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दिन इतनी तेज़ी से भाग रहे थे कि भागते-भागते हांफने लगे थे. दो घड़ी ठहरकर सांस लेने लगते तो रफ़्तार कम हो जाती और लगता कि कितना कुछ छूट गया है. कोई काम, कोई ज़िम्मेदारी मुंह बिसूरने लगती. ऐसे ही भागते-दौड़ते दिनों में कानों से टकराया था उदयपुर का नाम. जैसे जेठ की चिलचिलाती धूप में ठंडी हवा का एक झोंका छूकर गुज़रा हो. न किसी ने मुझे पहले से उदयपुर के क़िस्से सुनाए थे, न मैंने साहित्य के किसी टुकड़े को पढ़ते हुए इस शहर से राब्ता बनते महसूस किया था. इतिहास पढ़ते हुए शायद गुज़रा था यह नाम बिना किसी एहसास के सिर्फ़ एक चैप्टर की तरह. फिर क्या था ऐसा उस रोज़ इस नाम में कि दिल की धड़कनों को थोड़ा सुकून आया. हालांकि यह कोई यात्रा नहीं थी, सिर्फ़ गुज़रना भर था वहां से होकर लेकिन जाने क्या था कि दिल को राहत मिल रही थी. जैसे कोई अजनबी इंतज़ार में हो, जैसे किसी अनकहे में भरा हो जीवनभर का कहा, जैसे किसी के कांधे पर टिककर आ जाए एक टुकड़ा बेफ़िक्र नींद. एक बार एक दोस्त ने कहा था कि मैं हर आने वाले लम्हे का उत्सुकता से इंतज़ार करता हूं कि न जाने उसमें मेरे लिए क्या हो. मुझे भी अब ऐसा ही लगने लगा है. उदयपुर की पुकार को सहेजा और निकल पड़ी सफ़र पर. पूरे इत्मीनान के साथ सफ़र कटता रहा. रास्ते में मानव कौल के कहानी संग्रह ‘प्रेम कबूतर’ से दो कहानियां पढ़ीं. किस कहानी को कहां पढ़ा जाना है यह भी वो कहानी ख़ुद तय करके रखती हो शायद. इतने दिनों से सिरहाने रखे रहने के बाद महीनों बैग में घूमने के बाद आख़िर इन कहानियों ने चुना हवा में उड़ते हुए पढ़ा जाना.
वक़्त से पहले ठिकाने पर...
जब कहीं कोई इंतज़ार नहीं कर रहा होता तो अक्सर हम वक़्त पर या वक़्त से पहले पहुंच जाते हैं. उदयपुर भी वक़्त से थोड़ा पहले ही पहुंच गई. सलीम भाई कैब के ड्राइवर थे. उनसे बात करते हुए राजस्थान की ख़ुशबू ने घेर लिया. शहर को मैं हसरत से देख रही थी, इस उम्मीद से कि जाने वो मुझसे दोस्ती करेगा या नहीं. हवा में हल्कापन था, हालांकि देहरादून से जिस्म पर लदकर गई जैकेट बेचारी बड़ा अजीब महसूस कर रही थी कि यहां तो ठीक-ठाक गर्म था मौसम. शहर की हवा आपको बता देती है कि उसका आपको लेकर इरादा क्या है और मुझे इस शहर की हवाओं का मिज़ाज आशिक़ाना लगा. एयरपोर्ट से होटल पहुंचने के बीच मैं रास्तों से बातें करती रही, ख़ुद को उदयपुर की हवाओं के हवाले करती रही. इस बीच सलीम भाई बात करते रहे. वो उदयपुर के दीवाने लगे मुझे. यह जानकर कि मैं यहां पहली बार आई हूं शायद उन्होंने इस बात की ज़िम्मेदारी ले ली थी कि वो मेरी दोस्ती उदयपुर से करवा ही दें. उन्होंने बताया कि यह शहर बनास नदी के किनारे बसा है. यहां बहुत सारी झीलें हैं, बहुत सारे महल. उन्होंने महाराज उदय सिंह के क़िस्से भी सुनाए जिन्होंने इस शहर को बसाया था. सलीम भाई की गाड़ी मानो सड़क पर नहीं झील में नाव की तरह चल रही हो और उनकी बातें लहरों सी. कि यह शहर जादू करता है, जो यहां आ जाता है यहीं का हो जाता है. कि यहां के लोगों को किसी बात की हड़बड़ी नहीं, सब तसल्ली से जीते हैं. कि यहां भीड़ नहीं है, जनसंख्या भी तो बस 30 लाख ही है. सब पता है सलीम भाई को. वो चाहते हैं कि मैं पूरा उदयपुर देखूं, ख़ूब दिन यहां रुकूं और यहां का खाना खाऊं. होटल पहुंचने तक मैं सलीम भाई की ज़ुबानी जिस उदयपुर से मिल चुकी थी, उसे अपनी नज़र से देखने की इच्छा बढ़ती जा रही थी. खाना खाने में वक़्त जाया न हो कि मेरे पास वक़्त ही बहुत कम है इसलिए खाने की इच्छा और भूख दोनों को इग्नोर किया और चल पड़ी अकेले फ़तेह सागर झील से मिलने. सुखाड़िया सर्कल से महज़ दस रुपए देकर विक्रम में बैठकर तेज़ आवाज में राजस्थानी संगीत सुनते हुए फ़तेह सागर झील के किनारे जा पहुंची. थोड़ा रास्ता पैदल का था जो अतिरिक्त सुख था. यह पैदल चलना मेरा ख़ुद का चुनाव था. यह सुख लेना मैंने लंदन की सड़कों पर घूमते हुए सीखा है. किसी भी शहर से दोस्ती करनी हो तो पहले उस शहर की सड़कों को दोस्त बनाना होता है. पैदल चलते हुए शहर जितना क़रीब आता है, कैब में बैठकर नहीं आता.
गले लगाती झील
झील के किनारे पहुंचकर सबसे पहली अनुभूति हुई सुकून की, ठहराव की. मैंने झील को आदाब कहा उसने पलकें झपकाकर, मुस्कुराकर क़रीब बिठा लिया. हम दोनों के बीच लम्बा मौन रहा. इस सुकून की मुझे कब से तलाश थी. यह ठहराव, कब से चाहिए था. भागते-भागते पांव में छाले पड़ चुके थे, लेकिन उन्हें देखने की फ़ुर्सत तक नहीं थी. झील की ठंडी हवाओं ने उन तमाम जख़्मों को सहलाया तो मेरी पलकें नम हो उठीं. जैसे बाद मुद्दत मायके लौटी बेटी को मां की गोद मिली हो. जैसे प्रेमी ने माथा चूमते हुए और सिर पर हाथ रखकर कहा हो ‘मैं हूं न’. मैं अपलक उस शांति में थी. घूंट-घूंट उस शांति को पीते हुए.
अब तक निशांत आ पहुंचा था. निशांत हमारा देहरादून का साथी है. ‘क’ से कविता का साथी. वो उदयपुर में गांधी फ़ेलोशिप कर रहा है. उससे मिलने के बाद मुझे लगा कि उदयपुर पहुंचने के बाद से अब तक जो मेरे साथ हो रहा है, निशांत भी उसी गिरफ़्त में है. एकदम इश्क़ियाना. निशांत पूरे वक़्त उदयपुर की तारीफ़ में था. उसने पुराने उदयपुर से लेकर नए तक सब घुमाया. यहां के लोग, यहां की संस्कृति, मौसम, मिज़ाज, खाना, चाय, सुबह, शाम, पंछी, ऊंट, झीलें, महल सबके सब निशांत की बातों में बनारस के पान की तरह घुले थे. मैं उस पान का स्वाद ले रही थी, मुस्कुरा रही थी. ‘मैम यहां की शाम बहुत अच्छी होती है, यहां शांति बहुत है. यहां लोगों ने अपनी संस्कृतियों को ख़ूब सहेजा हुआ है. रोज़ शाम को कुछ न कुछ तो ज़रूर हो रहा होता है. यहां का खाना बहुत अच्छा होता है, थोड़ा तीखा होता है लेकिन स्वादिष्ट भी. यहां के जैसी चाय तो मैंने कहीं पी ही नहीं. यहां रह जाने का जी करता है...’ सच कहूं तो उसकी बाइक पर बैठकर उदयपुर घूमते हुए मुझे एक पल को भी नहीं लगा कि वो कुछ रत्ती भर भी ज़्यादा तारीफ़ कर रहा है. उसकी बातों में जो उदयपुर था और मेरे सामने जो उदयपुर था दोनों ने मिलकर मुझे अपने इश्क़ की गिरफ़्त में ले लिया था. निशांत मुझे सिटी पैलेस और पिछोला झील देखने के लिए छोड़कर चला गया शाम को फिर मिलने आने के लिए.
भीड़ में मिली सुकून की नींद
मैं अब सिटी पैलेस में थी. महलों की भव्यता में एक क़िस्म का गर्वीलापन शामिल रहता है. बड़े-बड़े क़िले, महल मुझे ज़्यादा रास नहीं आते, लेकिन सिटी पैलेस की भव्यता में एक क़िस्म की सादगी भी दिखी मुझे. यह भव्यता आपको आक्रांत नहीं करती, आपसे दोस्ती करती है. मैं महल में घूमती फिर रही थी. यहां के दरो-दीवार से मुख़ातिब. कोई जल्दी नहीं थी. किसी के मूड का ख़्याल नहीं रखना था. कहीं भी बैठ जाती थी, देर तक बैठी रहती फिर चल पड़ती. मैं असल में हवा को महसूस कर रही थी.
फिर पिछोला झील का किनारा मिला. शांति का चरम था यह. न कोई भीड़, न कोई हल्ला. सामने लहराती ख़ूबसूरत झील और किनारे असीम शांति. देर तक उसे निहारती रही. फिर वहीं बैठ गई पहले कुर्सी पर फिर ज़मीन पर. ठंडी हवा के झोंके मन की थकान भी मिटा रहे थे. जो कभी नहीं हुआ वो पिछोला झील ने कर दिखाया कि थपकी देकर अपने कांधे पर सिर रखकर सुला लिया. दिन में यूं बाहर अकेले अनजाने लोगों के बीच अनजानी जगह मैं सो भी सकती हूं कभी सोचा नहीं था. कब नींद आई पता ही नहीं चला. जब नींद खुली तो ख़ुद को थकान से आज़ाद पाया.
वहां से लौट रही थी बिल्कुल ताज़ा और तनाव मुक्त होकर. शाम निशांत के इश्क़ के क़िस्सों के नाम और उदयपुर की स्पेशल चाय के नाम रही. आलू के परांठों के नाम भी. निशांत फिर से उदयपुर के क़िस्से सुना रहा था. यहां ये बहुत अच्छा है, यहां वो बहुत अच्छा है. आप रुकतीं तो वहां ले जाता आपको. वो जहां ले जाना चाहता था उन जगहों के विवरण और उनसे उसका लगाव मुझे वहां ले जा चुका था, यह वो नहीं जानता था. जैसे कोई आशिक अपनी महबूबा के बारे में हर वक़्त बात करना चाहता है और बात करते हुए उसके चेहरे पर जो ख़ुशी होती है वैसी ही ख़ुशी थी निशांत के चेहरे पर. उत्तराखंड के अगस्त्यमुनि की सुंदर वादियों में पला-बढ़ा, देहरादून में अपनी वैचारिकी निखारता यह लड़का आख़िर उदयपुर के इश्क़ में यूं ही तो नहीं पड़ा होगा.
कुल्हड़ वाली चाय
यात्राओं में अक्सर अच्छी चाय न मिलना बेहद अखरता है. ज़्यादातर अच्छी चाय के नाम पर ढेर सारा दूध, और शक्कर वाली चाय मिल जाती है, लेकिन यहां कुल्हड़ में जो मिली स्वादिष्ट चाय तो दिल ख़ुश हो गया. एक के बाद एक तीन चाय पी हमने. ख़ूबसूरत रात, हल्की झरती ठंड जिसके लिए सिर्फ़ गुलाबी शॉल काफ़ी था के साये में पैदल घूमना... दिन बीत गया था. सुबह अल्लसुबह हमें सिरोही के लिए निकलना था. लेकिन सच यह है कि मैं अब भी उदयपुर में ही हूं. उन्हीं गलियों में कहीं, वहीं फ़तेह सागर झील के किनारे बैठी हुई, सिटी पैलेस में टेक लगाये हुए, पिछोला झील के किनारे सोई हुई या चाय की गुमटी पर चाय पीती हुई...
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