कोरोना महामारी और बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य ने विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में विविधता के लिए प्रोत्साहित किया है। शिफ्टिंग के कुछ संकेत भी स्पष्ट हैं। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री, भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार एवं आइएमएफ के चीफ इकोनामिस्ट अर¨वद पनगढ़िया ने एक बातचीत में कहा था कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का कुछ हिस्सा भारत की ओर शिफ्ट हो रहा है। कोरोना महामारी के दौर में निर्यात को बढ़ावा देने का यह अहम फैक्टर हो सकता है। असल में इस चुनौतीपूर्ण समय में अर्थव्यवस्था का एक्सटर्नल सेक्टर महत्वपूर्ण स्तंभ साबित हुआ है।
चीन को दुनिया का कारखाना कहा जाता है। मैन्यूफैक्चरिंग ने पिछले चार दशक में उसके उल्लेखनीय विकास और गरीबी उन्मूलन में अहम भूमिका निभाई है। दुर्भाग्य से भारत का मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर जस का तस पड़ा रहा। भारत में औपचारिक सेक्टर में रोजगार सृजन में कमी की एक बड़ी वजह मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में जरूरी विकास न हो पाना भी है। 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को मजूबत करने पर जोर दे रही है। मेक इन इंडिया अभियान भी इसकी बानगी है। कारोबारी सुगमता (ईज आफ डूइंग बिजनेस), उत्पादकता से जुड़ी प्रोत्साहन (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव) योजनाओं समेत कई पहल के लिए इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। इन कदमों से मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर ने गति तो पकड़ी है, लेकिन अब भी आर्थिक विकास एवं रोजगार सृजन के लिए जरूरी गति से यह बहुत कम है। ऐसे समय में जब वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में चीन का विकल्प तलाशा जा रहा है, भारत के पास बड़ा मौका है। जहां वियतनाम, थाइलैंड और मलेशिया जैसे छोटे देश इस अवसर को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, वहां भारत जैसे बड़े एवं विविधतापूर्ण देश के पास चीन का स्थायी विकल्प बनने का अवसर है। इस दिशा में असल दारोमदार लाजिस्टिक्स की लागत पर है।भारत में सड़क, रेल, वायु एवं बंदरगाहों पर फिजिकल इन्फ्रा की स्थिति चिंता का बड़ा कारण है। वस्तुओं को एक से दूसरी जगह भेजने की व्यवस्था पर हावी नौकरशाही बड़ा संकट है। लोग यहां तक कहते हैं कि देश के भीतर किसी जगह से सामान मंगाने की तुलना में विदेश से सामान खरीदना आसान पड़ता है। विभिन्न फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर को आपस में जोड़ने की पहल वाजपेयी सरकार में शुरू हुई थी। स्वर्णिम चतुभरुज योजना में इसका खाका खींचा गया था। दुर्भाग्य से सत्ता बदलते ही योजना ठंडे बस्ते में चली गई। मल्टी-मोडल इन्फ्रा नहीं होने के कारण 2017 तक सड़क मार्ग से वस्तुओं के परिवहन की लागत चार लाख करोड़ रुपये थी, जबकि रेल से परिवहन लागत मात्र एक लाख 40 हजार करोड़ थी। सड़क से परिवहन का अतिरिक्त लाभ बस यह था कि सामान अंतिम छोर तक पहुंच जाता था।
मोदी सरकार ने फिर मल्टी-मोडल व्यवस्था पर जोर दिया। सड़क, बंदरगाह, रेल, एयरपोर्ट और जलमार्ग के क्षेत्र में प्रगति ही नहीं, व्यवस्था की सुगमता भी उल्लेखनीय है। इस समय देशभर में मल्टी-मोडल इन्फ्रास्ट्रक्चर का फ्रेम बनाना समय की जरूरत है। इसके लिए बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा के बाद इस दिशा में कदम सही तरह से बढ़े तो वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भारत अहम हिस्सेदारी हासिल कर सकता है। इससे मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा मिलेगा, लाखों रोजगार सृजित होंगे और उत्पादकता बढ़ेगी, जिससे आर्थिक विकास तेज होगा। इससे समृद्ध भारत का निर्माण करने में मदद मिलेगी।
इंडियन फाउंडेशन आफ ट्रांसपोर्ट, रिसर्च एंड ट्रेनिंग (आइएफटीआरटी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में लाजिस्टिक्स की लागत जीडीपी के 13 से 14 फीसद के बराबर है, जबकि विकसित देशों में यह सात से आठ फीसद और ब्रिक्स देशों में नौ से 10 फीसद है। मल्टी-मोडल इन्फ्रा से इस लागत को कम करने में मदद मिलेगी।
(लेखक- पूर्व चेयरमैन, सेबी और एलआइसी)