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पटना। कहने को तो कहते है ग़ज़ल और बहुत लोग कहते हैं मगर लोग की कहता हूँ ग़ज़ल मैं। ये पंक्तियाँ सुनने में कवि की गर्वोक्ति लग सकती है, किंतु यह सत्य है कि हिन्दी और मगही के वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र करुणेश वर्तमान समय में सबसे बड़े हिन्दी ग़ज़ल-गो हैं। वही आत्म-प्रचार के इस दौर से बहुत दूर के कवि करुणेश आलोचकों की दृष्टि से प्रायः ओझल ही रहे हैं, किंतु दिनकर, नेपाली, जानकी वल्लभ शास्त्री, प्रभात, वियोगी, बच्चन आदि हिन्दी के महान कवियों के साथ मंच साझा करने वाला यह कवि, दुष्यंत के बाद हिन्दी का सबसे बड़ा ग़ज़ल-गो है। वही यह बातें शुक्रवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में स्तुत्य कवि पं बुद्धिनाथ झा की जयंती पर आयोजित पुस्तक-लोकार्पण समारोह एवं कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डॉ. अनिल सुलभ ने कही। डॉ. सुलभ ने कहा कि करुणेश जी की यह 12वीं काव्य-कृति है। जिसमें इनके 111 लोकप्रिय ग़ज़लों का संग्रह है। जिसमें रचनाकार की काव्य-प्रतिभा, शब्द-संयोजन, काव्य-कौशल और जीवन के विविध-पक्षों की मार्मिक अनुभूतियों को मधुर स्वर मिले हैं। करुणेश के शब्द अनुभूतियों और विचारों को इस तरह रखते हैं कि पाठक मुग्ध हो जाता है।
वही 1942 क्रांति के अग्र-पांक्तेय नायकों में एक महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता और साहित्यकार पं बुद्धिनाथ झा 'कैरव' को उनकी जयंती पर स्मरण करते हुए, डॉ. सुलभ ने कहा कि वे एक आदर्श राजनेता और स्तुत्य साहित्यकार थे। स्वतंत्रता पूर्व 1937 में बिहार विधान सभा के लिए हुए निर्वाचन में गोड्डा से विधायक चुने गए कैरव जी 1942 के आंदोलन में अंग्रेज़ी सरकार द्वारा गिरफ़्तार कर लिए गए थे और उन्हें भागलपुर सेंट्रल जेल में बंद रखा गया था। स्वतंत्रता के पश्चात वे 1957 तक विधान सभा के सदस्य रहे। किंतु पटना या देवघर में जिसे उन्होंने अपना कर्मक्षेत्र बनाया एक घर तक नहीं बना सके। राजनीति उनके लिए सत्ता-सुख की नहीं, सेवा और आत्म-सुख की साधन रही। वे साहित्य सम्मेलन के प्रचारमंत्री भी थे। आदिम जातियों के बीच हिन्दी के प्रचार में उनके योगदान को सदा स्मरण किया जाएगा। वे देवघर-विद्यापीठ के संस्थापक निबन्धक तथा महेश नारायण साहित्य शोध संस्थान, दुमका के अध्यक्ष थे।
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