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इसलिए अगर आपके पास तीन घंटे का समय हो और कोई अन्य विकल्प न तो यह फिल्म देख सकते हैं.
कई साल पहले आई शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर का डायलॉग आपने सुना होगा कि हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं. यहां आप उसे कर लीजिए कि हार कर जीतने वाले को जादूगर कहते हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि नेटफ्लिक्स पर रिलीज यह हुई फिल्म जादू नहीं जगा पाती. ऐसा लगता है कि फिल्म में एडिटर था ही नहीं और राइटर-डायरेक्टर भी नहीं जानते थे कि इस कहानी की औसत लंबाई क्या हो. पंचायत वाले सचिवजी उर्फ जितेंद्र कुमार की यह फिल्म कुछेक जगहों पर जरूर इमोशन पैदा करती है, लेकिन उसे जादू नहीं कहा जा सकता.
पहले एक शर्त, बाकी बातें बाद में
फिल्म जादूगर में तीन चीजें मिक्स हैः जादू, रोमांस और फुटबॉल. मीनू (जितेंद्र कुमार) जादूगर है. उसकी अपनी दुनिया है. वह मोहल्ले में रहने वाली लड़की इच्छा से प्यार करता है, लेकिन इच्छा उसे समझा देती है कि वह उसके साथ अपना भविष्य नहीं देखती. इधर इच्छा जाती है और उधर मीनू की लाइफ में दिशा (आरुषि शर्मा) आती है. दिशा आंखों की डॉक्टर है. मीनू और दिशा की आंखें चार होती हैं लेकिन अलग समस्या है. दिशा की लव मैरिज और डिवोर्स हो चुका है. अब वह पिता (मनोज जोशी) की इच्छा से अगला जीवन साथी चुनना चाहती है. जादू और प्यार के साथ यहां फुटबॉल मीनू की जिंदगी में आती है. मध्य प्रदेश के नीमच शहर में मीनू रहता है और वहां हर साल एक फुटबॉल टूर्नामेंट होता है. मीनू का अतीत फुटबॉल से जुड़ा है. दिशा के पिता शर्त रखते हैं कि मीनू पहले अपने मोहल्ले की टीम को लोकल फुटबॉल टूर्नामेंट के फाइनल तक पहुंचाए. बाकी बातें बात में होंगी.
वेब सीरीज जैसी कहानी
जिन ऐक्टरों ने इधर ओटीटी पर पहचान बनाई है, उनमें जितेंद्र कुमार का नाम सबसे ऊपर है. कोई उन्हें ओटीटी का अमोल पालेकर बता रहा तो कोई स्ट्रीमिंग की दुनिया का राजकुमार राव. जादूगर में जितेंद्र दोनों ही नहीं लगते. वह पंचायत के सचिव ही बने रहे हैं. एक्टिंग में कोई वैरायटी नहीं है. कहानी की मुश्किल यह है कि उसकी लंबाई वेब सीरीज जैसी है और ट्रीटमेंट भी. फुटबॉल का ट्रेक अलग है, लव का ट्रेक अलग और जादू का रास्ता अलग. इन सबके बीच फिल्म धीमी रफ्तार से चलती है और नतीजा यह कि आपको इसे देखने में करीब पौने तीन घंटे खर्च करने पड़ते हैं. आप चाहें तो फिल्म को फास्ट फॉरवर्ड मोड में देख सकते हैं या फिर जंप कर-कर के. ऐसा करेंगे तब भी बीच में कुछ मिस नहीं करेंगे.
न नफरत दिखती है, न जुनून
जितेंद्र का अंदाज भले देखाभाला हो लेकिन यहां उनके चाचा के रूप में जावेद जाफरी कुछ दृश्यों में बढ़िया लगे और दिशा बनी आरुषि का परफॉरमेंस अच्छा है. गीत-संगीत औसत है. कैमरावर्क अच्छा है. फिल्म में जादू और फुटबॉल मैचों के दृश्य अच्छे से शूट किए गए हैं लेकिन मुश्किल यह कि इन्हें सेंटर में रखते हुए भी राइटर-डायरेक्टर ने जितेंद्र पर फोकस रखा. जादू को जितेंद्र एक स्तर तक ही कर पाते हैं और उसमें आगे बढ़ने का कोई जुनून उनमें नहीं दिखता. साथ ही कहानी में न तो फुटबॉल से उनकी नफरत ही ठीक से उभरती है और न ही जब वह मैदान में उतरते हैं तो ढंग से खेलते दिखाए गए हैं. मोहल्ले की फुटबॉल टीम कैसे होगी, यह आप समझ सकते हैं. किसी की दुकान है, तो किसी की नौकरी. कोई गृहस्थ है. कोई आवारा. इन किरदारों पर जितना ध्यान दिए जाने की जरूरत थी, उतनी यहां नहीं दिखती. फिल्म में राइटिंग के कसावट के साथ अच्छी एडटिंग की जरूरत थी, जिसका जादूगर में पूरी तरह अभाव है. इसलिए अगर आपके पास तीन घंटे का समय हो और कोई अन्य विकल्प न तो यह फिल्म देख सकते हैं.
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