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अपने देश में बत्तख पालन (Duck Farming) की चर्चा कम ही होती है जबकि पोल्ट्री व्यवसाय (Poultry Business) में मुर्गियों के बाद इसी का नंबर आता है. मुर्गियों के मुकाबले बत्तखों को पालन आसान और सस्ता है. यहीं वजह है कि वर्तमान समय में काफी लोगों का रुझान बत्तख पालन की तरफ बढ़ रहा है. धान की खेती और मछली पालन (Fisheries) करने वाले किसानों के लिए बत्तख पालन अतिरिक्त आय का जरिया है. अगर आप सही तरीके से बत्तख पालन करते हैं तो आमदनी में काफी इजाफा हो सकता है. बत्तख एक कठोर जीव है और किसी भी वातावरण में खुद को ढाल लेती है. यहीं वजह है कि इन्हें पालना आसान है. मुर्गियों के मुकाबले इनमें बीमारियां भी कम लगती हैं.
अपने देश में पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, केरल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्य बत्तख पालन में सबसे आगे हैं. वहीं खेतों में गिरे अनाज के दाने, कीड़े मकोड़े, छोटी मछलियां, मेंढक, पानी में रहने वाले दूसरे कीड़े और शैवाल इनके आहार हैं. ऐसे में भोजन पर विशेष खर्च नहीं करना पड़ता. वहीं मुर्गियों के मुकाबले बत्तख 40 से 50 अंडे ज्यादा देती हैं और अंडों का वजन भी 15-20 ग्राम ज्यादा होता है. बत्तख 95 से 98 फीसदी अंडे सुबह 9 बजे तक दे देती हैं. इससे किसानों को फायदा होता है. वे सुबह ही अंडे इकट्ठा कर बाकी के समय में वे अपने काम निपटा सकता है.
अगर आप मछली पालन कर रहे हैं या धान की खेती करते हैं तो आपके लिए बत्तख पालन करना बेहद आसान है. बत्तख का बीट मछलियों के लिए आहार हैं और धान में पनप रहे कीड़े-मकोड़ों को खाकर ये फसल में नुकसान होने से बचाती है. नदी किनारे जहां साल भर पानी भरा रहता है, वहां मुर्गी नहीं पाली जा सकती, लेकिन किसान आसानी से बत्तख पालन कर सकते हैं. बत्तखों का दिमाग तेज होता है और इन्हें घर से खेत जाना और खेत से घर आना सिखाया जा सकता है.
इन्हें पालने के लिए कम जगह चाहिए होता है. अंडों का मोटा छिलका टूटने से बचाता है. बत्तखों की कुछ किस्में ज्यादा अंडा देने वाली हैं, जैसे इंडियन रनर और कैम्पल. कैप्मल की तीन उपजातियां भी हैं. मांस वाली किस्मों की बात करें तो पेकिंग, मुस्कोबी, एलिस बेरी और रॉयल कागुआ खास है. अंडा देने वाली किस्मों में खाकी कैम्पबेल सबसे अच्छी मानी जाती है. ये साल में करीब 300 अंडे देती है. पेकिंग मांस देने वाली सबसे उत्तम नस्ल है. चूजों और बड़ी बत्तखों की देखभाल अलग-अलग तरीकों से होती है. इसी तरह अलग-अलग नस्लों का प्रबंधन भी अलग-अलग होता है.