दिवाली में मिट्टी का दीया समेत अन्य बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की अपनी पीड़ा है. इनकी मानें, तो वक्त बदला, लेकिन कुम्हारों की हालत नहीं बदली. आज भी कुम्हार आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं. पुराने चाक, मिट्टी, लकड़ी का जुगाड़ कर दीया व बर्तन बनाने में मेहनताना भी नहीं निकल पाता है. बाजार में सस्ते दीये के कारण उनकी कमाई फीकी पड़ गयी है. वे कहते हैं कि सरकार से भी उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाती है.
कुम्हारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं
वक्त के साथ काफी चीजें बदली हैं, लेकिन मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की जिंदगी जस की तस है. इनकी आर्थिक स्थित आज भी ज्यादा नहीं बदली. समय का पहिया रफ्तार पकड़ रहा है, लेकिन कुम्हारों के चाक की रफ्तार धीमी ही है. दस साल पहले जिस दाम पर दीया बिकता था, बढ़ती महंगाई के बाद भी आज भी उसी दाम में दीया बिक रहा है.
पुराने चाक से ही बना रहे मिट्टी के बर्तन
चतरा जिले के इटखोरी के रहने वाले कैलाश प्रजापति ने कहा कि उनके पूर्वज जिस तकनीक (चाक) से मिट्टी का दीया समेत अन्य बर्तन बनाते थे. वे लोग भी उसी पुराने चाक से काम कर रहे हैं और मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं. आधुनिक युग में भी हाथ से चाक चलाना पड़ रहा है. आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है कि वे बिजली से चलने वाला इलेक्ट्रिक चाक ले सकें.
बाजार को नहीं दे पा रहे टक्कर
कैलाश प्रजापति कहते हैं कि दस साल पहले एक रुपये में एक दीया बेचते थे. आज भी वही मूल्य है. वर्तमान समय में दो रुपये प्रति दीया बिकता, तो कुछ कमाई होती. पूजा भंडार वाले बड़े शहरों से छोटा दीया मंगा कर कम कीमत पर बेचते हैं, जिससे कारोबार प्रभावित होता है. लकड़ी व मिट्टी भी नहीं मिलती है. सरकार से किसी तरह का सहयोग नहीं मिलता है. इस वर्ष उम्मीद है कि त्योहार में अच्छी बिक्री होगी.
मेहनताना भी नहीं निकल पा रहा
कामेश्वर प्रजापति ने कहा कि वे लोग बुरे दौर से गुजर रहे हैं. कुम्हारों की हालत पूर्वजों के जमाने जैसी ही है. इस काम में मेहनताना भी नहीं निकल पाता है. बाजार में दीयों की मांग कम होती जा रही है. लोग मोमबत्ती का इस्तेमाल कर रहे हैं. तेलों की बढ़ती कीमत का असर दीयों पर पड़ा है.