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नई दिल्ली (आईएएनएस)। वामपंथी मोर्चे का आरोप है कि देश में राज्यपाल संविधान के खिलाफ प्रतिकूल व्यवहार कर रहे हैं। यह कोई व्यक्तिगत भटकाव नहीं बल्कि सोचे-समझे सामूहिक लक्ष्य के तहत मोदी सरकार के समय में शुरू हुए राज्यों को नियंत्रित करने का एक प्रयास है।
तमिलनाडु और केरल के राज्यपाल पर सत्तारूढ़ दल पिछले कुछ समय से राज्य सरकार के खिलाफ मनमानी करने का आरोप लगाते रहे हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआईएम) नेता और पोलित ब्यूरो सदस्य नीलोत्पल बसु ने आईएएनएस से साक्षात्कार में कहा है कि देश के कई राज्यों में राज्यपाल राजनीति से प्रेरित होकर काम कर रहे हैं। हम देशभर में समान विचारचारा वाली पार्टियों के साथ मिलकर इस मुद्दे को उठाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।
सवाल - आपकी पार्टी की केरल, तमिलनाडु या अन्य किसी भी राज्यपाल के कामकाज से क्या असहमति है ?
जवाब - हमने देखा कि किस तरीके से तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने अपने अभिभाषण में भाषण का कुछ हिस्सा नहीं पढ़ा। जबकि वे इसे पढ़ने के लिए पहले सहमति जता चुके थे। तमिलनाडु में सामूहिक चेतना, कानून व्यवस्था संबंधी सरकार के कामकाज का जो हिस्सा उन्हें पढ़ना था उन्होंने जानबूझकर उसको नहीं पढ़ा। उसके साथ ही समाज सुधार आंदोलन से जुड़े बड़ी हस्तियों के जो विचार थे, उनको भी पढ़ने से इंकार कर दिया।
सवाल - राज्यपाल का जो रवैया है, आप इसके पीछे क्या वजह मानते हैं? कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां की राज्य सरकारों को राज्यपाल से किसी मुद्दे पर असहमति नहीं हुई मिसाल के तौर पर ओडिशा और राजस्थान।
जवाब - इसके पीछे कि वजह यह है कि कई राज्यों में राज्यपाल राजनीति से प्रेरित होकर इस तरीके का व्यवहार करने लगे हैं। यह उनकी व्यक्तिगत महत्वकांक्षा और पार्टी द्वारा पोषित एक सोचे-समझे सामूहिक लक्ष्य के तहत राज्य सरकारों के कामकाज को नियंत्रित करने की मंशा का भी नतीजा है। आपको ज्यादातर राज्यों के उदाहरण ऐसे मिलेंगे जो राज्य सरकारों का सहयोग नहीं कर रहे हैं। मिसाल के तौर पर देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं है।
सवाल- अब जब आपकी पार्टी मुखर हो कर राज्यपाल के खिलाफ इस तरह का विरोध जाहिर कर रही हैं, आगे की रणनीति क्या है? क्या आप उनके खिलाफ कोर्ट जाएंगे?
जवाब - हम इसके लिए जनमत एकत्रित कर रहे हैं। केंद्र सरकार की ओर से राज्यपाल द्वारा बनाए जाने वाले इस दबाव को कैसे कम किया जाए और राज्यों में चुनी हुई सरकार सुचारू ढंग से काम कर सकें इस पर भी चर्चा कर रहे हैं। हम अन्य समान विचारधारा वाली पार्टियों से भी इस बारे में बातचीत कर रहे हैं ताकि राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दे को उठाया जा सके। छत्तीसगढ़ और दिल्ली जैसे अन्य राज्यों में भी जिस तरीके से राज्यपाल चुनी हुई सरकारों के साथ बिल्कुल भी सहयोग से कामकाज नहीं कर रहे हैं, यह एक असंवैधानिक प्रयास है।
दरअसल केरल में पिनराई विजयन के नेतृत्ववाली वामपंथी मोर्चा सरकार एवं राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर मतभेद से हाल में खासी तल्खी बढ़ गई है। इसके बाद व्यक्तिगत आरोप लगाने में केरल सरकार और लेफ्ट पार्टी बिल्कुल पीछे नहीं रही। उन्होंने खान पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी का एजेंट बनकर काम करने का आरोप लगाया।
सीपीआईएम महासचिव सीताराम येचुरी ने इस मसले पर कहा है कि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को इस्तीफा देने का निर्देश दिया था। संविधान राज्यपाल को ऐसा निर्देश जारी करने की अनुमति नहीं देता है।
उन्होंने कहा, 'केरल के राज्यपाल को ऐसा निर्देश देने का कोई अधिकार नहीं है। यह मनमाना, अवैध और राजनीति से प्रेरित निर्देश है। सबको पता है कि केरल में उच्च साक्षरता दर क्या है। लेकिन राज्यपाल उच्च शिक्षा प्रणाली को नियंत्रित करके नष्ट करना चाहते हैं। कुलपतियों को इस्तीफा देने के निर्देश जारी करने का मकसद उच्च शिक्षण संस्थानों को नियंत्रित करके आरएसएस हिंदुत्व की विचारधारा को आगे बढ़ाना है। '
दूसरी ओर तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और राज्यपाल आरएन रवि के बीच तनातनी इतनी बढ़ गई है कि गुरुवार को सीएम ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र लिख अपनी नाराजगी जाहिर की है। राज्य सरकार का आरोप है कि विधानसभा को संबोधित करने के दौरान राज्यपाल को राज्य सरकार द्वारा तैयार अभिभाषण को ही पढ़ना चाहिए। उनके निजी विचारों या आपत्ति के लिए कोई जगह नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 176 के तहत साल के पहले विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्यपाल का अभिभाषण राज्य सरकार की नीतियों, योजनाओं और उपलब्धियों के बारे में बताने के लिए होता है लेकिन राज्यपाल ने भाषण का कुछ अंश नहीं पढ़ा।
हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में जगदीप धनखड़, जो वर्तमान उपराष्ट्रपति हैं, और ममता बनर्जी सरकार के बीच का टकराव खासा चर्चित रहा है। ममता तथा धनखड़ ने सार्वजनिक समारोहों में भले ही आपसी सौहाद्र्रता बनाए रखी लेकिन उनके मतभेद और व्यक्तिगत कटुता जगजाहिर थे।
अगर कुछ दशक पीछे जाएं तो तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता और तत्कालीन राज्यपाल डॉ. एम. चेन्नारेड्डी के बीच इतनी ज्यादा कटुता थी कि शीर्ष संवैधानिक पदों पर आसीन दो दिग्गजों के बीच सौजन्यतापूर्ण मुलाकातों के साथ-साथ व्यक्तिगत बातचीत तक बिल्कुल बंद थी। इसे संयोग कहें या फिर इसके पीछे कुछ राजनीतिकरण टटोलें, लेकिन यह सच है कि राज्य सरकार का मुखिया तथा राज्यपाल परस्पर विरोधी विचारधारा से ताल्लुक रखते हों तो उनमें टकराव होता रहता है।
संवैधानिक संस्थाओं का सीधा असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार और उपराज्यपाल के बीच पिछले काफी सालों से शायद ही किसी मसले पर बात बन पाई है। आए दिन टकराव की स्थिति बनी रहती है। 'आप' सरकार और उपराज्यपाल के बीच असहमति के कारण दिल्ली में कई महत्वपूर्ण फैसलों पर अमल नहीं हो सका। इससे प्रशासनिक कामकाज भी प्रभावित हो रहा है।
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