नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से मुलाकात की। डॉ. वेदप्रताप वैदिक 1957 में सिर्फ 13 वर्ष की आयु में उन्होंने हिन्दी के लिये सत्याग्रह किया और पहली बार जेल गये। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अपना शोध ग्रन्थ हिन्दी में लिखा जिसके कारण 'स्कूल ऑफ इण्टरनेशनल स्टडीज़' (जे०एन०यू०) ने उनकी छात्रवृत्ति रोक दी और स्कूल से उन्हें निकाल दिया। इस ज्वलन्त मुद्दे को लेकर 1966-67 में भारतीय संसद में जबर्दस्त हंगामा हुआ। डॉ॰ राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, आचार्य कृपलानी, हीरेन मुखर्जी, प्रकाशवीर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्रशेखर, भागवत झा आजाद, हेम बरुआ आदि ने वैदिक का समर्थन किया। अन्ततोगत्वा श्रीमती इन्दिरा गान्धी की पहल पर 'स्कूल' के संविधान में संशोधन हुआ और वैदिक को वापस लिया गया। इसके बाद वे हिन्दी-संघर्ष के राष्ट्रीय प्रतीक बन गये।
श्री वैदिक अनेक भारतीय व विदेशी शोध-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में 'विजिटिंग प्रोफेसर' रहे हैं। उन्होंने भारतीय विदेश नीति के चिन्तन और संचालन में उल्लेखनीय भूमिकायें निभायी हैं। अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने लगभग 80 देशों की यात्रायें की हैं। अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युग आरम्भ करने वालों में डॉ• वैदिक का नाम अग्रणी है। 1958 में बतौर प्रूफ रीडर वे पत्रकारिता में आये, 12 वर्ष तक नवभारत टाइम्स में पहले सह सम्पादक फिर सम्पादक के पद पर रहे। आजकल वे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया की हिन्दी समाचार समिति भाषा के सम्पादक हैं।
उन्हें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उस समय काफी लम्बी लड़ाई लडनी पड़ी जब उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध पर अपना शोध प्रबन्ध हिन्दी में प्रस्तुत किया जिसे विश्वविद्यालय प्रशासन ने अस्वीकार कर दिया और उनसे कहा कि आप अपना शोध प्रबन्ध अंग्रेजी में ही लिखकर दें। श्री वैदिक भी जिद्द पर अड़ गये और उन्होंने संघर्ष शुरू कर दिया। बात बहुत आगे संसद तक जा पहुँची अनेक राजनेता उनके समर्थन में आगे आये और परिणाम यह हुआ कि आखिर में प्रशासन को झुकना ही पड़ा।
डॉ॰ वैदिक ने पिछले 50 वर्षों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये अनेकों आन्दोलन चलाये और अपने चिन्तन व लेखन से यह सिद्घ किया कि स्वभाषा में किया गया काम अंग्रेजी के मुकाबले कहीं बेहतर हो सकता है। उन्होंने एक लघु पुस्तिका विदेशों में अंग्रेजी भी लिखी जिसमें तर्कपूर्ण ढँग से यह बताया कि कोई भी स्वाभिमानी और विकसित राष्ट्र अंग्रेजी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा में सारा काम करता है। उनका विचार है कि भारत में अनेकानेक स्थानों पर अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण ही आरक्षण अपरिहार्य हो गया है जबकि इस देश में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।