मरने के बाद भी यूपी चुनाव में खड़ा हुआ ये शख्स! रिश्तेदारों ने डेथ सर्टिफिकेट बनवाकर बेच दी जमीन

मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर उनकी साढ़े 12 एकड़ की जमीन अपने नाम कराने के बाद किसी और को बेच दी.

Update: 2022-02-03 10:23 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। बॉलीवुड एक्टर पंकज त्रिपाठी (Pankaj Tripathi) की फिल्म 'कागज' (Kagaj) से मिलती-जुलती कहानी असल जिंदगी में भी है. वाराणसी का एक शख्स पिछले 18 साल से अपने जिंदा होने का सबूत दे रहा है, लेकिन राजस्व विभाग अभी भी इस शख्स को स्वर्गवासी ही बता रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बनारस में छितौनी के रहने वाले संतोष मूरत सिंह राजस्व अभिलेखों के मुताबिक उनकी मौत 2003 में मुंबई में ट्रेन बम धमाकों में हो चुकी है. संतोष का कहना है कि उनके नाते-रिश्तेदारों ने फर्जी तरीके से मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर उनकी साढ़े 12 एकड़ की जमीन अपने नाम कराने के बाद किसी और को बेच दी.

रिश्तेदारों ने डेथ सर्टिफिकेट बनवाकर बेच दी जमीन
तमाम कोशिशों के बावजूद जब संतोष तंग आ गए तो उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया. खुद को जिंदा साबित करने के लिए वह 17 साल से किसी न किसी तरीके से चुनाव लड़ने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें इसमें भी कामयाबी नहीं मिली. संतोष मूरत सिंह ने बताया कि 2012 में राष्ट्रपति चुनाव, 2014 और 2019 में वाराणसी सीट से लोकसभा चुनाव में नामांकन किया. इन चुनावों में उनका नामांकन खारिज कर दिया गया, लेकिन अभी भी वह जिंदा घोषित नहीं हो सके. साल 2017 में उन्होंने शिवपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन वह हार गए.
एक बार फिर खुद को जिंदा साबित करने के लिए राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की जन्मभूमि कानपुर से फिर चुनाव लड़ने के लिए महाराजपुर सीट से जनसंघ पार्टी से नॉमिनेशन दाखिल किया, लेकिन पर्चा खारिज हो गया.
मुंबई में जाकर शुरू किया था काम, लेकिन
बॉलीवुड एक्टर नाना पाटेकर फिल्म शूटिंग के लिए साल 2000 में छितौनी आए थे, उसके बाद संतोष उन्हीं के साथ मुंबई चले गए और उनके रसोइए बन गए. जब 2003 में मुंबई में ट्रेन बम ब्लास्ट हुआ तो उनके साझीदारों ने उनके खिलाफ षणयंत्र रचा और उन्हें मुंबई बम ब्लास्ट में मौत बतलाकर उनकी जमीन को बेच दिया. साल 2004 में जब वह वापस आए तो भागादौड़ी शुरू कर दी, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं हुआ.
यूपी चुनाव में दाखिल किया नामांकन
अब उनका मानना है कि शायद राष्ट्रपति की जन्मभूमि से चुनाव लड़ लूं तो जिंदा मान लिया जाऊं. हालांकि, इस बार भी उनका नामांकन खारिज कर दिया गया. साल 2012 से 2017 तक दिल्ली के जंतर-मंतर में धरना भी दिया, लेकिन फिर भी जीवित नहीं हो सके. इस दौरान वह 14 दिन जेल में भी रहे.


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