नई दिल्ली : मोदी सरकार ने 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' और उज्ज्वला योजना जैसी स्कीमों की मदद से महिलाओं की आर्थिक-समाजिक स्थिति को बदलने के दावे किए हैं. लेकिन जमीन पर तस्वीर कुछ और ही नजर आती है.भारत बदल रहा है और यह भारत की महिलाओं के लिए भी बदल रहा है. वाराणसी के देईपुर गांव की नेहा पीरियड्स के दौरान सफाई और सुरक्षा के बारे में महिलाओं को जानकारी देती हैं. वह ग्रामीण इलाकों में जाकर पीरियड्स के मुद्दे पर खुलकर बात करती हैं. वह मुहिम नाम के एनजीओ की कार्यकर्ता हैं, जो महिला सशक्तिकरण के लिए काम करता है. नेहा की कोशिशें रूढ़ियां तोड़ने में भारत की ग्रामीण महिलाओं की मदद कर रही हैं. साथ ही, उनकी अपनी जिंदगी भी बदल रही है. नेहा की पढ़ाई छूट गई थी, जो अब फिर शुरू हो गई है. वह पूरी तरह अपने करियर पर फोकस कर रही हैं. नेहा ने डीडब्ल्यू को बताया, "जब मैं काम नहीं करती थी, तब घरवालों की राय थी कि अब मैं बड़ी हो गई हूं. मेरी भी शादी होनी चाहिए, पर जब मैं मुहिम संस्था में काम से जुड़ी और पैसे वगैरह घर पर देने लगी, तो फिर घरवाले अब शादी की बात ही नहीं करते हैं और शादी में अभी मेरी भी रुचि नहीं है."
भेदभाव मौजूद, बदला तरीका नेहा ये रूढ़ियां अकेले नहीं तोड़ रही हैं. वाराणसी शहर में रहने वाली शिवांगी भारद्वाज भी वाराणसी के स्कूल और कॉलेजों में जाकर स्टूडेंट्स को सेक्शुएलिटी, कन्सेंट और सेफ सेक्स की ट्रेनिंग देती हैं. वह एशियन ब्रिज इंडिया नाम के एनजीओ से जुड़ी हुई हैं. शिवांगी के लिए जेंडर से जुड़ी शुरुआती शिक्षा आंखें खोलने वाली रही. वह कहती हैं, "जब मैंने जेंडर के बारे में जाना, तो मुझे आसपास वे चीजें दिखने लगीं, जो मुझे कभी दिखाई नहीं देती थीं. जो भेदभाव मुझे समझ में नहीं आते थे कि ये क्यों किए जाते हैं, मुझे उनकी वजह पता चल गई. मुझे समझ में आने लगा कि लोग हमेशा डांटकर भेदभाव नहीं करते. कभी-कभी प्यार से बोलकर भी लोग अलग कर देते हैं. पहले लोग डांट देते हैं कि तुम्हें बाहर नहीं जाना है. फिर उसी बात को लोग बदलकर प्यार से कहते हैं कि 'बेटा हम तो तुम्हारी सुरक्षा के लिए बोल रहे हैं कि तुम्हें बाहर नहीं जाना है.' तो तुम्हें नहीं जाना है, बात सिर्फ यह है. बस तरीका बदल जाता है."
लैंगिक पहचान को सीमित करता भाषा का लिंग महिलाएं बढ़ीं, लेकिन अपराध भी भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव आज भी मौजूद है. हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि कुछ मामलों में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है. भारत की जनसंख्या में महिलाओं का औसत बढ़ा है. साल 2023 में प्रति एक हजार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की आबादी 933 थी, जबकि 2015 में यह आंकड़ा मात्र 918 था. राष्ट्रीय और राज्य के अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक नेहा और शिवांगी के गृहराज्य उत्तर प्रदेश में महिलाओं के प्रति अपराधों में भी 2014 के मुकाबले 5 फीसदी की कमी आई है. लेकिन पितृसत्ता से जुड़ी चुनौतियां आज भी समाज में मौजूद हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक महिलाओं के प्रति अपराध और बढ़े हैं. साल 2014 में महिलाओं की प्रति एक लाख की आबादी पर अपराधों की संख्या 56 थी, जो 2022 में बढ़कर 66 हो चुकी है.
भारत में महिलाएं क्या सांसद बनने पर भी सुरक्षित नहीं सिर्फ नौकरी कर लेने से नहीं मिलती आजादी पिछले 10 वर्षों में भारत में महिला साक्षरता दर में इजाफा हुआ है. साल 2022 में संसद में दिए एक सवाल के जबाव में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने बताया था कि माध्यमिक स्तर तक शिक्षा पाने वाली लड़कियों की संख्या भी 2020 में करीब 78 फीसदी हो गई थी, जो 2015 में 75 फीसदी थी. उच्च शिक्षा में भी महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में सुधार हुआ है. हालांकि, यहां अब भी महिलाओं के साथ सामाजिक भेदभाव जारी है.
वाराणसी में हमने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की कुछ छात्राओं से बात की. पिछले साल नवंबर में यूनिवर्सिटी तब चर्चा में आ गई थी, जब आईआईटी बीएचयू की एक छात्रा के साथ गैंगरेप की घटना सामने आई थी. रेप के मामले में बीजेपी आईटी सेल के तीन सदस्यों को आरोपी बनाया गया है. यूनिवर्सिटी की छात्राएं मानती हैं कि उनके खिलाफ अपराध के लिए खुद उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है.बीएचयू की छात्रा गायत्री परमार ने हमसे कहा, "घर जाने के लिए हम लोगों को, मास्टर्स के स्टूडेंट हैं, पीएचडी के स्टूडेंट हैं, घर पर पापा-मम्मी से बात करवानी होती है." वहीं बदलाव की बात पूछने पर मास्टर्स की छात्रा सोनाली का कहना था, "अगर आप कमा भी रहे हैं बाहर, तो यह अपेक्षा रहती है कि आप घर का काम करेंगी, फिर बाहर का काम करेंगी और फिर जब बाहर की कमाई आएगी, तो उससे जुड़े फैसले आपके पति लेंगे, क्योंकि वह आपको आर्थिक फैसले लेने के लिए ठीक नहीं पाते हैं."
नौकरियों में भी महिलाओं के लिए ज्यादा संकट
भारत में आर्थिक मामले में भी महिलाओं और पुरुषों में काफी भेदभाव दिखता है. आमतौर पर भारतीय पुरुष समान पद पर काम कर रही महिला से 23 गुना ज्यादा सैलरी पाते हैं. हालांकि, 2019 में यह आंकड़ा 33 फीसदी था और पिछले वर्षों में इसमें सुधार दिखा है. वैसे फिलहाल बेहद खराब स्थिति वाले भारत के रोजगार बाजार में महिलाओं की स्थिति बद से बदतर हो रही है.
सेंटर फॉर विमेंस डेवलपमेंट स्टडीज की माला खुल्लर कहती हैं, "बात तो यह है कि सरकार रोजगार लाने और आर्थिक तरक्की की बहुत बातें कर रही है, लेकिन नौकरियां कहां हैं? हाल ही में एक रिपोर्ट आई कि जो ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, उनके लिए नौकरियां खोजना ज्यादा मुश्किल हो रहा है. कई सालों से हम बात कर रहे हैं कि कैसे हमें साक्षरता को बढ़ाना है, पढ़ाई को बढ़ाना है, लेकिन बात तो यह है कि नौकरियां हैं कहां? नौकरियां नहीं हैं. चाहे महिलाओं के लिए हों या पुरुषों के लिए. और जाहिर है कोविड के दौरान हमने देखा था कि महिलाओं ने पुरुषों से कहीं ज्यादा नौकरियां खोई थीं. और वे फिर नौकरियों में लौट भी नहीं पाई थीं. तो वे महिलाएं ही होती हैं, जो किसी भी तरह की त्रासदी में ज्यादा प्रभावित होती हैं."
भारत में कामकाजी महिलाएं ना के बराबर
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक अगर भारत की वर्कफोर्स में शामिल महिलाओं की संख्या को दोगुना कर दिया जाए, तो देश की जीडीपी ग्रोथ 9 फीसदी हो जाएगी. अभी भारत में सिर्फ 7.5 फीसदी महिलाएं किसी तरह का रोजगार करती हैं. सरकार और प्रशासन में महिलाओं की भागीदारी इस बदलाव में तेजी ला सकती है. लेकिन भारत में लोकसभा में अभी महिलाओं की हिस्सेदारी 15 फीसदी से भी कम है. और राज्यसभा में उनकी संख्या सिर्फ 14 फीसदी है. राज्यों की विधानसभाओं में करीब 10 फीसदी महिलाएं हैं. इसके अलावा ग्राम पंचायतों के 31 लाख में से 14 लाख पदों पर भी महिलाएं हैं.
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्रोफेसर प्रियंका झा मानती हैं कि महिलाओं का नेतृत्व करने वाले पदों पर पहुंचना जरूरी है. वह कहती हैं, "लीडरशिप की बात सिर्फ पॉलिटिकल लीडरशिप की नहीं होती है. हर तरह की संस्थाओं में लीडरशिप की बात होनी चाहिए. चाहे कॉरपोरेट की बात करें, यूनिवर्सिटी की, स्कूल की या कॉलेजों की. बीएचयू में आज तक एक महिला चांसलर नहीं आई है. जेएनयू ने उस चीज को अभी ठीक किया है. मैं नहीं समझती कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी कोई महिला चांसलर रही हैं. तो जब तक महिलाएं ऐसी चीजें देखेंगी नहीं, उनको ये समझ नहीं आएगा कि वे लीड कर सकती हैं. वह बहुत अहम सवाल है."
महिलाओं के यौन शोषण में नेताओं पर भी आरोप
महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ाने के वादों और दावों के बीच उनकी सुरक्षा आज भी एक चुनौती है. पिछले दस वर्षों में कई सांसदों और विधायकों पर भी रेप और महिलाओं के शोषण के आरोप लग चुके हैं. अभी गोंडा से बीजेपी के सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों के शोषण के आरोप में केस चल रहा है, जबकि उन्नाव में बीजेपी के पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर रेप के आरोप में जेल काट रहे हैं. हाल ही में कर्नाटक में एक बड़े सेक्स स्कैंडल का खुलासा हुआ, जिसमें सांसद प्रज्ज्वल रेवन्ना पर सैकड़ों महिलाओं के यौन शोषण का आरोप है.
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. प्रतिमा गोंड कहती हैं, "कपड़ा हमारे संस्कार का फिर से एक मानक बन चुका है. अगर अब से कोई नया चैलेंज लेता है, तो जैसे हम आलू को खोदकर निकालते हैं, वैसे फिर इन बिंदुओं को, हमारी आगे आने वाली जेनरेशन को, हमारी बेटियों को फिर से खोदकर अपने कपड़े की और अपने होने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी."
परिस्थितियां विपरीत, लेकिन हार नहीं मानेंगी महिलाएं
भारतीय समाज में धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है और जानकार इसे राजनीति से जोड़कर देखते हैं. इसकी सबसे बड़ी कीमत महिलाओं को चुकानी पड़ रही है. महिला सुरक्षा और एशियन ब्रिज इंडिया एनजीओ के मोहम्मद मूसा कहते हैं, "युवाओं को अपने साथ किए छल का अहसास ना हो, इसलिए उनकी इस पितृसत्तात्मक मर्दानगी का फायदा उठाया जा रहा है. उनको मर्द बना करके, हिंसक बना करके उनको टारगेट दिया जा रहा है. और उसमें उनको अलंकृत भी किया जा रहा है. उनको आर्थिक फायदे भी मिल रहे हैं. सामाजिक-राजनीतिक फायदे भी मिल रहे हैं. तो इस मर्दानगी को चैलेंज करना जरूरी है. यह जो मर्दानगी है, जहरीली मर्दानगी है."
इस जहरीली मर्दानगी के असर से देश के युवाओं को बचाने के लिए मोहम्मद मूसा की संस्था युवाओं को सेक्शुएलिटी से जुड़े मुद्दों पर जागरूक करती है. शिवांगी इसी संस्था से जुड़ी हुई हैं. भारत में महिलाओं की समानता का रास्ता अभी बहुत लंबा है, लेकिन नेहा और शिवांगी जैसी बहुत सारी महिलाओं की कोशिशें बताती हैं कि महिलाएं अभी हार नहीं मानेंगी.