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पोस्टमॉर्टम के बाद शरीर सिलने की जरूरत नहीं समझी गई 'कडावर' में

Neha Dani
18 Aug 2022 7:47 AM GMT
पोस्टमॉर्टम के बाद शरीर सिलने की जरूरत नहीं समझी गई कडावर में
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जिस वजह से सब कुछ उघड़ा हुआ है. फिल्म फिर भी देखने लायक है. उम्मीदें थोड़ी कम रखनी होंगी बस.

Detail Review: कल्पना कीजिये, पोस्टमॉर्टम किया जा रहा है. शव ऑपरेटिंग टेबल पर है. फोरेंसिक डॉक्टर ने शरीर को चीरा लगाकर, सभी आतंरिक अंगों की जांचकर के शव को बिना सिले ही छोड़ दिया है. उस शव का सब कुछ छिन्न भिन्न है और अंग बिखरे हुए हैं. इस वीभत्स दृश्य की कल्पना करने से ही डर लगता है, घिन आती है क्योंकि काम पूरा नहीं किया गया. यही भावना आपके मन में जन्म लेती है जब आप अनूप पणिकर द्वारा निर्देशित फिल्म 'कडावर' देखते हैं, क्योंकि जो एक अच्छी फिल्म बन सकती थी, वो फिल्म ऐसी अजीबोगरीब तरीके से बनाकर बीच रास्ते में छोड़ दी गई है. शुरुआत के सीन से ही ऐसा लगने लगता है कि फिल्म से आप निराश होंगे, फिर कहानी थोड़ी गति पकड़ती है तो लगता है कि इन्वेस्टीगेशन में अब मजा आएगा, और फिर आधी फिल्म होते-होते दर्शक भी समझ जाते हैं कि ये कहानी कहां जाकर रुकेगी.


इतनी देशी विदेशी फिल्में देखकर अब तो दर्शक भी समझदार हो गए हैं कि वे कहानी का पूर्वानुमान लगा लेते हैं. कडावर एक अच्छी मर्डर मिस्ट्री बन सकती थी, लेकिन फार्मूला घुसाने के चक्कर में फिल्म ने अपनी खासियत से ही समझौता कर लिया. फिल्म की स्क्रिप्ट ज़रूर अच्छी लगी होगी, लेकिन जो फिल्म बनी है वो किसी तरह का इमोशनल बॉन्ड बना ही नहीं पाती, इसलिए कोई जिए या मरे, हमें क्या वाली हालत में फिल्म ख़त्म होती है.

कोई भी फॉरेंसिक डॉक्टर या जासूस अपनी भाव भंगिमाओं से बीबीसी की सीरीज शरलॉक के मुख्य अभिनेता बेनेडिक्ट कमरबैच की तरह अत्यंत ही तेज़ तर्रार और ऐसे क्लू ढूंढने वाला होता है, जो कि आम जांचकर्ता अक्सर छोड़ देते हैं. डॉक्टर भद्रा (अमला पॉल) को भी ऐसा ही किरदार दिया है लेकिन वो ज़्यादातर समय एक सामान्य जांच करने वाले की तरह ही व्यवहार करती है. शहर के असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ़ पुलिस विशाल (हरीश उथमन) एक मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने की कोशिश में फॉरेंसिक डॉक्टर भद्रा को केस में जोड़ते हैं.

जांच में पता चलता है कि कहीं न कहीं एक सज़ायाफ्ता मुजरिम वेट्री (अरुण अदित) इसके पीछे हैं. जेल में बंद रहने के बावजूद वेट्री, एक और शख्स का क़त्ल कर देता है. वेट्री की मदद कौन कर रहा है इसकी तलाश में पुलिस और भद्रा, दोनों ही लग जाते हैं और एक एक करके रहस्य की परतों को खोला जाता है. यहां कहानी में सबसे बड़ा ट्विस्ट आता है. इस ट्विस्ट को लाने के लिए पूरी फिल्म की रचना की गयी है. इस ट्विस्ट को छोड़ दें तो पूरी फिल्म लगभग प्रेडिक्टेबल है. पटकथा अभिलाष पिल्लई की है जिन्होंने इसके पहले नाईट ड्राइव नाम की फिल्म लिखी थी. नाईट ड्राइव में भी पूरे एंटरटेनमेंट से थोड़ा कम रह गया था. यही बात कडावर में भी है.

अमला पॉल फिल्म की प्रोड्यूसर भी है और मुख्य अभिनेत्री भी इसलिए पूरा फोकस उन्हीं पर रखा गया है जो कि इस तरह की सस्पेंस फिल्मों में थोड़ा गैरवाजिब लगता है. क़त्ल किसने किया इसकी तलाश में कई ऐसे लोगों पर शक जाता है जो कि कातिल हो सकते हैं, ये वाला हिस्सा इस मर्डर मिस्ट्री में बड़ा ही छोटा सा है. बहुत जल्द ही समझ आ जाता है कि क़त्ल करने वाला कोई जानकार शख्स है जिसे फॉरेंसिक का ज्ञान है. अमला अच्छी अदाकारा हैं लेकिन वो बेस्ट नहीं हैं. कहीं कहीं उनके चेहरे पर गुस्से के अंश नज़र आ जाते हैं जो कि मिस्ट्री को ख़त्म करने के लिए काफी हैं.

इतनी लम्बी फिल्म अकेले ढोना मुश्किल काम है लेकिन अमला ने इस बात को ज़ाहिर नहीं होने दिया है. अरुण अदितने जेल के अंदर के सभी सीन्स में कमाल का काम किया है. उनकी अभिनय क्षमता का सही इस्तेमाल इन्हीं दृश्यों में हुआ है. फिल्म के क्लाइमेक्स सीन में उन्हें ज़िन्दगी का नया मकसद मिलता है तो वो कैसे अपने आप को रोक नहीं पाते, ये दृश्य दिल को छू जाता है. काली के किरदार में विनोद सागर की आंखों में करुणा और खूंखार रस एक साथ तैर रहे होते हैं. विनोद इसके पहले नायट्टू और जनगणमन में नज़र आये थे. इनको और काम मिलना चाहिए ऐसा लगता है. हरीश उथमन का काम भी अच्छा है, लेकिन उनके किरदार में थोड़ी फ़िल्मी झलक नज़र आती है और वो इस तरह की फिल्म में चुभती है.

निर्देशक अनूप पणिकर की यह पहली फिल्म है इसलिए उन्होंने अभिलाष पिल्लई की पटकथा जो स्क्रीन पर जस का तस उतार दिया है जो कि कठिन तो हैं ही मगर सराहनीय भी है. अनूप संभवतः इस जॉनर की फिल्में बनाते रहें तो उनका काम और परिपक्व व होते जाएगा. बैकग्राउंड म्यूजिक एकदम माकूल है, हर सीन के हिसाब से फिट बैठता है और कहीं भी इतना तीखा नहीं है कि चुभने लग जाए. रंजिन राज के संगीत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि वो भी सीन को और रहस्यमयी रंग देने में सफल हुए हैं. प्रोडक्शन डिज़ाइनर सरताज सैफी की तारीफ सबसे ज़्यादा करनी होगी क्योंकि मोर्चरी यानि शवगृह के हर दृश्य को उन्होंने लगभग सजीव ही बना दिया है. फिल्म के दूसरे भाग के दृश्यों में मोर्चरी भी खतरनाक लगने लगती है. फिल्म में जो गलतियां हैं वो मज़ा कम कर देती हैं.

फिल्म लगभग प्रेडिक्टेबल है. अब दर्शकों को पहले ही पता होता है कि मिस्ट्री फिल्म है तो वो शख्स कातिल होगा जिस पर सबसे कम शक की गुंजाईश होगी. पोस्ट मॉर्टम के दृश्यों में कुछ कुछ तथ्यात्मक भूल हैं जिन्हें रोका जा सकता था. इस फिल्म के कुछ कुछ हिस्से में तो मर्डर मिस्ट्री का मज़ा है लेकिन बाकी सब बोरिंग हो जाता है. हर शख्स की बैकस्टोरी आपस में जुडी होती है और यहां लेखक से गलती हो जाती है. कातिल के मन में क़त्ल करने की वजह का आना बहुत ही हलके ढंग से समझाया गया है. इसलिए ऐसा लगता है कि पोस्ट मॉर्टम तो किया गया लेकिन बॉडी को फिर से सिला नहीं गया है जिस वजह से सब कुछ उघड़ा हुआ है. फिल्म फिर भी देखने लायक है. उम्मीदें थोड़ी कम रखनी होंगी बस.


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