'मशरूम मां' ने दिखाया मशरूम की खेती से लाखों की कमाई का रास्‍ता, अब कोई भूखे नहीं मरेगा

ओडिशा का जिला कालाहांडी, जो कभी भूख और इसकी वजह से होने वाली मौतों के लिए जाना जाता था

Update: 2021-08-02 07:45 GMT

ओडिशा का जिला कालाहांडी, जो कभी भूख और इसकी वजह से होने वाली मौतों के लिए जाना जाता था, अब यहां का एक गांव इस जिले की नई पहचान बनकर सामने आया है. कालाहांडी जिले में आने वाले गांव कुटेनपैदार को अब एक मॉडल विलेज के तौर पर माना जाता है. यह गांव अब तेजी से होने वाले बदलाव और महिला सशक्‍तीकरण का प्रतीक बन चुका है.

80 के दशक में भूख से मरे थे लोग
कालाहांडी, ओडिशा का वो जिला है जो साल 80 के दशक में कुपोषण की वजह से होने वाली मौतों के लिए जाना जाता था. अब यहां का गांव कुटेनपैदार 45 साल की जनजातीय महिला बानादेई मांझी का शुक्रगुजार है. मांझी को जिले में मशरूम मां के तौर पर जानते हैं. ये बानादेई के दृढ़ संकल्‍प और मजबूत इच्‍छाशक्ति का नतीजा था कि उन्‍होंने अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को बदलने की ठान ली थी. उनकी इस सोच ने पूरे गांव में आंदोलन का रूप ले लिया था. बानादेई ने दरअसल पैडी स्‍ट्रॉ यानी पुआल से मशरूम की खेती शुरू की. साल 2007-2008 में उन्‍होंने नाबार्ड के कैंप में जो कुछ सीख था, वो ट्रेनिंग इस फसल की खेती में काम आई.
कभी नहीं थी रोटी, अब लाखों का फायदा
बानादेई के परिवार में उनके अलावा पति और चार बच्‍चे हैं. वो एक गरीब परिवार से आती हैं जिसके पास दो एकड़ की सरकारी जमीन है. इस जमीन पर सिर्फ बाजरा की ही खेती की जा सकती थी. दशकों पहले, गांव के बाकी लोगों की ही तरह उनका परिवार भी जंगल और मजदूरी पर ही निर्भर था तब जाकर दो वक्‍त की रोटी का इंतजाम हो पाता था. नाबार्ड में दो साल की बेसिक ट्रेनिंग और ट्रायल खेती के बाद, बानादेई ने मशरूम की खेती शुरू की. उन्‍होंने मशरूम की खेती की शुरुआत अकेले ही की थी, मगर आज वो गांव की रोल मॉडल बन गई हैं. वो कहती हैं, 'मुझे इस खेती से जून से अक्‍टूबर माह तक से एक लाख से ज्‍यादा का फायदा होता है.'
1 बकरी से 45 ब‍करियां, पति ने खरीदी बाइक
इसके अलावा 50,000 से 60,000 रुपए तक की रकम वो सब्जियों, दालों और तेल के बीजों की खेती करके जुटा लेती हैं. जो जमीन कई साल तक ऐसे ही बेकार पड़ी थी, अब वही एक छोटा सा टुकड़ा उनके परिवार का बड़ा सा साधन बन गया है. साल 2010 में मांझी ने 500 रुपए में एक बकरी खरीदी थी और अब परिवार के पास 45 बकरियां हैं. उनके पति जगबंधु और बेटी जगेनसेनी, रोजाना उनकी मदद करते हैं. उनकी एक बेटी की शादी दो साल पहले हो गई थी जबकि दो बेटे, कॉलेज में पढ़ रहे हैं. बानादेई अब अपने लिए एक पक्‍के घर का निर्माण कर रही हैं और उनके पति ने भी मार्केटिंग के लिए एक बाइक खरीद ली है.
गांव वालों ने लिया सबक
बानादेई की अच्‍छी होती आर्थिक स्थिति से गांववालों को प्रोत्‍साहन मिला. अब गांव के 50 से ज्‍यादा घर मशरूम की खेती करने लगे हैं और साल में 50,000 रुपए के करीब कमा लेते हैं. इसके अलावा सब्जियों की खेती से भी उन्‍हें कुछ आय हो जाती है. बानादेई एक मास्‍टर ट्रेनर हैं और वो पड़ोस के 10 गांवों की मह‍िलाओं को भी मशरूम की खेती करने की ट्रेनिंग देने लगी हैं. नाबार्ड ने उन्‍हें मशरूम की खेती और महिला सशक्‍तीकरण की वजह से पुरस्‍कृत भी किया था. बानादेई का कहना है कि मशरूम और सब्जियों की खेती ने उनकी और गांववालों की जिंदगी बदल दी है.
अब हर घर में कमा रहे हैं लोग
कुटेनपैदार गांव, भावनीपटना हेडक्‍वार्टर से 10 किलोमीटर दूर है. यहां पर 55 घर हैं जिसमें से 40 यहां के जनजातीय समुदाय के हैं. एक दशक पहले तक यहां की स्थिति बहुत ही खराब थी. पूरा गांव लकड़ी बेचकर अपना घर चलाता था. जंगल से मिलने वाली लकड़ी के अलावा बाजरा और दाल यहां के लोगों की आजीविका का साधन थे. बानादेई के मुताबिक कभी हालात ऐसे थे कि दो वक्‍त का खाना भी बमुश्किल से मिल पाता था.
अब गांव के 55 में से 50 घरों ने मशरूम की खेती शुरू कर दी है. इसके अलावा सब्जियों की खेती भी हर घर के लोग व्‍यवसायिक स्‍तर पर करते हैं और उन्‍हें 1 लाख से 1.5 लाख रुपए तक का फायदा होता है. हाल ही में नाबार्ड ने पूरे गांव को 'मशरूम विलेज' घोषित किया है.
गांव में हर घर की आर्थिक स्थिति अब बेहतर होती जा रही है. गांव में 35 बाइक्‍स हैं और गांववालों की जिंदगी भी बदल रही है. यहां पर अब लोगों में अपने बच्‍चों को पढ़ाने की उत्‍सुकता भी देखी जा सकती है.


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