राजनीति में रंगे भारत रत्न

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पांच भारत रत्न पुरस्कारों की घोषणा देशभर में चर्चा का विषय बनी हुई है। इसलिए कि देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान के नेपथ्य में छिपी मंशा या एजेंडे को देश का अनपढ़ मतदाता भी बखूबी समझ रहा है। एक ऐसा पुरस्कार जो 1954 में अपनी स्थापना से लेकर अब तक …

Update: 2024-02-13 02:55 GMT

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पांच भारत रत्न पुरस्कारों की घोषणा देशभर में चर्चा का विषय बनी हुई है। इसलिए कि देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान के नेपथ्य में छिपी मंशा या एजेंडे को देश का अनपढ़ मतदाता भी बखूबी समझ रहा है। एक ऐसा पुरस्कार जो 1954 में अपनी स्थापना से लेकर अब तक गरिमा, गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक रहा है, का राजनीतिक मन्सूबों के लिए इस्तेमाल शायद पहले कभी बड़े स्तर पर नहीं हुआ।

कर्पूरी ठाकुर, लालकृष्ण आडवानी, चरण सिंह, पीवी नरसिम्हा राव और एम.एस. स्वामिनाथन को भारत रत्न से विभूषित किए जाने की आलोचना इसलिए हो रही है कि लोकसभा चुनाव से पहले सरकार इन्हें ‘ट्रम्प कार्ड’ के रूप में प्रयोग कर चुनावी समीकरण, गठबन्धन साधना चाहती है, ताकि तीसरी बार वह सत्तासीन हो सके। धारा 370 हटाने से लेकर राम मन्दिर के निर्माण आदि में जो कामयाबी, लोकप्रियता भाजपा ने हासिल की है, उससे देशभर में यह माहौल बनाया जा चुका है कि तीसरी दफा भाजपा की विजय निश्चित है।

गोदी मीडिया तो अपने सर्वे में भाजपा को जिता ही चुका है। ऐसे में भारत रत्न को हथियार बनाकर लोकसभा में 400 का आंकड़ा पार करने की शायद जरूरत नहीं थी। लेकिन साम, दाम, दण्ड, भेद से चुनाव जीतना ही एकमात्र लक्ष्य है। कर्पूरी ठाकुर बिहार में हाशिए पर सिमटे लोगों यानी दलित पिछड़ों की आवाज थे। लेकिन यह पुरस्कार उन्हें ऐसे वक्त मिला है जब ‘पलटू राम’ सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा के पाले में पुन: लुढक़ने के लिए तैयार बैठे थे।

कर्पूरी ठाकुर निश्चित रूप से इस पुरस्कार के हकदार हैं, पर यह उन्हें कई दशक पहले मिल जाना चाहिए था। लालकृष्ण आडवानी को हिन्दुत्व के एजेन्डे को बढ़ावा देने के लिए भारत रत्न मिला। राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा से चन्द रोज़ बाद। लेकिन जानकार भूले नहीं हंै कि रामरथ यात्रा मंडल कमीशन द्वारा ओबीसी तबके को आरक्षण देने के जवाब में आरम्भ हुई थी। देशभर में जिस-जिस शहर से आडवाणी की यात्रा गुजरी थे, दंगे हुए। बेकसूर लोग मौत के घाट उतारे गए। आडवाणी का देश को एक सूत्र में जोडऩे, भाईचारा, सद्भाव या धर्मनिरपेक्षता को सुदृढ़ करने में शून्य योगदान रहा है। संसद पर हमला उनके उप प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री रहते हुआ तो कारगिल में इंटेलीजेन्स फेलियर उनके कार्यकाल की देन है। चौधरी चरण सिंह ताउम्र नीतीश बाबू की तरह दल बदलते रहे। उनके पोते जयन्त चौधरी को एनडीए गठबंधन में शामिल करने, यूपी में किसानों, जाटों के वोटों को भाजपा की झोली में लाने के लिए एक भारत रत्न को कुर्बान किया गया।

6 दिसम्बर 1992 को जब बाबरी मस्जिद ढहायी जा रही थी तो पीवी नरसिम्हा राव प्र्रधानमंत्री थे। यूपी में मुलायम सिंह ने कारसेवकों पर हमले करवाए। उनकी लाशें अयोध्या की सरयू नदी में तैरती मिलीं। पीवी मूकदृष्टा बने रहे। देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बचाने या बनाए रखने में विफल रहे। वे किसी भी मायने में भारत रत्न जैसे सम्मान के पात्र नहीं थे। लेकिन सरकार ने कांग्रेस को चिढ़ाने के लिए उन्हें भारत रत्न से पुरस्कृत किया है या फिर बाबरी मस्जिद ध्वंस को चुपचाप सह लेने के लिए और आडवाणी, उमा भारती जैसे नेताओं का मूक साथ देने के लिये? एमएस स्वामिनाथन का योगदान जितना बड़ा है, उसके समक्ष भारत रत्न जैसा पुरस्कार छोटा है। लेकिन यह उन्हें जीते जी कांग्रेस सरकारों की ओर से मिलना चाहिए था। यह पुरस्कार वास्तव में भारत के किसानों का सम्मान है। लेकिन इसे भी राजनीतिक चश्में से देखा जा रहा है। भाजपा इस मु$गालते में है कि स्वामीनाथन को सम्मानित कर देश के करोड़ों किसान आंख मूंद कर ईवीएम पर भगवा कमल बटन उसके पक्ष में दबा देंगे। स्वामीनाथन को दिए जाने वाले भारत रत्न की टाइमिंग को लेकर भी प्रश्न यथावत है। साल 1954 से लेकर 2024 तक कुल 54 भारत रत्न प्रदान किए गए हैं। इनमें से 33 पुरस्कार राजनेताओं की झोली में गए। कांग्रेस भी पुरस्कारों को हथियाने या फिर ‘अन्धा बांटे रेवडिय़ां मुड़-मुड़ कर अपनों को ही दे’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए पीछे नहीं रही। नेहरू, इन्दिरा गान्धी या राजीव गान्धी के परिवारवाद ने भारत रत्न को अपने-अपने सीनों पर शोभायमान किया। नेहरू चीन से हारे, इंदिरा ने आपातकाल घोषित किया और राजीव ने पीएम बनते ही इंदिरा की हत्या के बाद हजारों सिक्खों को मौत के घाट उतार दिया। यानी 62 प्रतिशत भारत रत्न राजनीति को साधने के लिए ‘शहीद’ कर दिए गए।

18 विभूतियों को राजनीति से इतर जिन पात्र व प्रशंसनीय विभूतियों को यह पुरस्कार दिया गया है, उनमें विनोबा भावे, भूपेन हजारिका, सत्यजीत रे, भीमसेन जोशी, अब्दुल कलाम, बिस्मिला खान, लता मंगेशकर आदि भी शामिल हैं। लेकिन किसी भी भाषा के महान लेखक को भारत रत्न के योग्य नहीं समझा गया। मुंशी प्र्रेमचन्द, यशपाल, टैगोर, महाश्वेता देवी या मुलकराज आनंद जैसे बड़े रचनाकारों को यह पुरस्कार मिलना चाहिए था। शहीद भगत सिंह, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के नामों पर भारत रत्न देने का शायद कभी विचार नहीं हुआ। वे तो क्रान्तिकारी थे और अंग्रेजी हुकूमत के वक्त उन्हें शायद उग्रवादी माना गया। शहीद भगत सिंह के परिवार को भारत रत्न देने की मांग उठती रही है। लेकिन भगत सिंह और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का अवदान भारत रत्न जैसे पुरस्कार से कहीं बहुत बड़ा है।

जो क्रान्तिकारी 23 साल की उम्र में फांसी पर चढ़ गया हो और देश की स्वतन्त्रता का मार्ग प्रशस्त करने में उसका बलिदान सर्वोपरि हो, उसके लिए भारत रत्न जैसे सम्मान कोई मायने नहीं रखता। उन्हें भारत रत्न देने की मांग उचित नहीं है। सरकारी तौर पर दिए जाने वाले पुरस्कारों या सम्मानों की विश्वसनीयता सदा से ही संदेह के दायरे में बनी रही है। अब लोकसभा चुनाव से पूर्व जिस प्रकार पांच भारत रत्न पुरस्कारों की घोषणा हुई है उसने निश्चित रूप से देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान की उच्च गरिमा को ध्वस्त किया है। बेहतर होगा भविष्य में भारत रत्न व अन्य सरकारी स्तर पर दिए जाने वाले नागरिक पुरस्कारों या सम्मानों के लिए दो या तीन उच्च स्तरीय समितियां बनें। वे विभिन्न क्षेत्रों में योग्यता व पात्रता के मानदंडों को तय करें।

राजेंद्र राजन

स्वतंत्र लेखक

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