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सर्वे में दावा: राष्ट्रीय राजनीति पर है सीएम भूपेश बघेल की नजर

Janta se Rishta
25 Aug 2020 11:43 AM GMT
सर्वे में दावा: राष्ट्रीय राजनीति पर है सीएम भूपेश बघेल की नजर
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क रायपुर। देश की एक बड़ी पत्रिका ने मूड ऑफ द नेशन नाम से हाल में एक सर्वे किया है। इस सर्वे के मुताबिक 66 फीसदी लोगों ने माना कि नरेंद्र मोदी को देश का अगला प्रधानमंत्री होना चाहिए, जबकि सिर्फ 8 फीसदी लोगों की पसंद राहुल गांधी थे। सोनिया गांधी को पांच फीसदी और प्रियंका गांधी को दो फीसदी लोगों ने समर्थन दिया। दिलचस्प बात है कि इसी साल की शुरुआत में किए गए सर्वे में राहुल गांधी को 13 फीसदी लोगों ने पीएम पद के लिए पंसद किया था। यानी 8 महीने के अंदर राहुल की लोकप्रियता 5 फीसदी और घट गई है। अभी चुनाव नहीं हैं, इसलिए इस सर्वे का अभी तात्कालिक महत्व नहीं है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस की मौजूदा नेतृत्व क्षमता सवालों के घेरे में है।

गांधी परिवार पर उठने लगे हैं सवाल : यह कोई दबी-छिपी बात नहीं है कि पार्टी नेतृत्व को लेकर कांग्रेस में एक गहरी खींचतान चल रही है। सचिन पायलट भले जैसे तैसे पार्टी में वापस लौट आए लेकिन उनकी बगावत ने नेतृत्व की लड़ाई को सतह पर ला दिया। पार्टी के अंदर और बाहर बहस जारी है और एक आवाज में ना सही, लेकिन गांधी परिवार की सर्वोच्चता पर भी सवाल उठने लगे हैं। पार्टी के तौर पर कांग्रेस में ऐसा बिखराव पहले कभी नहीं दिखा, लिहाजा गांधी परिवार के हाथ से कमान लेने की चर्चा भी जोर पकड़ने लगी है। कुछ नेताओं, मसलन संजय झा ने बुलंद आवाज में अपनी बात रखी और खामियाजा भुगत लिया। फिर भी, दबी आवाज में कांग्रेस के शीर्ष से गांधी परिवार को हटाने की मांग मजबूत हो रही है। कांग्रेस दो लोक सभा चुनाव लगातार हार चुकी है। अगला चुनाव साल 2024 में है, लेकिन कांग्रेस के मौजूदा हालात देखते हुए उसकी शिकस्त का अंदाजा अभी से लगाया जा सकता है। चुनाव जीतने के लिए मजबूत नेतृत्व और सही दिशा की जरूरत होती है। कांग्रेस के पास फिलहाल दोनों नहीं हैं।

2009 में बीजेपी की हालत में खड़ी है कांग्रेस : निश्चित रूप से कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा राहुल गांधी के अलावा किसी और के नेतृत्व को स्वीकार करने के मूड में नहीं है, लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है, जो नए नेतृत्व के विषय में कम से कम सोचने लगा है। वैसे देखा जाए तो कांग्रेस आज उसी चौराहे पर खड़ी है, जहां आज से 10 साल पहले बीजेपी खड़ी थी। साल 2009 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी की करारी हार हुई थी। शुरुआती उलझन के बाद तब पीएम पद के दावेदार रहे लालकृष्ण आडवाणी के सामने नेतृत्व छोड़ने की मांग रख दी गई थी। बीजेपी के लिए वह फैसला आसान नहीं था। एक दशक के बाद कांग्रेस के सामने भी वैसे ही हालात हैं। कांग्रेस को भी फैसला आज नहीं तो कल करना ही होगा। इसकी वजह भी साफ है। राहुल और प्रियंका गांधी कांग्रेस के लिए कोई करिश्मा दिखाने में अभी तक नाकाम रहे हैं। सोनिया गांधी सियासी तौर पर उतनी सक्रिय नहीं हैं और धीरे-धीरे बेअसर होती जा रही हैं। ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस किसकी ओर देखे?

कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं की स्वीकार्यता पर सवाल : कांग्रेस में नेतृत्व के लिए जो विकल्प हैं, उन्हें समझना आज के परिप्रेक्ष्य में जरूरी भी है और दिलचस्प भी। इसके लिए कांग्रेस के कद्दावर नेताओं पर नजर डालनी होगी। पहली नजर में ही शशि थरूर और मिलिन्द देवड़ा जैसे नेताओं के नाम जहन में आते हैं। दोनों नेता कांग्रेस लीडरशिप के लिए आसानी से पहली पसंद हो सकते हैं। दोनों युवा हैं, लोकप्रिय हैं और काबिल भी। मुश्किल सिर्फ एक है और बड़ी है कि दोनों की छवि शहरी और भद्र वर्ग की है। दोनों नेताओं का आम लोगों से ना रिश्ता है और ना आम लोगों में पैठ । कांग्रेस की दरकार तो एक बड़े जनाधार वाले नेता की है। कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा जैसे नेता भी रेस में नजर आते हैं। लेकिन देश के बहुसंख्यक युवा मतदाता इन नेताओं से खुद को कनेक्ट नहीं कर पाएंगे। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की तर्ज पर मोंटेक सिंह अहलूवालिया या रघुराम राजन को भी कांग्रेस आजमा सकती है, लेकिन समस्या जस की तस रहेगी। यानी वोटर को खींच पाने में विद्वान लेकिन ड्राइंग रूम की राजनीति करने वाले ऐसे नेता कारगर साबित नहीं होंगे।

पार्टी के पास ज्यादा विकल्प नहीं : कांग्रेस के लिहाज से दुर्भाग्य यह है कि पार्टी के टॉप पोस्ट के लिए उसके पास ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं । कई मजबूत विकल्पों को तो पार्टी ने खुद ही राहुल गांधी की ताजपोशी और उनको ताकतवर बनाने की जद्दोजहद में खत्म कर दिया। कल्पना कीजिए, अगर जगन मोहन रेड्डी की ‘सांत्वना यात्रा’ को कांग्रेस हाईकमान ने मंजूरी दे दी होती और जगन का समर्थन किया होता, तो सियासी परिदृश्य क्या होता? जगन कांग्रेस के अंदर एक ताकतवर नेता के तौर पर उभरते, जैसा कि उन्होंने बाद में कर दिखाया, लेकिन साथ ही वो राहुल के लिए बड़ी चुनौती भी बन जाते। इसी तरह, अगर सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को 2018 के चुनाव के बाद राजस्थान और मध्य प्रदेश की कमान सौंप दी जाती तो, दोनों युवा नेता सियासी तौर पर राहुल से ज्यादा कामयाब और कद्दावर साबित हो सकते थे। इसीलिए सोची समझी रणनीति के तहत पार्टी में हालात उनके खिलाफ बना दिए गए और ज्योतिरादित्य ने तो पार्टी छोड़ने का ही फैसला कर लिया। सिंधिया ने बीजेपी का रुख कर लिया और पायलट पार्टी में लौट भले आए क्योंकि दूसरा रास्ता दिखा नहीं लेकिन वो खुश हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। फिर, बगावत के बाद उन पर नेतृत्व कितना भरोसा करेगा, ये अलग सवाल है। बहरहाल, कांग्रेस के केन्द्रीय नेताओं में ऐसा कोई नजर नहीं आता जो नेतृत्व की शर्तों को पूरा करता हो।

राज्यों में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की उम्र बड़ी बाधा : लाजिमी है कि राज्यों के कांग्रेसी नेताओं की बात भी की जाए, जो केन्द्र में भूमिका निभाने की कुव्वत रखते हैं। दिलचस्प बात है कि राज्यों में कांग्रेस के कद्दावर नेता हमेशा मौजूद रहे हैं लेकिन गांधी परिवार की वजह से दिल्ली उनके लिए दूर ही रही है। मौजूदा नेताओं को ही देखें तो पंजाब के कैप्टन अमरिन्दर सिंह, राजस्थान के अशोक गहलोत और कर्नाटक के सिद्धारमैया ताकतवर नेता हैं। इनके पास लंबा सियासी अनुभव है, लेकिन पार्टी नेतृत्व के लिहाज से देखें तो इनकी उम्र आड़े आती है। भविष्य का दांव इनके कंधे पर नहीं खेला जा सकता। मौजूदा वक्त में कांग्रेस को एक युवा और चमत्कारी नेतृत्व की जरूरत है। एक ऐसे नेता की जरूरत है जो जमीन से जुड़ा हो और हिन्दी पट्टी से हो। जिसमें संगठन की क्षमता और पर्याप्त राजनीतिक चातुर्य भी हो। इसके अलावा जिसकी छवि विकास करने वाले नेता की हो। ये शर्तें इसलिए हैं क्योंकि चुनाव में मुकाबला नरेन्द्र मोदी से करना है। हिन्दी पट्टी वाले राज्यों में कांग्रेस करीब-करीब हाशिए पर है, जबकि यहीं से होकर दिल्ली का रास्ता जाता है। इसलिए पार्टी नेतृत्व का उत्तरी राज्यों से होना एक जरूरी शर्त हो सकती है। क्या कांग्रेस में कोई ऐसा नेता है जो इन सभी खूबियों से लैस हो? छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को इन पैमानों पर परखा जा सकता है।

भूपेश बघेल की सांगठनिक क्षमता सबसे बड़ा एडवांटेज : भूपेश बघेल 58 साल के हैं और भारतीय राजनीति के हिसाब से देखें तो उन्हें काफी युवा कहा जा सकता है। बघेल प्रधानमंत्री मोदी से करीब 12 साल छोटे हैं और राहुल गांधी से 8 साल बड़े हैं। साल 2013 के दरभा घाटी नरसंहार के बाद जिसमें राज्य की पूरी कांग्रेस लीडरशिप एक तरह से खत्म हो गई थी, भूपेश बघेल को राज्य में पार्टी को नए सिरे से खड़ी करने की मुश्किल जिम्मेदारी दी गई थी। जिस राज्य में कांग्रेस ने बीजेपी से लगातार तीन चुनावों में शिकस्त खाई, वहां कांग्रेस के मजबूत होने की उम्मीद बहुत कम थी। लेकिन भूपेश बघेल ने 2018 के चुनाव में 90 में 67 सीटें हासिल कर के चमत्कार कर दिया। छत्तीसगढ़ के इतिहास में यह सबसे ज्यादा अंतर से जीत है। बघेल की कामयाबी का सिलसिला आगे भी जारी है। कांग्रेस को जगदलपुर और चित्रकूट के दो उपचुनावों में जीत मिली। अजीत जोगी की खाली हुई सीट पर जीत दर्ज करके बघेल 70 सीटों का लक्ष्य पूरा करना चाहते हैं।

काउ बेल्ट के कद्दावर नेताओं में शामिल हैं बघेल : भूपेश बघेल कांग्रेस के इकलौते ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिनके पास विधान सभा में दो तिहाई बहुमत है। बघेल दिल्ली में अपनी सियासी संभावनाओं से अच्छी तरह वाकिफ भी हैं। शायद इसीलिए वह अपनी गरीब और किसान समर्थक छवि को चमकाने में लगे हैं ? उनकी योजनाओं पर नजर डालें तो ‘गोधन न्याय’ छत्तीसगढ़ सरकार की फ्लैगशिप योजना है, जिसके तहत दो रुपए प्रति किलो के हिसाब से गोबर खरीदा जाता है। इसे वर्मी काम्पोस्ट में तब्दील करके फिर किसान को बेचा जाता है। पशुपालकों को रोजगार देने और उनकी आमदनी बढ़ाने वाली यह योजना बेहद कामयाब है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी योजना का ‘काउ बेल्ट’ कहे जाने वाले एमपी, यूपी और बिहार में भी जबरदस्त असर हो सकता है। यानी बघेल की सोच सिर्फ अपने राज्य तक सीमित नहीं है। दिलचस्प बात ये है कि इस योजना में आरएसएस भी सुझाव और समर्थन दे रहा है। कहा जा सकता है कि बड़े मकसद के लिए बघेल सामंजस्य बनाने की कला भी जानते हैं। जरूरत के हिसाब से मुखर विरोध जताना भी जानते हैं। केन्द्र सरकार के विरोध में आवाज बुलंद करने वालों में बघेल आगे रहे हैं। विनम्र लेकिन तार्किक और स्पष्ट तरीके से बघेल ने मोदी सरकार के खिलाफ विरोध जताया है। चाहे वो नागरिकता कानून का मामला हो या पीएम केयर्स फंड का या फिर लद्दाख में चीनी सेना के घुसपैठ का, बघेल ने आगे बढ़कर केन्द्र सरकार पर हमला बोला है। इसी सिलसिले में उन्होंने पीएम मोदी को आईना भेंट करते हुए उनसे अपना वास्तविक चेहरा देखने की नसीहत तक दे दी।

राष्ट्रीय राजनीति पर है बघेल की नजर : छत्तीसगढ़ में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी ज्यादा बढ़ी है। हाल ही में उन्होंने उमर अब्दुल्लाह पर उनके बहनोई सचिन पायलट की बगावत को लेकर तंज कसा था और आरोप लगाया था कि नजरबंदी से उमर की रिहाई का सचिन पायलट की बगावत से कनेक्शन है। उमर अब्दुल्लाह इतने भड़के कि बघेल को कोर्ट ले जाने की धमकी दे दी। खैर, यह टकराव बघेल की राष्ट्रीय राजनीति में मौजूदगी दर्ज कर गया।इसी तरह बघेल ने अमित शाह पर गुंडे-मवालियों की भाषा इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हुए उनको घेरा। बघेल की ऐसी सक्रियता राष्ट्रीय मीडिया की नजरों में भी है। सोशल मीडिया पर किसी भी दूसरे कांग्रेसी मुख्यमंत्री की तुलना में बघेल ज्यादा चर्चित हैं। छत्तीसगढ़ कांग्रेस भी सोशल मीडिया के जरिये मोदी सरकार की आलोचना करने में किसी दूसरी प्रदेश कांग्रेस की तुलना में ज्यादा धारदार साबित हुई है। बघेल ने अभी तक अपने पत्ते संभल कर चले हैं।

बघेल के लिए चुनौतियां भी कम नहीं : यहां कहना जरूरी है कि रायपुर से दिल्ली का रास्ता भूपेश बघेल के लिए आसान नहीं है। शायद ही किसी क्षेत्रीय नेता को कांग्रेस ने केन्द्र की राजनीति में तरजीह दी हो। बघेल की दिल्ली में कोई लॉबी भी नहीं है। उन्हें जो कुछ भी करना है, अपने दम पर करना है। लोगों को तो जोड़ना ही है, विरोधियों को भी साधना है। पहले तो उन्हें छत्तीसगढ़ में ही एकमात्र नेता के तौर पर खुद को स्थापित करना है। मुख्यमंत्री के आधे कार्यकाल के लिए टीएस सिंहदेव के नाम की चर्चा चल पड़ी है। राजा साहब पहले से बघेल के मुकाबले खड़े हैं। अपने सभी विधायकों को लामबंद करना भी कम बड़ी चुनौती नहीं है।ल

अंदरखाने तैयारी भी कर रहे छत्तीसगढ़ के सीएम : बघेल एक सधे हुए नेता की तरह कदम आगे बढ़ा भी रहे हैं। विधायकों के लिए संसदीय सचिव का पद बनाकर उन्होंने काफी हद तक विरोधियों को साध लिया है। बघेल की दूसरी कोशिश खुद के लिए राष्ट्रीय नेता की छवि बनाने की है, जिसकी कोशिश हो रही है। इसी कड़ी में विश्व आदिवासी दिवस के बड़े बड़े विज्ञापन दिल्ली के अखबारों में दिखायी देते हैं। यहां एक नोट करने वाली बात है। एक मंजे हुए नेता की तरह बघेल गांधी परिवार के प्रति अपनी वफादारी जताने में पीछे नहीं रहते, लेकिन गांधी परिवार के लोगों का चेहरा उनके विज्ञापनों से अक्सर गायब रहता है। राष्ट्रीय अखबारों में छत्तीसगढ़ सरकार की कामयाबी का बखान करते विज्ञापनों को गौर से देखिए। वहां आपको उर्जा और उम्मीद से भरे भूपेश बघेल का मुस्कुराता चेहरा नजर आएगा। इसके साथ ही पिछले कुछ महीनों की सुर्खियों पर भी नजर डालिए। वहां भी राष्ट्रीय मुद्दों पर भूपेश बघेल के बयान मिलेंगे। समझना इतना मुश्किल नहीं है कि देश के एक छोटे राज्य का मुख्यमंत्री सियासत में बड़ी भूमिका निभाने की तैयारी में है।

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