झुंझुनू: संसार में अनूठी है बिसाऊ की मूक रामलीला. शाम के उजाले मे स्टेज की जगह खुले मैदान में रामलीला का मंचन किया जाता है. 200 सालों से चल रहा मूक रामलीला का पुराना इतिहास आज भी कायम है. विदेशी सैलानियों के साथ-साथ स्थानीय प्रवासियों को अपनी ओर स्वत: खींच लाता है. रामलीला का मंचन15 दिनों तक चलता है. मूक रामलीला मंचन जो अपने आप में आकर्षण का केंद्र है. सभी पात्र मुखौटो का प्रयोग करते हैं. साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक लीला में मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा ही ढोल-नगाड़े बजाए जाते हैं. जिनकी धुन पर पूरी रामलीला का मंचन होता है.
बिसाऊ (Bissau) जंहा रामलीला में अहंकार में चूर होकर रावण अपनी तेज और डरावनी आवाज में दहाड़ता है. रावण के साथ-साथ लंका के राक्षसों की आवाज इतनी तेज होती है कि दूर-दूर तक उनकी गूंज सुनाई देती है. लेकिन बिसाऊ की मूक रामलीला का रावण ऐसा नहीं है. यह बोलता नहीं बल्कि मूक बना रहता है. यह जरूर है कि सब कार्य उसी प्रकार करता है जिस प्रकार सभी रामलीला में रावण करते हैं. लेकिन यह रावण खामोशी के साथ और मूक बनकर करता है. वहीं मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र की मधुर आवाज भी इस रामलीला में नहीं सुनाई देती ना ही अयोध्या के भजन सुनाई देते हैं. यह सिलसिला लगातार पिछले 200 साल से भी अधिक समय से मूक रामलीला के रूप मे चला आ रहा है.
झुंझुनूं जिले के बिसाऊ कस्बे में होने वाली मूक रामलीला जो अपने आप में एक अनूठी है. साथ ही इनके पात्र और उनके रामलीला का मंचन भी अपने आप में अनोखा है. देशभर में हो रही रामलीलाओं की बात करे तो झुंझुनू (Jhunjhunu) जिले के बिसाऊ में हो रही मूक रामलीला का इतिहास को खंगाला जाए तो कई रोचक जानकारियां सामने आती है. बिसाऊ की मूक रामलीला देशभर में ही नहीं अपितु पूरे संसार में होने वाली सभी रामलीलाओं से इसलिए अलग है क्योंकि इसके मंचन के दौरान सभी पात्र बिन बोले (मूक बनकर) ही सब कह जाते हैं. यही नहीं इसके सभी पात्र अपने मुखौटो से अपनी पहचान दर्शाते हैं ना की बोल कर. यही कारण है कि इसको मूक रामलीला के नाम से जाना जाता है. इस तरह की रामलीला का मंचन पूरे संसार में अन्य कहीं नहीं होती.
यही कारण है कि यह अपने-आप में सबसे अनोखी और अनोखी रामलीला है. मूक रामलीला की शुरुआत रामाणा जोहड़ से हुई. फिर इसका मंचन गुगोजी के टीले पर होने लगा. बाद में काफी समय तक स्टेशन रोड़ पर हुई। वर्ष 1949 से गढ के पास बाजार में मुख्य सड़क पर लीला का मंचन शुरू हुआ जो वर्तमान में जारी है. यदि मूक रामलीला के कब से शुरू होने के पीछे की कहानी की बात करे तो इसके बारे में अलग तथ्य सामने आते हैं. कुछ का कहना है यह 200 साल पुरानी है तो कुछ 180 साल पहले शुरू होना बताते हैं. वहीं इस बारे में इतिहासकार त्रिलोकचन्द शर्मा से पुछा गया तो उनके अनुसार यह रामलीला लगभग 180 साल पहले जमना नाम की एक साध्वी के द्वारा बिसाऊ के रामाण जौहडा से शुरूआत करना बताया.
मूक रामलीला का मंचन 15 दिन तक:
साध्वी जमना ने गांव के कुछ बच्चों को एकत्रित कर रामाणा जोहड़ में रामलीला का मंचन शुरू किया. हाथ से उनके पात्र के मुताबिक मुखौटे बनाए गए. लेकिन मुखौटे पहनने के बाद बच्चों को संवाद बोलने में दिक्कत होने लगी तो उनसे मूक रहकर ही अपने पात्र की भूमिका निभाने को कहा गया और इस प्रकार बिसाऊ में मूक रामलीला की शुरुआत हुई. जो आज तक जारी है. इस लीला की खास बात यह है कि यह शुक्ला प्रथम से पूर्णिमा तक चलती है. वहीं इस लीला में रावण दशहरे वाले दिन नहीं मरता बल्कि चतुर्दशी को मरता है. यहां की रामलीला में विजयादशमी की बजाय चतुर्दशी यानी दशहरे के चार दिन बाद रावण दहन होता है. साथ ही मूक रामलीला का मंचन आसोज शुक्ल प्रथम से पूर्णिमा तक 15 दिन तक होता है.
यह लीला अपने आप में साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक में भी जानी जाती है. त्रिलोक चन्द शर्मा की माने तो लीला का मंच ढोल-नगाड़ों पर होता है जो स्थानीय मुस्लिम समुदाय के इल्लाही लोगों के द्वारा बजाया जाता है. जहां लगभग सभी रामलीला में अमूमन हर दिशाओं में लाउड स्पीकर लगाए जाते हैं. लेकिन यहां एक भी लाउड स्पीकर नहीं लगाया जाता है. सभी पात्र अपना अभिनय मूक रहकर ही करते हैं. खास बात तो यह है कि रामलीला का मंच ही नहीं होता. पूरी रामलीला का मंचन खुले मैदान पर ही होता है. लीला मे पंचवटी और लंका की बनावट मैदान के उत्तरी भाग में काठ (लकडी) की बनी हुई अयोध्या और दक्षिण भाग में सुनहरे रंग की लंका और मध्य भाग में पंचवटी रखी जाती है.
मैदान में बालू मिट्टी डालकर पानी का छिड़काव किया जाता है. लीला शुरू होने से पहले चारों स्वरूप रामलीला हवेली से पहले घोड़ों पर बैठकर आते थे लेकिन अब वाहन में बैठकर आते हैं. लीला के पात्रों की पोशाक भी अलग तरह की होती है. अन्य रामलीला की तरह शाही और चमक दमक वाली पोशाक न होकर साधारण पोशाक होती है. राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न की पीली धोती, वनवास में पीला कच्चा और अंगरखा, सिर पर लम्बे बाल और मुकुट होता है. मुख पर सलमे-सितारे चिपका कर बेल-बूटे बनाए जाते हैं.
सैलानियों का आना भी इस रामलीला की खासियत:
हनुमान, बाली-सुग्रीव, नल-नील, जटायु और जामवन्त आदि की पोशाक भी अलग-अलग रंग की होती है. सुन्दर मुखौटा और हाथ में घोटा होता है. रावण की सेना काले रंग की पोशाक में होती है. हाथ में तलवार लिए युद्ध को तैयार रहती है. मुखौटा भी लगाया हुआ होता है. आखिरी चार दिनों में कुंभकरण, मेघनाथ, नारायणतक और रावण के पुतलों का दहन किया जाता है. फिर भरत मिलाप के दिन पूरे नगर में श्री राम दरबार की शोभा यात्रा निकाली जाती है. इस मूक रामलीला को देखने के लिए प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ काफी संख्या में सैलानियों का भी आना इस रामलीला की खासियत है.
न्यूज़ क्रेडिट: firstindianews