बीएचयू ने पहली बार गेहूं में आनुवंशिक प्राइमिंग का पता लगाया

Update: 2022-12-19 14:55 GMT
नई दिल्ली, (आईएएनएस)| काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) स्थित वनस्पति विज्ञान विभाग के शोधकतार्ओं ने एक महत्वपूर्ण अध्ययन किया है। विभाग ने ट्राइकोडर्मा को एक प्राइमिंग एजेंट के रूप में पहचाना और पहली बार गेहूं में आनुवंशिक प्राइमिंग का पता लगाया। इस खोज को प्रतिष्ठित शोध पत्रिका (क्यू1), फ्रंटियर्स इन प्लांट साइंस (आईएफ 6.63)में प्रकाशित किया गया है।
विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ. प्रशांत सिंह और उनके मार्गदर्शन में शोध कर रही छात्रा मेनका तिवारी तथा स्नातकोत्तर छात्र रजत सिंह इस नई खोज में शामिल रहे हैं। डॉ. सिंह ने बताया कि प्लांट डिफेंस प्राइमिंग एक जानबूझकर, विनियमित और ऑन-डिमांड रक्षात्मक रणनीति है क्योंकि पौधे को जानबूझकर तनाव की एक छोटी खुराक के अधीन किया जाता है जो रक्षा प्रतिक्रिया को तभी चालु करता है जब पौधे पर जीवाणु द्वारा हमला किया जाता है। 'डिफेंस प्राइमिंग' की अवधारणा उल्लेखनीय रूप से उसी तरह है जैसे मानव रोगों के लिए टीके विकसित किए जाते हैं। इस के तहत प्रतिरक्षा प्रणाली को यह एहसास कराया जाता है कि उस पर हमला हुआ है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता है। इसके परिणामस्वरूप एंटीबॉडी उत्पादन जैसे रक्षा प्रतिक्रियाएं आरंभ होती हैं। यह एक रक्षात्मक प्रवृत्ति स्थापित करता है। डॉ. सिंह के समूह ने इसे 'हरित टीकाकरण' का नाम दिया है। इस समूह की खोज में सबसे महत्वपूर्ण पहलु आनुवांशिक प्राइमिंग का पता लगाया जाना है, अर्थात यह क्षमता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक भी पंहुचती है, जो कृषि उत्पादकता व गुणवत्ता के लिहाज से महत्वपूर्ण है।
शोध समूह ने पहली बार गेहूं की किस्म में एक प्राइमिंग एजेंट के रूप में ट्राइकोडर्मा का इस्तेमाल किया। टीम ने बताया कि प्राइमेड बीज बाइपोलारिस सोरोकिनियाना के कारण होने वाले स्पॉट-ब्लॉच रोग से अधिक सुरक्षित थे। एक बार इसके प्रयोग के बाद, गेहूं के पौधों के जीवन भर प्राइमिंग को बनाए रखी गई और अगली पीढ़ी को भी मिली। उन्होंने इसे 'इंटरजेनरेशनल इम्यून प्राइमिंग' का नाम दिया है। इस अध्ययन के निष्कर्ष स्थायी खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आईजीआईपी के एक कुशल समावेश से गरीब किसान अधिक प्रतिरोधी फसल किस्मों के अपने स्वयं के बीज भंडार एकत्र कर सकेंगे, जिससे उनका खाद्य उत्पादन कीटों और बीमारी के प्रकोप के प्रति कम संवेदनशील हो जाएगा।
विश्वविद्यालय का कहना है कि फसलों को खेतों में विभिन्न प्रकार की जैविक चुनौतियों कासामना करना पड़ता है, जिसकी वजह से अक्सर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। रिसर्च में जुटे छात्रों एवं प्रोफेसर के मुताबिक लगातार बढ़ती वैश्विक आबादी के वर्तमान परि²श्य में, फसल उत्पादकता को बढ़ाने और खाद्यान्न की मांग से जूझने के लिए स्थायी ²ष्टिकोण का उपयोग करके पौधों के स्वास्थ्य की रक्षा करने की तत्काल आवश्यकता है।
--आईएएनएस
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