वोट बैंक की राजनीति से देश का भला नहीं
दरअसल, सरकार की आय का लगभग एक-तिहाई हिस्सा कॉर्पोरेट टैक्स और इनकम टैक्स से आता है और इसमें अगर एक्साइज, कस्टम, सर्विस टैक्स आदि को भी जोड़ दिया जाए तो यह 60 प्रतिशत से भी अधिक हो जाता है. कहने का मतलब यह कि टैक्स सरकार की कमाई का बड़ा जरिया है. लिहाजा कृषि को भी टैक्स के दायरे में लाने की बात का जिक्र बार-बार उठ रहा है. याद हो तो नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय पहले ही सलाह दे चुके हैं कि एक सीमा के बाद कृषि से होने वाली आय पर भी टैक्स लगाया जाना चाहिए.
टैक्स को लेकर जब आप इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो ब्रिटिश राज के दौरान 1925 में भारतीय कराधान जांच समिति ने भी इस बात का जिक्र किया था कि कृषि से होने वाली आय पर टैक्स छूट का कोई ऐतिहासिक या सैद्धांतिक कारण नहीं है. हालांकि आजादी के बाद पहली बार साल 1972 में बनाई गई केएन राज समिति ने भी कृषि को टैक्स के दायरे से बाहर रखने पर ही अपनी हामी भरी थी. यहां तक कि केलकर समिति ने भी 2002 में कहा था कि देश में 95 प्रतिशत किसानों की इतनी कमाई नहीं होती कि वो उनपर टैक्स का बोझ लादा जाए.मतलब साफ है कि पांच प्रतिशत किसानों को टैक्स के दायरे में लाया जा सकता है. नीति आयोग ने भी शायद केलकर समिति की सिफारिश के आधार पर ही अपनी सिफारिश को आगे बढ़ाया था.
मालूम हो कि आयकर अधिनियम-1961 की धारा 10 (1) के तहत भारत में कृषि से होने वाली आय टैक्स फ्री है. लिहाजा अगर सरकार 5 प्रतिशत अमीर किसानों को भी टैक्स के दायरे में लाने की सोचती है तो कानून में संशोधन करना पड़ेगा जो फिलहाल मुश्किल काम है. वोट बैंक की राजनीति के चक्कर में जिस तरह से पिछड़े व दलितों के आरक्षण में क्रीमलेयर को लेकर सरकार फैसला लेने से बचती रही है, ठीक उसी प्रकार से खेती-किसानी में भी क्रीमी लेयर मौजूद है जिसे टैक्स के दायरे में लाने की भूल सरकार करना नहीं चाहती है. कृषि कानूनों को लेकर हाल में जिस तरह से मोदी सरकार को झुकना पड़ा उसके बाद कृषि से होने वाली आय को टैक्स के दायरे में लाने की बात सरकार सोच ही नहीं सकती है.
कृषि से जुड़ी कंपनियों को टैक्स छूट क्यों?
कृषि को टैक्स के दायरे में लाने की बात जब-जब उठती है, किसानों के हित में काम करने वाली संस्थाएं, एक्सपर्ट्स व विपक्षी दल एक सुर में राग अलापने लगते हैं कि भारत का एक किसान परिवार प्रतिदिन औसतन सिर्फ 265 रुपये कमाता है. यानी महीने में 8000 और साल में 96 हजार के करीब तो ऐसे किसानों को टैक्स के दायरे में क्यों लाया जाना चाहिए? लेकिन इससे इतर इस तरह की बात करने वाले लोग ये भूल जाते हैं कि खेती से होने वाली आय पर टैक्स नहीं लगने से इसका फायदा उन बड़े किसानों के हक में चला जाता है जो संपन्न हैं या फिर उन बड़ी कंपनियों को जो इस सेक्टर में लगी हैं. लिहाजा ऐसी बड़ी कंपनियों को टैक्स में छूट को लेकर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए.
वर्तमान में लागू कानून के मुताबिक, टैक्स से छूट के दायरे में खेतिहर भूमि से मिलने वाला किराया, फसल बिक्री से होने वाली कमाई, नर्सरी में उगाए जाने वाले पौधे से होने वाली आय, कुछ शर्तों के साथ फार्महाउस से होने वाली कमाई इत्यादि आती हैं. बड़ी-बड़ी कंपनियां इसका भरपूर फायदा उठाती है और बहुत बड़ी रकम पर टैक्स से छूट पा लेती हैं. आखिर कावेरी सीड्स, मॉन्सेंटो जैसी कंपनियों को कृषि आय से टैक्स में छूट क्यों दी जा रही है? कैग भी इसको लेकर सुझाव देती रही है कि आयकर विभाग एक निश्चित सीमा से ऊपर के मामलों की फिर से जांच करे और इस बात का सत्यापन करे कि जिन्हें कृषि आय के आधार पर टैक्स छूट दी गई है वो पात्र हैं या नहीं. आयकर विभाग अपने पूरे सिस्टम को मजबूत करे ताकि कोई भी गलत तरीके से टैक्स छूट न प्राप्त कर सके.
अमीर किसानों को तो टैक्स देना ही चाहिए
अमरीका और कई यूरोपीय देशों में कृषि पर टैक्स का प्रावधान है, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं कि वहां के किसानों की स्थिति भारत से कहीं अलग है. अमरीका और यूरोप में सरकार पहले 65 हजार डॉलर की सब्सिडी देती है फिर टैक्स लगाया जाता है. दूसरा, जिन बड़े देशों में कृषि पर टैक्स का प्रावधान है वहां अगर किसानों की पैदावार घटती है तो बीमा की व्यवस्था है. अगर बाजार में कीमतें गिरती हैं तो उसके लिए भी बीमा का प्रावधान है. लेकिन हमारे यहां किसानों को फसल बीमा वाली सुविधा अभी बेहद शुरूआती दौर में है और इसका फायदा भी कहीं न कहीं बड़े किसानों या फिर इस क्षेत्र से जुड़ी कंपनियां ही उठा रही हैं. इसके अलावा अमरीका में किसानों के पास औसतन 250 हेक्टेयर भूमि है तो हमारे यहां औसतन एक से दो हेक्टेयर. लिहाजा अमरीका या उन देशों में जहां कृषि पर टैक्स है, उससे भारत की तुलना तो नहीं की जा सकती है.