- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- अमूर्तन की दुनिया
Written by जनसत्ता: स्कूली बच्चों की बात करें तो स्कूल जाने वाले बच्चे सप्ताह में उतनी नींद खराब कर रहे हैं, जितने समय वे सोशल मीडिया पर व्यतीत करते है। समाचार पत्र के समाचार के आधार पर सोशल मीडिया के कारण बच्चे सप्ताह भर में एक रात के बराबर नींद नहीं ले पाते! डी मोंट फोर्ट विश्वविद्यालय, लेस्टर इंग्लैंड के एक अध्ययन में पाया गया है कि दस साल के बच्चे, जो सोशल मीडिया का अधिक उपयोग करते हैं, औसतन रात में केवल साढ़े आठ घंटे की नींद ही ले पाते हैं। जबकि दस साल के आयु के बच्चों को औसत नौ से बारह घंटे सोने की सलाह दी जाती है। विचारणीय है कि बच्चों में सोशल मीडिया का जुनून इस कदर हावी है कि न तो उनको रात की नींद की परवाह है और न ही सेहत की चिंता।
स्वाभाविक है कि पूर्ण नींद के अभाव में बच्चों में चिड़चिड़ापन आ जाता है और सेहत पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शोधकर्ता डाक्टर जान शा के मुताबिक कि 69 फीसद बच्चों ने कहा कि वे दिन में चार घंटे से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर व्यतीत करते हैं। स्कूली बच्चों पर किये गए शोध में पाया गया कि सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया साइट वीडियो साझा करने वाला ऐप 'टिक-टाक' है। शोध में शामिल 89 फीसद बच्चों ने इसका इस्तेमाल किया था।
कुछ भी हो, सोशल मीडिया का बच्चों की मानसिकता पर इतना हावी होना कहीं न कहीं चिंतनीय है। इसमें कोई दो मत नहीं कि दिन बच्चों मे यह लत के समान होती जा रही है। अत्यधिक मोबाइल का उपयोग और सोशल मीडिया की करीबी से बच्चों को आंखों की समस्या, भूख न लगने की समस्या आम होती जा रही है। अमेरिका मे 19 फीसद युवाओं को इसका असर लत के तौर पर देखा गया।
रिसर्च के अनुसार अमेरिका में हर पांचवें युवा ने, यानी लगभग 19 फीसद ने साल भर के भीतर किसी न किसी तरह के खेल मे पैसा लगाया और इसमें वे अधिकतर आनलाइन सट्टेबाजी के शिकार भी हुए। यानी सोशल मीडिया बच्चों के लिए सार्थकता भरा कम, बल्कि भटकाव की परिस्थिति ज्यादा निर्मित कर रहा है। अभिभावक, माता-पिता और जवाबदेही और हम सबको सोशल मीडिया की उपयोगिता और करीबी के घातक प्रभाव को बताना होगा। समय के अनुसार उपयोग और भरपूर नींद लेने के लिए प्रेरित करना होगा। बच्चों को भी अपनी जवाबदेही समझनी होगी कि सोशल मीडिया से दैनिक दिनचर्या और सेहत पर बुरा प्रभाव नहीं हो। इसलिए सकारात्मक नीति का निर्माण करना होगा।
हाल में लगातार दुनिया के कई इलाकों से लगातार भूकम्प आने की खबरें आ रही हैं। देखा जाए तो पिछले वर्ष हिमालय क्षेत्र में और विदेश में आए भूकम्प की तीव्रता अधिक थी। हिमालयन प्लेट में भूकम्प का खतरा बना रहता है। पूर्व में आए जापान में शक्तिशाली भूकम्प झटके से कम ऊंचाई की सुनामी, परमाणु संयंत्र की कूलिंग सिस्टम की गतिविधियों पर असर पड़ा था, लेकिन कोई भी हताहत नहीं हुआ, क्योंकि वहां पर भूकम्प से संभलने की प्रणाली लगी है।
भूगर्भ वैज्ञानिकों के शोध के अनुसार हिमालयन प्लेट के संधि स्थल पर सर्वाधिक दबाव बन रहा है। उनका मानना है कि जब कभी भूगर्भीय संरचना मे तेजी से हो रहे बदलावों के कारण धरती मे से उष्मा उत्सर्जित होकर निकलती है, तो वह भी भूकम्प आने का एक लक्षण दर्शाती है। हिमालयन प्लेट क्षेत्र एवं भूकम्प प्रभावित क्षेत्र में भूकम्प के खतरे को देखते हुए अभी से प्रयास प्रारंभ कर देना चाहिए। इन प्रयासों से भूकम्प को रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन उसकी विनाशक क्षमता को तो कम किया जाकर जानमाल की हानि में कमी की जा सकती है। इसके लिए सभी प्रदेशों में भूकम्प अवरोधी संरचनाओं और अन्य कोशिशों पर ध्यान देकर भूकम्प के झटके सहन करने वाला क्षेत्र बनाया जाना चाहिए।