सीएम भूपेश बघेल ने गजानन माधव मुक्तिबोध की जयंती पर किया नमन
रायपुर। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि-गद्यकार स्व. गजानन माधव मुक्तिबोध जी की जयंती पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उन्हें नमन किया और कहा - मेरे सहचर हैं ढहा रहे वीरान विरोधी दुर्गों की अखंड सत्ता,उनके अभ्यंतर के प्रकाश की कीर्तिकथा जब मेरे भीतर मँडराई मेरी अखबार-नवीसी ने भीतर सौ-सौ आँखें पाई.
मुक्तिबोध के पूर्वज महाराष्ट्र के जलगाँव (खानदेश) के निवासी थे। उनके परदादा वासुदेवजी उन्नीसवीं सदी के आरंभ में महाराष्ट्र छोड़कर ग्वालियर (मध्यप्रदेश) के मुरैना जिला में पड़ने वाले श्योपुर नामक कस्बे में आ बसे थे।[1] वासुदेव के पुत्र गोपालराव वासुदेव ग्वालियर राज्य के टोंक (राजस्थान) जिला में कार्यालय अधीक्षक थे। उन्हें फारसी की अच्छी जानकारी थी, इस कारण लोग उन्हें 'मुंशी' कहकर भी बुलाते थे। उनकी नौकरी जिस गाँव में होती, वे महीना दो महीना वहाँ रह आते और मेवा-मिठाई से अपना सत्कार कराए बिना प्रसन्न न होते थे। गोपालराव के इकलौते पुत्र थे- माधवराव मुक्तिबोध। माधवरावजी केवल मिडिल तक शिक्षित थे, लेकिन पिता की तरह वे भी अच्छी फारसी जानते थे। धर्म और दर्शन में भी उनकी गहरी रुचि थी। वे कोतवाल थे। उज्जैन की सेंट्रल कोतवाली, जिसकी दूसरी मंजिल पर माधवरावजी का आवास था, सर सेठ हुकुमचंद का महल था। वहाँ सुख सुविधा की कोई कमी नहीं थी। माधवरावजी कर्तव्यपरायण और न्यायनिष्ठ व्यक्ति थे। पुलिस विभाग में रहकर भी उन्होंने हमेशा परले दर्जे की ईमानदारी का ही परिचय दिया। वे महात्मा गाँधी के प्रसंशक थे और लोकमान्य तिलक के पत्र 'केसरी' के ग्राहक थे। वे बहुत अच्छे कथावाचक और दैनिन्दनी लेखक भी थे। उनका निधन मुक्तिबोध की मृत्यु के दिन ही हुआ।[2]
माधवराव की पत्नी एवं मुक्तिबोध की माँ पार्वतीबाई ईसागढ़ (बुंदेलखंड, शिवपुरी) के एक समृद्ध किसान-परिवार की थीं। वे छठी कक्षा तक शिक्षित थीं। वे भावुक और स्वाभिमानी थीं। हिंदी के प्रेमचंद और मराठी के हरिनारायण आप्टे उनके प्रिय लेखक थे। मुक्तिबोध के निधन के कुछ ही समय बाद इनका भी देहांत हो गया था।