सुप्रीम कोर्ट का आदेश, फांसी की सजा से पहले सुधार की संभावनाओं पर विचार के लिए अदालतें बाध्य

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में हत्या के जुर्म में फांसी की सजा पाए दो दोषियों की सजा को 30 साल के कारावास में बदलते हुए.

Update: 2021-11-28 19:02 GMT

नई दिल्ली,  सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में हत्या के जुर्म में फांसी की सजा पाए दो दोषियों की सजा को 30 साल के कारावास में बदलते हुए कहा कि अदालत दोषियों में सुधार की संभावनाओं पर विचार करने को बाध्य है। भले ही दोषी खामोश रहे। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने संपत्ति विवाद में भाई के परिवार के आठ लोगों की हत्या करने के दो दोषियों-मोफिल खान और मुबारक खान की फांसी की सजा खत्म कर दी।

यह फैसला न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, बीआर गवई और बीवी नागरत्ना की पीठ ने अभियुक्तों की ओर से फांसी की सजा के खिलाफ दाखिल पुनर्विचार याचिका पर शुक्रवार को सुनाया। निचली अदालत, हाई कोर्ट और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने दोनों दोषियों के अपराध को जघन्यतम मानते हुए फांसी की सजा सुनाई थी। लेकिन दोषियों ने सजा के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी, जो 2015 से सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी। सुप्रीम कोर्ट के नियम के मुताबिक फांसी की सजा के खिलाफ दाखिल पुनर्विचार याचिका पर तीन न्यायाधीशों की पीठ खुली अदालत में सुनवाई करती है।
कोर्ट ने कहा कि यह कानून का तय सिद्धांत है कि किसी अभियुक्त को मृत्युदंड देते समय उसमें सुधार की संभावनाओं को देखा जाएगा और सुधार की संभावनाओं को सजा कम करने के लिए महत्वपूर्ण तथ्य की तरह लिया जाएगा। अदालत का कर्तव्य है कि वह सभी तथ्यों पर जरूरी जानकारी निकाले और अभियुक्त में सुधार की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए उन पर विचार करे।
पीठ ने कहा कि इस मामले में निचली अदालत, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि दोषियों को सजा अपराध की जघन्यता को देखते हुए दी गई है। अभियुक्तों में सुधार की संभावनाओं पर विचार नहीं हुआ है। न ही राज्य सरकार ने ऐसा कोई सुबूत पेश किया है, जिससे साबित होता हो कि अभियुक्तों में सुधार की कोई संभावना नहीं है। कोर्ट ने कहा कि उसने अभियुक्तों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर विचार किया है। उनके खिलाफ कोई पूर्व अपराध के आरोप नहीं हैं।
पूर्व के फैसलों का भी दिया हवाला
पीठ ने फांसी की सजा देते वक्त अभियुक्त में सुधार की संभावनाओं पर विचार किए जाने की अनिवार्यता पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसलों का हवाला भी दिया है। अदालत ने मुहम्मद मन्नान बनाम बिहार राज्य के फैसले में दी गई व्यवस्था को उद्धृत किया है, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि फांसी की सजा देने से पहले कोर्ट को स्वयं संतुष्ट होना चाहिए कि मृत्युदंड देना जरूरी है, नहीं तो अभियुक्त समाज के लिए खतरा होगा। उसमें सुधार की कोई संभावना नहीं है। अन्य फैसलों का भी उदाहरण दिया, जिसमें कहा गया था कि राज्य का कर्तव्य है कि वह साक्ष्य के जरिये साबित करे कि अभियुक्त में सुधार और पुनर्वास की संभावना नहीं है।
यह है मामला
यह मामला छह जून, 2007 का झारखंड के लोहरदगा जिले का है। इसमें दोनों अभियुक्तों ने संपत्ति विवाद के चलते अपने भाइयों के बच्चों सहित पूरे परिवार के आठ सदस्यों की हत्या कर दी थी। निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने दोनों को फांसी की सजा सुनाई थी। इस मामले में कुल 11 अभियुक्त थे, जिनमें निचली अदालत ने सात को बरी कर दिया था और चार को सजा दी थी। हाई कोर्ट ने चार में से दो अभियुक्तों सद्दाम खान और वकील खान की फांसी उम्रकैद में तब्दील कर दी थी। लेकिन मोफिल खान और मुबारक खान की फांसी बरकरार रखी थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी दोनों की फांसी पर मुहर लगाई थी। लेकिन पुनर्विचार याचिका पर फैसला सुनाते हुए शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने दोनों की फांसी 30 साल की कैद में तब्दील कर दी।


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