सम्पादकीय

World Hearing Day 2022: महंगा और कम उपलब्धता के बावजूद भी कॉक्लियर इम्प्लांट डिमांड में

Gulabi
4 March 2022 6:58 AM GMT
World Hearing Day 2022: महंगा और कम उपलब्धता के बावजूद भी कॉक्लियर इम्प्लांट डिमांड में
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विश्व स्वास्थय संगठन के अनुसार, 63 मिलियन भारतीय सुन नहीं सकते
शालिनी सक्सेना।
विश्व स्वास्थय संगठन (WHO) के अनुसार, 63 मिलियन भारतीय सुन नहीं सकते. जन्मजात बहरेपन (Deafness) से पीड़ित बच्चों में कॉक्लियर इम्प्लांट (Cochlear implant) किया जाता है, वयस्कों में इसका उपयोग तब होता है, जब किसी चोट या बीमारी की वजह से उन्हें सुनाई देना बंद हो जाता है. ऑपरेशन द्वारा ये इम्प्लांट किया जाता है ,सर्जरी के बाद मरीज़ को स्पीच थेरिपी (Speech Therapy) दी जाती है. नेशनल सैंपल सर्वे के ऑफिस सर्वे के मुताबिक़, भारत में, एक लाख व्यक्तियों में से 291 लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं. इनमें से एक बड़ा हिस्सा नवजात शिशुओं से लेकर 14 साल तक की उम्र के बच्चों का है. इस कमज़ोरी की वजह से ये युवक शारीरिक और आर्थिक रूप से पिछड़ जाते हैं. ध्यान देने वाली बात ये है, कि इनमे से ज़्यादातर लोगों की इस समस्या का कारण बेहद मामूली होता है.
क्यूआरजी सुपर स्पेशलिटी अस्पताल फरीदाबाद, के ईएनटी हेड और नेक सर्जरी के निदेशक एचऔडी डॉ अनिल ठुकराल ने TV9 को बताया कि कॉक्लियर इम्प्लांटर एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है, जो बहरे रोगियों की सुनने की क्षमता को बेहतर बनाता है. डॉ ठुकराल समझते हैं, कि ओपरेशन द्वारा इसे कान के ठीक पीछे लगाया जाता है. इसे कॉक्लियर में डाला जाता है. जिससे वो सही तरह से काम करने लगता है इम्प्लांट का दूसरा हिस्सा, इसका प्रोसेसर होता है, जिसे कान के पीछे पहनना होता है, इस तरह ये दोनों हिस्से आपस में कनेक्ट हो जाते हैं , प्रोसेसर ध्वनि प्राप्त करता है,और कॉक्लियर में लगे इम्प्लांट को भेजता है, ध्वनि तंत्र के माध्यम से दिमाग़ में ट्रांसफर करता है, और ये इंप्लांट साउंड एनर्जी को इलेक्ट्रिकल एनर्जी में बदल कर ,इसे मस्तिष्क में भेजता है, जो फिर से साउंड एनर्जी में बदल देता है. इस तरह जन्मजात बहरे व्यक्ति भी इस प्रतियारोपण के बाद सुन सकते हैं.
किन मरीज़ों को इसका फायदा हो सकता है
इस तरह के इम्प्लांट का इस्तेमाल खासतौर पर जन्म से बहरे बच्चों के लिए किया जाता है, लेकिन अब वयस्कों के लिए भी इसका उपयोग किया जाने लगा है, जो किसी भयंकर चोट या बीमारी के कारण अपने सुनने कि शक्ति खो चुके हैं. भारत में इलाज तक़रीबन पांच लाख रूपए से शुरू होता है, लेकिन अच्छी बात ये है, कि सरकार कुछ जन्मजात बहरे बच्चों का इलाज मुफ्त करती है.
महंगा इलाज और कम उपलब्धता एक चुनौती है.
डॉ ठकुराल का कहना है कि इस इलाज के महंगा होने कि वजह से काफी लोग इसे करवाने में असमर्थ हैं, हालंकि सरकार इसके इलाज के लिए कुछ योजनाएं चलती है. फिर भी इस उपकरण की कमी के कारण कम लोगों को इसका फायदा मिल पाता है. दूसरे इस प्रक्रिया को ऑपरेशन के द्वारा किया जाता है, और बाद में कुछ महीनो के लिए स्पीच थेरेपी से गुज़ारना पड़ता है, जिससे नवजात बच्चों के लिए ये प्रक्रिया कठिन हो जाती है, भारत के दूरदराज़ इलाक़ों और छोटे शहरों में सर्जिकल और स्पीच थेरेपी की सुविधाएँ नहीं हैंं. कॉक्लियर इम्प्लांट उन मरीज़ों के लिए भी उपयोगी नहीं है, जिनमें कॉक्लियर नर्व, जन्म से या किसी एक्सीडेंट की वजह से नहीं है , इस तरह के मरीज़ों के लिए ब्रेनस्टेम इम्प्लांट ज़्यादा कारगर हैै, जिसमे ब्रेनस्टेम ,ऑपरेशन के द्वारा मस्तिष्क के अंदर लगाया जाता है.
इस इलाज में डॉक्टरों से सामने एक और चुनौती होती है. वो ये, कि इस सर्जरी के दौरान कॉक्लियर पूरी तरह नष्ट हो जाती है, जिससे भविष्य में इसके इस्तेमाल कि गुंजाईश नहीं रहती. अगर आने वाले समय में इस तरह कि मृत कॉक्लियर को ठीक करने की कोई तकनीक आ जाती है, तो फिर रोगी के लिए किसी काम कि नहीं होगी , इसलिए डॉ. सिर्फ एक ही कान में की सलाह देते हैं.
इम्प्लांट की अवधि
आमतौर पर ये इम्प्लांट रोगी के पूरे जीवनकाल तक रहता है ,ये तकनीक 20 -25 साल पुरानी है, इसके दूरगामी परिणाम देखने की अभी ज़रूरत है ,समय के साथ तकनीक में बदलाव होता रहता है ,लेकिन डॉ ठकुराल का मानना है, कि वर्त्तमान विकलांगों का जीवन जीने वाले बघिर बच्चों में ये तकनीक वरदान के समान है.
हियरिंग ऐड और कॉक्लियर इम्प्लांट के बीच अंतर
डॉ ठकुराल बताते हैं कि जिन मरीज़ों में हियरिंग एड सफल नहीं हो पाती है, तब ही इम्प्लांट का सहारा लिया जाता है, और ये सिर्फ तब ही सफल होता है, जब कॉक्लियर काम कर रहा होता है, जिससे ये ध्वनि तरंगों को ध्वनि तंत्र तक भेज सके. जबकि हियरिंग ऐड सिर्फ सामान्य धवनि को बढ़ता है, और इसे कान के बाहर पहना जाता है.
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