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ज़िंदगी हो जाती है डांवाडोल, जब बिगड़ता है हार्मोन्स का खेल

Kajal Dubey
7 May 2023 2:19 PM GMT
ज़िंदगी हो जाती है डांवाडोल, जब बिगड़ता है हार्मोन्स का खेल
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तनाव और प्रकृति से तोड़ लिए गए रिश्ते ने जिस बेलगाम जीवन की नींव रखी है, उसने ही हमें तरह-तरह के अंधेरों की ओर खींचा है. पूरी बॉडी का कंट्रोल पैनल या स्विच बोर्ड कहे जाने वाले हाइपोथेलैमस से लेकर शरीर में केमिकल मैसेंजर की भूमिका निभानेवाले हार्मोन्स तक स्वास्थ्य का कोई न कोई सिरा किसी न किसी तरह से अंधेरों में घिरा है. ये मैसेंजर्स क्यों असंतुलित होते हैं और इन्हें कैसे संतुलित किया जाए जानने की कोशिश की फ़ेमिना ने.
हार्मोन तन की बस्ती के डाकिए हैं. एक तरह के संदेशवाहक. शरीर की एंडोक्राइन ग्लैंड्स में उत्पन्न होनेवाले ख़ास तरह के केमिकल्स जो एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक सिग्नल पहुंचाते हैं. वे न सिर्फ़ शरीर के विकास को प्रभावित करते हैं, बल्कि नर्वस सिस्टम की गतिविधियों को भी नियंत्रित करते हैं. वे मेटाबॉलिज़्म, सेक्स ड्राइव, रिप्रोडक्शन, मूड, वज़न, पाचन यहां तक कि मस्तिष्क और भावनाओं को भी प्रभावित करते हैं. जब हार्मोन रिलीज़ में असंतुलन होता है तो बॉडी का पूरा सिस्टम बिगड़ जाता है. इसीलिए स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है, हार्मोन्स का संतुलन बना रहे.
क्या होता है असंतुलन?
डॉ निरुपमा दीक्षित, गायनाकोलॉजिस्ट ऐंड ऑब्स्ट्रेटीशियन, जेके कैंसर संस्थान, कानपुर कहती हैं,“शरीर में किसी हार्मोन का बहुत ज़्यादा या बहुत कम होना हार्मोन इम्बैलेंस कहलाता है. आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी और तेज़ी से बदल रही जीवनशैली में ख़ासतौर पर अनियमित दिनचर्या, असंतुलित खानपान, प्रदूषण और मानसिक तनाव की वजह से पिछले दशक में हार्मोनल असंतुलन का ग्राफ़ काफ़ी तेज़ी से बढ़ा है. हालांकि आपकी ज़िंदगी में उम्र एवं परिस्थितिवश कुछ हार्मोन्स के रिलीज़ होने के अनुपात में थोड़ा उतार-चढ़ाव होना सामान्य बात है, लेकिन असामान्य रूप से हार्मोन का कम या ज़्यादा रिलीज़ होना स्वास्थ्य को प्रभावित करता है. हार्मोन्स का असंतुलन किसी को भी किसी भी उम्र में हो सकता है. पर एक बार अगर शरीर में हार्मोन असंतुलित हो गया तो यह आपकी पूरी लाइफ़ को उथल-पथल कर के रख देता है.”
डांवाडोल डायट
दिल्ली की डाइटीशियन अनुराधा सूदन इस बात से पूरा इत्तफ़ाक़ रखती हैं. उनका अनुभव कहता है कि आजकल हम जिस तरह की जीवनशैली और फ़ूड हैबिट्स फ़ॉलो कर रहे हैं, हार्मोन्स के गड़बड़ाने की पूरी-पूरी गुंजाइशें बनी हुई हैं. वे बताती हैं,“मेरे पास ऐसे-ऐसे पेशेंट्स आते हैं, जिनको अपने वज़न की चिंता तो है, पर वे तीन दिन बाहर का खाना खाए बिना नहीं रह सकते. ऐसे में हार्मोन्स तो प्रभावित होंगे ही. हाल ही में दो डायबीटिक पेशेंट मेरे पास आए, जिनकी उम्र थी तीन साल और डायबिटीज़ लेवल-चार सौ! पैकेट बंद चिप्स, कोल्ड ड्रिंक, फ़ास्ट फ़ूड की आदत उनको इस हालत में ले आई है. अब बच्चे समय से पहले मैच्योर हो रहे हैं. प्यूबर्टी समय से पहले हो रही है. 10-11 की उम्र में लड़कियों को पीरियड्स शुरू हो रहा है. 30 की उम्र में मेनोपॉज़ हो रहा है. आजकल वर्किंग पैरेंट्स अपना प्यार पैकेट बंद चिप्स, कोल्ड ड्रिंक, फ़ास्टफ़ूड के ज़रिए ज़ाहिर करते हैं, जो कि बच्चों के लिए क्या सबके लिए नुक़सानदेह है.”
कब होता है असंतुलन?
पिछले दिनों वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन ने मेंटल हेल्थ के गिरते स्तर को लेकर चिंताजनक आंकड़े दिए थे, उन आंकड़ों में भारत बेहद संवेदनशील स्तर पर खड़ा दिखाई दिया, ख़ासतौर पर महिलाएं. लेकिन महिलाएं ही क्यों? यही वो सवाल था जिसने साइकोलॉजिस्ट्स के सामने शोध की तमाम राहें खोल दीं. आज विश्वभर के साइकोलॉजिस्ट्स यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आधी आबादी जिन साइकोलॉजिकल समस्याओं से घिरी है, क्या उनके लिए हार्मोन्स ज़िम्मेदार हैं? अगर हां, तो कैसे? हाल्टरोफ़ मेडिकल ग्रुप द्वारा की गई एक सायकोलॉजिकल रिसर्च में कहा गया कि मेंटल हेल्थ और हार्मोन दोनों के बीच एक बारीक़ और गहरा रिश्ता होता है. इस रिसर्च ने साफ़तौर पर यह तथ्य प्रस्तुत किया कि ज़रूरी नहीं कि किसी महिला की बदहाल मेंटल हेल्थ के पीछे उसका अनियंत्रित दिमाग़ ही हो, इस बात की भी भरपूर संभावनाएं हैं कि उनकी असली बीमारी की जड़ें मन में नहीं, बल्कि हार्मोन में हों! बहुत-सी सायकोलॉजिकल स्टडीज़ ने यह निष्कर्ष दिया है कि हार्मोन के स्तर में बदलाव कुछ ख़ास तरह के मेंटल डिस्ऑडर्स की वजह बन सकता है.
मूड-चेंज का पहला दरवाज़ा है प्यूबर्टी: ज़्यादातर महिलाओं-पुरुषों में मूड चेंज का पहला एक्स्पोज़र उनकी प्यूबर्टी के दौरान होता है. प्यूबर्टी माने यौवन का आरंभ. स्वाभाविक रूप से यौवनकाल अपने दामन में बहुत-सा उत्साह लेकर आता है और लेकर आता है हार्मोन्स का ढेर सारा उतार-चढ़ाव. आमतौर पर इसकी वजह से टीनएजर्स के व्यवहार में थोड़ा-सा चिड़चिड़ापन देखने को मिलता है, लेकिन कई बार यह चिड़चिड़ापन किसी बड़े ख़तरे का अलार्म बन जाता है. सायकोलॉजिस्ट्स की मानें तो कुछ युवतियों के लिए प्यूबर्टी परमानेंट प्री-मेन्स्ट्रुअल सिंड्रोम (पीएमएस) बनकर रह जाता है. सायकोलॉजिस्ट्स का कहना है कि पीएमएस मूड-हार्मोन की वह चाबी है, जिसकी वजह से इन दिनों कुछ महिलाएं मंथली साइकिल के दौरान ख़ास तरह के मानसिक उथल-पुथल का सामना करती हैं. इस समस्या के पीछे न्यूट्रिशन, हार्मोनल इम्बैलेंस, आनुवांशिकी जैसी बहुत-सी वजहें काम करती हैं. हाल ही में मेंटल हेल्थ विशेषज्ञों ने पीएमडीडी यानी प्री-मेन्स्ट्रुअल डायस्फ़ोरिक डिस्ऑर्डर के बारे में अपने शोधों के ज़रिए ध्यान आकर्षित किया है. यह एक ऐसी स्थिति है जब हार्मोन्स का इम्बैलेंस महज़ ऐंग्ज़ाइटी का ही सबब नहीं बनता, बल्कि कई बार एसएडी यानी सीज़नल इफ़ेक्टिव डिस्ऑर्डर जैसे गंभीर क़िस्म के अवसाद की नींव भी रख देता है.
दूसरा दरवाज़ा है गर्भावस्थाः शोधकर्ताओं ने गर्भावस्था और उसके बाद के समय को मन और हार्मोन के जुड़ाव और पारस्परिक प्रभाव को समझनेवाली दूसरी कड़ी के रूप में चिन्हित किया है. उनके मुताबिक़ जहां कुछ महिलाएं प्रेग्नेन्सी के दौरान (विशेषतः पहली प्रेग्नेन्सी) डिप्रेशन का अनुभव करती हैं, वहीं कुछ प्रेग्नेन्सी के बाद (पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन) इस तरह की समस्या से रूबरू होती हैं. साइकोलॉजिस्ट्स का कहना है कि हालांकि मूड-चेंज की ये दोनों ही स्थितियां इन दिनों कॉमन हैं, लेकिन मौजूदा समय में पोस्ट प्रेग्नेन्सी डिप्रेशन ज़्यादा प्रभावी दिखाई दे रहा है. बच्चे के आने के बाद महिलाएं अपने जीवन में आए शारीरिक, सामाजिक, पारिवारिक और करियर संबंधी बदलावों को लेकर अवसाद ग्रस्त हो जाती हैं. उनके भीतर चल रहा नकारात्मक क़िस्म का भावनात्मक उतार-चढ़ाव बाहरी और भीतरी दोनों स्थितियों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है और बेशक़ इसमें हार्मोन की बिगड़ी हुई चाल अपना दमदार असर दिखाती है.
तीसरा दरवाज़ा मेनोपॉज़ः सामान्य तौर पर मेनोपॉज़ उम्र के पांचवें दशक में होता है, लेकिन इन दिनों पौष्टिक आहार की कमी, अत्यधिक तनाव और बिगड़ी हुई जीवनशैली की वजह से शरीर में जो हार्मोन्स का इम्बैलेंस दिखाई दे रहा है, उसके कारण मेनोपॉज़ अपने सामान्य समय से पहले हो रहा है. मनोवैज्ञानिक प्रीमिच्योर मेनोपॉज़ को डिप्रेशन का ख़ास कारण मान रहे हैं. अनियमित पीरियड्स और 45 से 50 की उम्र से पहले मेनोपॉज़ दोनों ही में ओवेरियन सिंड्रोम के बीज छिपे हो सकते हैं.
शरीर में एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन के घटने से आंशिक रूप से शारीरिक और मानसिक स्थिति में बदलाव हो सकता है, लेकिन मेनोपॉज़ की स्थिति जब 30 से 40 की उम्र में दिखाई देती है, तो स्वाभाविक रूप से चिंता और भय का सबब बन जाती है. ख़ासतौर पर महिलाएं अपने जल्दी बूढे़ होने को लेकर डर जाती हैं.
क्या-क्या हैं ख़तरे
प्रभावी उपचार के अभाव में हार्मोन इम्बैलेंस की वजह से अनेक तरह के रोगों की आशंका ज़ोर पकड़ लेती है, जैसे-डायबिटीज़, हाई ब्लड प्रेशर, हाई कोलेस्टरॉल, हृदय व गुर्दे संबंधी रोग, मोटापा, ऑस्टियोपोरोसिस, गर्भाशय व स्तन का कैंसर, अवसाद, गॉइटर आदि. इसके अलावा पीसीओएस की दशा में बांझपन, गर्भपात, गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज़, प्री-इक्लैम्पशिया, सेजेरियन सेक्शन, जन्म के समय शिशु का अत्यधिक वज़न होना जैसी तक़लीफ़ों का सामना करना पड़ सकता है.
जीवन की लगाम थामे रखते हैं ये 7 हार्मोन
1. कॉर्टिसोल: एड्रिनल ग्रंथि में पाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण हार्मोन है, जिसके असंतुलन से पैदा हो सकती हैं ये समस्याएं- नींद आना, चक्कर आना, नाख़ूनों का कमज़ोर होना, रक्त में शुगर की मात्रा का बढ़ना और वज़न का बढ़ना.
2. थायरॉइड: थायरॉइड ग्रंथि उस हार्मोन का निर्माण करती है जो शरीर के ऊर्जा के प्रयोग की कार्यविधि को प्रभावित करता है. उसकी कमी से डिप्रेशन, सुस्ती, कब्ज़, त्वचा का रूख़ापन, ज़्यादा नींद और बालों से जुड़ी समस्याएं, हो सकती हैं.
3. एस्ट्रोजन: एस्ट्रोजन का स्तर बिगड़ने से हृदय संबंधी बीमारियां, कैंसर, मूत्राशय में संक्रमण, डिप्रेशन, अनिद्रा, माइग्रेन, तेज़ी से वज़न का बढ़ना और पित्ताशय संबंधी रोग घेर सकते हैं.
4. प्रोजेस्टेरॉन: इसकी कमी से अनिद्रा, स्तनों में दर्द, वज़न बढ़ना, सिर दर्द, तनाव और बांझपन जैसी दिक़्क़तें हो सकती हैं.
5. टेस्टोस्टेरॉन: महिलाओं में टेस्टोस्टेरॉन ज़्यादा रिलीज़ होने से मुहांसे, पॉलिसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम, चेहरे और हाथ पर अत्यधिक बाल, हाइपोग्लाइसीमिया, बालों का झड़ना, बांझपन जैसी समस्याएं हो सकती हैं.
6. लेप्टिन: यह हार्मोन भूख को प्रभावित करता है. इसमे गड़बड़ी के कारण कम या ज़्यादा भूख की समस्या हो सकती है.
7. इन्सुलिन: इसी के कारण डायबिटीज़, थकान, अनिद्रा, कमज़ोर याददाश्त और तेज़ी से वज़न बढ़ना जैसी बीमारियां
हो सकती हैं.
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