक्ट्रोस्कोप को लगाया और आग की लपटों में ढूंढ निकाला बेरियम और स्ट्रॉन्शियम को। आज दुनियाभर की लैब्स में इस्तेमाल किए जाने वाले बेनसन बर्नर को डिजाइन करने वाले रॉबर्ट ने सुझाव दिया कि इसी स्पेक्ट्रोस्कोपी का इस्तेमाल सूरज और चमकीले सितारों के वायुमंडल पर भी किया जा सकता है।
करीब 10 साल बाद 18 अगस्त, 1868 को पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान कई ऐस्ट्रोनॉमर्स ने स्पेक्ट्रोस्कोपी की मदद से सूरज पर हीलियम की खोज की। इसके बाद एक-एक करके सूरज के वायुमंडल में कार्बन, नाइट्रोजन, लोहे और दूसरे हेवी मेटल्स की खोज की। इन्हीं में से एक था सोना। 18वीं शताब्दी के आखिर और 19वीं शताब्दी की शुरुआत में धरती की उत्पत्ति और इतिहास को लेकर समझ के बढ़ने के साथ ही यह सवाल भी सामने आने लगा कि आखिर अरबों साल से सूरज और दूसरे सितारे कैसे चमक रहे हैं?
लंबे वक्त तक चलीं रिसर्च में वैज्ञानिकों ने पाया कि सूरज पर 2.5 ट्रिल्यन टन सोना है। इतने सोने से धरती के सभी महासागर भर सकते हैं और फिर भी यह ज्यादा होगा। एक और दिलचस्प खोज आगे चलकर की गई, जिसमें पाया गया कि धरती पर आज मौजूद सोना सूरज जैसे सितारों के न्यूट्रॉन स्टार बनने और फिर आपस में टकराने से पहुंचा है।
दरअसल, जब कोई सितारा अपने जीवन के आखिरी चरण में होता है तो उसकी कोर ढह जाती है और फिर सुपरनोवा विस्फोट होता है। सितारे की बाहरी परतें स्पेस में फैलती हैं और इस दौरान न्यूट्रॉन कैप्चर रिऐक्शन होते हैं। इनसे पैदा होते हैं लोहे से भारी ज्यादातर एलिमेंट्स। जब ऐसे ही दो न्यूट्रॉन स्टार आपस में टकराते हैं तो न्यूट्रॉन कैप्चर रिऐक्शन के कारण स्ट्रॉन्शियम, थोरियम, यूरेनियम के साथ-साथ सोना भी बनता है। हमारा ब्रह्मांड बनने के बाद से ऐसी कई टक्करें हुई हैं और इनसे स्पेस में सोना फैल गया जो हमारी धरती पर आ पहुंचा। यानी सोना सिर्फ इसलिए खास नहीं है क्योंकि यह धरती पर दुर्लभ है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि यह सीधे सितारों से जमीन पर उतरता है।
कैसे बदलते हैं रंग?
अलग-अलग हालात में रंग बदलने के कारण माना जाता है कि इसके पीछे के कारण और प्रक्रिया भी अलग होती है। ये इतने दुर्लभ होते हैं कि इन्हें स्टडी करना भी मुश्किल होता है। इसलिए नई खोज और भी अहम हो जाती है। GIA के पॉल जॉनसन का मानना है कि ठंडा करने पर हीरे का रंग इसलिए बदलता है क्योंकि इलेक्ट्रिक चार्ज हीरे में मौजूद मिलावटी कणों के करीब आता है या दूर जाता है। ऐसे में इसका रंग बदलता है।
कुछ वक्त पहले ही रूस में एक हीरा दूसरे हीरे के अंदर मिला था। माना गया है कि यह 80 करोड़ साल पुराना हीरा था। रूस की लकड़ी से बनीं गुड़ियों से मेल खाने के चलते इसे Matryoshka हीरा कहा गया है। एक्सपर्ट्स अभी समझ नहीं पाए हैं कि ये हीरा कैसे बना लेकिन माना गया कि यह ऐसी पहली खोज है।