धर्म-अध्यात्म

हिमालय को अपने कंधों पर उठाने वाला रावण अपने सिंहासन से कैसे गिर पड़ा था

Manish Sahu
18 Aug 2023 10:12 AM GMT
हिमालय को अपने कंधों पर उठाने वाला रावण अपने सिंहासन से कैसे गिर पड़ा था
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धर्म अध्यात्म: रावण ने भगवान श्रीराम जी के दिव्य चरित्र पर जो लाँछन व उपहास इत्यादि करने थे, वह सब कर चुका था। अब तो बस उसे वीर अंगद के भयंकर क्रोध की ज्वाला में जलना था। रावण को क्या पता था कि इससे पूर्व आये वानर (श्रीहनुमान जी) ने तो केवल लंका को ही अग्नि की भेंट चढ़ाया था, लेकिन वीर अंगद तो अपने शब्द बाणों से, रावण के हृदय को ही लंका की भाँति भस्म कर रहे हैं। रावण का अपावन हृदय वीर अंगद की सीख से भला कहाँ सदमार्ग पर आने वाला था। यह तो वीर अंगद को, श्रीराम जी की ही आज्ञा नहीं थी। नहीं तो, वीर अंगद तो ऐसे महान बलशाली हैं कि वे तो संपूर्ण लंका का विध्वंस करके, रावण को मारकर और माता सीता जी को अपने साथ लेकर, श्रीराम जी के श्रीचरणों में पहुँच सकते हैं। लेकिन उनकी इस बेबसी का कोई उपचार भी तो नहीं था। इसलिए उन्हें स्वयं के क्रोध को किसी प्रकार से तो प्रकट करना ही था। सो उन्होंने भले ही रावण के मुख पर घूँसा नहीं मारा, लेकिन पृथ्वी पर मुक्का मारने से तो उन्हें मनाही नहीं थी। जी हाँ! अपना संपूर्ण क्रोध उन्होंने धरा पर मुक्का मारने पर ही निकाल दिया। उनके मुक्का मारने का तरीका भी अलग ही था। कारण कि पूरी दुनिया तो एक ही हाथ से मुष्टिका प्रहार करती है, लेकिन वीर अंगद जी ने दोनों ही हाथों से धरती पर प्रहार किया-
‘कटकटान कपिकुंजर भारी।
दुहु भुजदंड तमकि महि मारी।।
डोलत धरनि सभासद खसे।
चले भाजि भय मारुत ग्रसे।।’
वीर अंगद ने जैसे ही अपने भुजदण्डों से पृथ्वी पर प्रहार किया, वैसे ही पृथ्वी हिलने लगी। जिस कारण सभी सभासद जहाँ-तहाँ गिरने लगे, और भय रुपी पवन से ग्रस्त होकर भाग खड़े हुए।
रावण की स्थिति तो सबसे अधिक हास्यास्पद थी। कारण कि हिमालय को अपने कंधों पर उठाकर नाचने वाला रावण, एक मुष्टिका के प्रहार की हलचल को भी नहीं संभाल पाया। जी हाँ, रावण भी अपने आसन से धड़ाम से दूर जाकर जा गिरा। कोई उसे बचाने के लिए भी आगे नहीं आया। आता भी कौन? सबको तो अपनी-अपनी जान की चिंता पड़ी थी। रावण के सभी सेवक व सहायक, वीर अंगद के एक मुष्टिका प्रहार से ही तितर-बितर हो गए। उन्हें तो वीर अंगद का भला मानना चाहिए था, कि उन्होंने अपना मुक्का रावण के मुख पर न मारकर, धरती पर ही मारा था। नहीं तो निश्चित ही रावण के दसों सिरों के चीथड़े उड़ जाने थे। लेकिन कमी तो अभी भी नहीं बची थी। कारण कि रावण के दस सिर भले ही न उड़े हों, लेकिन उन सिरों पर रखे मुकुट अवश्य ही हवा में उछल कर इधर उधर बिखर गए। सभा में ऐसी भगदड़ मची थी, कि रावण के मुकुटों पर किसी के भी पैर पड़ रहे थे। बच्चे जिस प्रकार से गेंद को पैरों से इधर उधर फेंकते हैं, ठीक वैसे ही रावण के मुकुट भी राक्षसों के पैरों तले धक्के खा रहे हैं। रावण ने अपने मुकुटों को यूँ दर-दर की ठोकरें खाते देखा, तो वह तत्काल प्रभाव से उन्हें उठा कर संभालने लगता है। उसे देख कर ऐसे लग रहा था, मानों कोई भिखारी किसी बारात के ईनाम में लुटाये पैसों को लूटता है। रावण ने कुछ एक मुकुटों को तो उठा कर अपने सिरों पर सजा लिया और जो चार मुकुट बचे थे, उन्हें वीर अंगद ने उठा लिया। इसलिए नहीं, कि उन्हें उन मुकुटों को अपने सिरों पर सजाना था। अपितु इसलिए कि वीर अंगद ने उन मुकुटों को प्रभु श्रीराम जी के चरणों में पहुँचाना था। वीर अंगद ने यही किया। उन मुकुटों को उठाकर श्रीराम जी की दिशा में हवा में उछाल दिया। और दिखा दिया, कि हे रावण! देख जिन मुकुटों को तू अपने सिर पर सजाता रहा, वे श्रीराम जी के श्रीचरणों में जाने को कितने व्याकुल थे-
‘गिरत सँभारि उठा दसकंधर।
भूतल परे मुकुट अति सुंदर।।
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे।
कछु अंगद प्रभु पास पबारे।।’
मुकुटों को आते देखकर वानर भागे। वे सोचने लगे, कि हे विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगे? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो बड़े वेग से आ रहे हैं? यह देख श्रीराम जी ने हँसकर कहा, कि डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! यह तो रावण के चार मुकुट हैं, जो बालिपुत्र अंगद द्वारा फेंके हुए आ रहे हैं।
श्रीहनुमान जी ने उन मुकुटों को उछल कर पकड़ लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया। साथ में मानों मन ही मन कह रहे हों, कि प्रभु आपने बिना ही युद्ध किए, रावण के मुकुटों को तो अपने चरणों में लाकर रख दिया, अब बात तब बनें, जब आप रावण के सीस को अपने श्रीचरणों में लाकर निवा दें। श्रीराम जी भी मन ही मन कह रहे थे, कि हे हनुमंत! रावण की प्रभुता इतनी-सी ही तो है, कि मेरे एक भक्त वानर ने जाकर उसकी लंका तक जला डाली, और दूसरा गया, तो बिना हाथ लगाये ही उसके मुकुट लाकर मेरे श्रीचरणों में रख दिए। यह धमाल तो तब है, जब मेरे एक-एक शिष्य ही वहाँ पधारे हैं। दृश्य तो मनमोहक तब होगा, जब मेरे करोड़ों-करोड़ों वानर एक साथ लंका में प्रवेश करेंगे। तब रावण की प्रभुता की क्या दिशा व दशा होगी, यह तो समय ही निर्धारित करेगा।
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