सम्पादकीय

स्मृति शेष कमला भसीन: ... अब रुकेंगे न किसी हाल, आ गई चेतना

Gulabi
26 Sep 2021 12:52 PM GMT
स्मृति शेष कमला भसीन: ... अब रुकेंगे न किसी हाल, आ गई चेतना
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कमला भसीन के नाम और काम से हर वह व्यक्ति वाकिफ है जो

आई धीरे धीरे हममें चेतना, अब रुकेंगे न किसी भी हाल,


आई हममें चेतना.

अब पूछेंगे हम खूब सवाल



आ गई चेतना.

कौन साथी कौन दुश्मन है,

अब करेंगे सब पहचान, आ गई चेतना.

क्या हमारा फर्ज है और क्या हमारा धर्म है,

इसकी पहचान नहीं करेंगे आप,

आ गई चेतना.

इन पंक्तियों की लेखिका और समूचे दक्षिण एशिया में नारीवाद को आकार देने वाली लेखिका व सामाजिक कार्यकर्ता कमला भसीन 25 सितंबर को नहीं रहीं. उन्होंने 4 सितंबर को ही यह गीत गाया था और उस वीडियो को फेसबुक पर पोस्ट किया था. कल तक वे हमारे बीच थीं, आज नहीं हैं. नहीं, नहीं. वे केवल सशरीर हमारे बीच नहीं है. विचार रूप में तो वे पहले से अधिक व्याप्त हैं. अब तक जो समर्थक उनकी उपस्थिति से आश्वस्त थे, उन्हीं पर यह महती जिम्मेदारी आ गई हैं कि अब वे अपनी कमला दी द्वारा छेड़ी गई जंग और यात्रा को आगे बढ़ाएं.
कमला भसीन के नाम और काम से हर वह व्यक्ति वाकिफ है जो दुनिया में असमानता की जड़ों को पहचानता है. वे तमाम स्वर कमला भसीन की आवाज और कार्य में शामिल हैं जो स्त्री चेतना और बराबरी के प्रति सजग हैं. उनके इन कार्यों और विचारों को जानते हुए जब मैं उनसे पहली बार मिला तो लगा था कि वे गंभीर छवि के साथ प्रस्तुत होंगी. मगर हुआ एकदम उलट. सरल व्यक्तित्व, खिलंदड़ स्वभाव और सहज संवाद का उनका रूप गहरा प्रभाव छोड़ गया था. जो भी उनसे मिला वह उनके व्यक्तित्व की सरलता और विचार की धार साथ ले कर ही लौटा. वे पहली मुलाकात में भी इतने अपनेपन से मिला करती थीं मानो बरसों से पहचान हों. अपने से काफी कम उम्र की लोगों से भी मित्रवत सम्बोधन और व्यवहार उनके साथ संवाद और जुड़े रहने को प्रेरित करता था. विचार को समझाना और बीच बीच में अल्प विराम ले कर यह जांच लेना कि उनकी बात सामने वाले तक पहुंची है या नहीं, कमला भसीन के संवाद शैली की खूबी थी. उनसे मुलाकात के बाद व्यक्ति समझ, उम्मीद और हौंसले के साथ लौटा करता था.
कमला भसीन के 'द कमला भसीन' बनने के पीछे का कारण बचपन में देखा गया सामाजिक भेदभाव भी है. 24 अप्रैल, 1946 को वर्तमान पाकिस्तान के मंडी बहाउद्दीन में जन्मी कमला भसीन का बचपन राजस्थान में बीता था. तत्कालीन राजस्थान के सामाजिक ढांचे और उसमें महिलाओं की स्थिति, तमाम तरह के बंधन और पाबंदियों ने बालिका कमला के मन पर असर डाला और यही आगे चल कर उनका कार्यक्षेत्र भी बन गया. उनकी पढ़ाई लिखाई राजस्थान विश्विद्यालय से हुई और फिर उन्होंने जर्मनी से सोशलॉजी एंड डेवलपमेंट में पढ़ाई की. करीब 27 वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र में काम करने के बाद नौकरी छोड़कर संगत संस्था के लिए काम किया. उन्होंने पितृसत्ता और जेंडर पर काफी विस्तार से लिखा और उसे मैदान में उतारा है. उनकी प्रकाशित रचनाओं का करीब 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है. उनकी प्रमुख रचनाओं में लाफिंग मैटर्स (2005; बिंदिया थापर के साथ सहलेखन), एक्सप्लोरिंग मैस्कुलैनिटी (2004), बॉर्डर्स एंड बाउंड्रीज: वुमेन इन इंडियाज़ पार्टिशन (1998, ऋतु मेनन के साथ सहलेखन), ह्वॉट इज़ पैट्रियार्की? (1993) और फेमिनिज़्म एंड इट्स रिलेवेंस इन साउथ एशिया (1986, निकहत सईद खान के साथ सहलेखन) शामिल हैं. कई संस्थाओं के साथ मिलकर महिलाओं की बेहतरी के लिए किए गए उनके कार्य सदैव प्रेरणा के रूप में जाने जाएंगे.
कमला भसीन ही हैं जिन्होंने पाबन्दियों और भेदभाव के प्रति महिलाओं की चेतना को जगाने का काम किया है. बराबरी के संघर्ष में उत्साह और जोश कायम रखने के लिए उन्होंने गीत लिखे और हर कार्यक्रम में ये गीत गाना अनिवार्य किए. ये गीत सामान्य काव्य पंक्तियां नहीं हैं बल्कि विचार का घोषणा पत्र हैं. जैसे पुरुष सत्ता और लैंगिक असमानता पर उनकी कविता का यह अंश :
तुम कपड़े पहनते हो?

हां जी हां जी हां जी हां

तुम कपड़े धोते भी होगे?

ना जी ना जी ना जी ना

कपड़ों की हां, धोने की ना

ऐसे कैसे चलेगा जहां?

जेएनयू में छात्र नेता कन्हैया कुमार और साथियों द्वारा लगाया गया आजादी का नारा भी कमला भसीन और पाकिस्तान की महिलावादी कार्यकर्ता निखत ने बनाया था. अपने आंदोलन में साथियों को एकजुट करने और उन्हें स्वतंत्रता का बोध करवाने के लिए उन्होंने लिखा था :


मेरी बहनें मांगे आज़ादी,

मेरी बेटी मांगे आज़ादी,

मेरी अम्मी मांगे आज़ादी,

भूख से मांगे आज़ादी…
नारीवाद को पुरुष के खिलाफ खड़ा करने की मुहिम पर वे बार बार कहती रही हैं कि नारीवाद औरत और मर्द के बीच की लड़ाई नहीं है. ये अफवाहें पितृसत्तात्मक शैतानी है. मेरे नारीवाद का मक़सद है सब की बराबरी. सब की आज़ादी. जेंडर न कर पाए किसी की भी बरबादी.
'जागो री' आंदोलन चलाने वालीं कमला भसीन का मानना था कि महिलाओं की पहली लड़ाई पितृसत्तात्मक समाज से बाहर निकलने के लिए है. उन्होंने खुले दिमाग से सोचना सीखाया. वे जीवन भर सक्रिय रहीं, समर्थकों की प्रेरणा बनी रहीं. कैंसर से जूझते हुए भी महिला आंदोलन का उनका संकल्प और यत्न छूटे नहीं. वे बिस्तर पर रह कर भी गीत गा कर अलख जगाती रहीं. बिस्तर पर लेटे-लेटे पाकिस्तान-इंडिया पीपल्स फोरम फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी की राष्ट्रीय कमेटी की बैठक को ऑनलाइन संबोधित किया. उनकी फेसबुक वॉल पर घूम आईए कमला भसीन के व्यक्तित्व के कई अनजाने पहलू प्रकट हो जाएंगे.
कहा जा सकता है कि कमला भसीन का जाना महिला आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका है. लेकिन उनकी आवाज उनके विचार आगे की राह प्रशस्त करेंगे. साथियों ने उनके न होने को गहराई से महसूस किया है मगर अलविदा नहीं कहा है. उनकी ऊर्जा को अपनी प्रेरणा बना लेने का संकल्प और मजबूत हुआ. उनका यह गीत हर मुश्किल में जवाब बन खड़ा रहेगा :

तू बोलेगी,

मुंह खोलेगी,

तब ही तो जमाना बदलेगा.



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
पंकज शुक्‍ला, पत्रकार, लेखक
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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