- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- World AIDS Vaccine Day...
x
एड्स की बातों की शुरूआत एक सच्चे दर्दनाक किस्से से. यह किस्सा एड्स के बहाने बताता है
शकील खान
विश्व एड्स दिवस ! अरे ये तो 01 दिसम्बर को मनाया जाता है, आज तो 18 मई है. जी, 18 मई को ' वर्ल्ड एड्स डे' नहीं 'वर्ल्ड एड्स वैक्सीन डे' है. वेक्सीन डे ! एड्स की वैक्सीन कब बन गई ? जी नहीं, वैक्सीन अभी बनी नहीं है लेकिन एचआईवी (Human Immunodeficiency Virus) संक्रमण के लगातार बढ़ते जाने और मरने वालों के प्रति शोक प्रकट करने के लिए तथा एड्स (Acquired Immune Deficiency Syndrome) के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए यह दिन मनाया जाता है. अब यह तो अलग से नहीं बताना पड़ना चाहिए कि एड्स एक बहुत ही खतरनाक और घातक बीमारी है. अगर इसके लिए 365 में से दो दिन डिसाईड हो गए तो कोई गलत तो नहीं हुआ न.
एड्स की बातों की शुरूआत एक सच्चे दर्दनाक किस्से से. यह किस्सा एड्स के बहाने बताता है कि स्वर्ग नर्क अपनी जगह हैं करनी का फल यहीं भोगना पड़ता है और गरीब की आह कभी खाली नहीं जाती. ये गरीब अगर एक मजबूर औरत है तो बिलकुल भी खाली नहीं जाती. तारीख याद नहीं है बस इतना भर याद है साल-डेढ़ साल पुराना किस्सा है. किस्सा यूं है. एक महिला के पति की किसी कारण से मौत हो जाती है. मृतक अपने पीछे जवान बीवी और बच्चे छोड़ जाता है. बीवी बच्चे स्वाभाविक रूप से सरकार से सहायता की आस लगाते हैं. शासन की कुछ योजनाएं उनकी मददगार हो सकती हैं. महिला मदद की आस में सरकारी ड्योढ़ी पर दस्तक देती है. जहां उसका सामना भ्रष्ट नौकरशाही से होता है. सरकारी काम बिना वजन रखे होता नहीं और महिला के पास देने को फूटी कौड़ी नहीं है. लेकिन नौकरशाही इतनी निष्ठुर भी नहीं कि पैसे नहीं होंगे तो काम होगा ही नहीं. रास्ते निकालने में माहिर नौकरशाह और उनके कारिंदे महिला के सामने एक प्रस्ताव रखते है, उसे बताते हैं कि क्या हुआ जो उसके पास पैसे नहीं हैं. लेकिन खूबसूरत जिस्म की मालकिन तो वो है न. सो रिश्वत के नाम पर अपना जिस्म परोस दे. काम हो जाएगा, भरपूर सरकारी मदद मिलेगी और उसका और उसके बच्चों का जीवन सहज हो जाएगा. पहले तो महिला तैयार नहीं होती लेकिन बाद में 'मरता क्या न करता' के अंदाज़ प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है.
बाबू, बड़े बाबू, छोटे साहब और बड़े साहब सब इस सौदे में शामिल होते हैं. नंबर दो के कामों में ज़बान की बड़ी कीमत होती है, सो महिला के काम भी हो जाते हैं. कुछ समय बीतता है. महिला पर नई मुसीबत आ जाती है. वो बीमार पड़ जाती है. जांच होती है तो पता चलता है वो एचआईवी पाजि़टिव है. बात फैलती है तो बाबू और साहबों तक पहुंचती है. घबराकर सब जांच कराते हैं पता चलता है उन्हें भी एड्स है. इस घिनौने जुर्म की इससे बड़ी सज़ा क्या हो सकती है ?
बात फिल्मी भी कर लेते हैं. 'भूरी' 2016 में रिलीज़ हुई फिल्म है. महिलाओं के शोषण पर केन्द्रित यह फिल्म ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित है. इसका कथानक यूनिक, रोचक और मार्मिक है. तेईस वर्ष की गरीब 'भूरी' की खूबसूरती ही उसके लिए अभिशाप है, उसकी सबसे बड़ी दुश्मन भी यही सुंदरता है. उसकी तीन शादी हुई थी और तीनों पतियों की असमय मौत हो गई. सो, अभिशप्त मानी जाने वाली भूरी की शादी 55 वर्षीय धनुआ (रधुवीर यादव) से कर दी जाती है. गांव के रसूखदारों के गिरोह की नज़र भूरी की सुंदर देह पर है. इनमें जमींदार, सरपंच, डाक्टर जैसे लोग शामिल हैं.
एक दिन धनुआ की एक रिपोर्ट के साथ डॉक्टर गांव वालों से मुखातिब होता है, पता चलता है कि धनुआ जानलेवा बीमारी एड्स की चपेट में हैं. धनुआ को गांव से बाहर एक झोंपड़ी में शिफ्ट कर दिया जाता है. मजबूर भूरी वैश्यावृत्ति करने लगती है.
एक दिन डॉक्टर की बेटी बीमार हो जाती है. खून की जांच से पता चलता है कि उसे एड्स है. गुस्साए डॉक्टर को पता चलता है कि बेटी को इस बीमारी के कीटाणु उसके कम्पाउंडर ने दिए हैं. कम्पाउंडर की पिटाई के बाद जो जानकारी सामने आती है उससे डॉक्टर के हाथ पांव फूल जाते हैं. पता चलता है कम्पाउंडर को यह रोग भूरी से मिला है. भूरी के साथ मजे करने वाली गांव की बड़ी आबादी इस रोग से गिरफ्त में है. भूरी को ये रोग कहां से मिला? उसके पति धनुआ से? जी नहीं, जिसे एड्स पीडि़त बताकर गांव से बाहर किया गया था सिर्फ वही इकलौता शख्स था जो भूरी के संपर्क में रहने के बाद भी एड्स से बचा हुआ था. क्योंकि एड्स का घोषित मरीज शारीरिक संबंध बना ही नहीं सकता था, सो बचा रहा. डॉक्टर ने जो रिपोर्ट बनाई थी वो फर्जी थी. इस रिपोर्ट का मुख्य उद्देश्य रघुवीर को गांव से बाहर करना था ताकि मजबूर भूरी का शारीरिक शोषण किया जा सके.
तीसरी कहानी भी न सिर्फ सच्ची कहानी है और प्रेरक भी. जो बताती है कि चाहे भूरी के काल्पनिक गांव का सुदूर ग्रामीण इलाका हो या विकसित राष्ट्र अमेरिका का पढ़े-लिखे लोगों वाला इलाका. एड्स के प्रति सबकी सोच एक जैसी है. यह बात साबित होती है दुनिया के सबसे बड़े बॉस्केटबॉल खिलाड़ी इयरविन 'मैजिक' जॉनसन की कहानी से. जिसकी जिंदगी में एड्स ने इतनी उथल-पुथल मचाई कि उसकी जिंदगी फिल्मी कहानी बन गई.
1959 में गरीब परिवार में पैदा हुए जॉनसन ने कम उम्र में ही बॉस्केटबॉल खेलना शुरू कर दिया था. उनके नाम में 'मैजिक' बहुत कम उम्र में जुड़ गया था, जब उनकी बॉस्केटबॉल की जादुई स्किल से दुनिया दो चार हुई थी. उनके जादुई खेल ने शुरूआत में ही लोगों को दीवाना बना दिया था. दुनिया के सबसे महानतम् खिलाडि़यों में शुमार मैजिक जॉनसन को 1996 में दुनिया के 50 महान एनबीए (नेशनल बॉस्केटबॉल एसोसिएशन, अमेरिका) की लिस्ट में जगह मिली थी. 1991 में उन्होंने खुद को एचआईवी पॉजि़टिव बताते हुए कैरियर से सन्यास लेने की घोषणा कर प्रशंसकों को चौंका दिया था. मैजिक जॉनसन के नाम पांच बार एनबीए चैंपियन रहने का रिकार्ड शामिल है.
एड्स को लेकर गांव की सोच और विकसित देश के सोच की तुलना का मौका तब मिला, जब मैजिक जॉनसन ने खेल में (एनबीए) वापसी के इरादे की घोषणा की. प्रेक्टिस के दौरान उन्हें अनेक सक्रिय खिलाडि़यों के विरोध का सामना करना पड़ा. जिसके चलते नियमित सीज़न से पहले उन्हें फिर सन्यास लेने की घोषणा करनी पड़ी. उनके पूर्व साथी खिलाड़ी बायरन स्कॉट और एसी ग्रीन ने फतवा जारी करते हुए कहा कि 'जॉनसन को नहीं खेलना चाहिए.' कार्ल मेलोन का तर्क था कि 'अगर जॅानसन को कोर्ट में खुले घाव हुए तो उन्हें भी दूषित होने का खतरा बना रहेगा.' अगस्त 2011 में एक साक्षात्कार में जॉनसन ने कहा 'वे सेवानिवृत्त हुए, क्योंकि वे खेल को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे.' बाद में मेजिक जॉनसन ने सुरक्षित सेक्स पर एक किताब भी लिखी. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज एच. डब्ल्यु बुश ने एक बार कहा था. "For me, Magic is a hero, a hero for anyone who loves sports." ('मेरे लिए, मैजिक एक नायक है, खेल से प्यार करने वाला यह शख्स किसी के लिए भी हीरो हो सकता है.')
हिंदी फिल्मों की बात करें तो एड्स पर कुछ दिलचस्प और अच्छी फिल्में बनीं हैं. जिनमें सलमान, शिल्पा और अभिषेक बच्चन की 'फिर मिलेंगे' (2004), संजय सूरी, जूही चावला की भाई बहन वाली 'माय ब्रदर निखिल' (2005), 'निदान' (2000), 'एड्स जागो' (2007) और 'दस कहानियां' ((2007) का जि़क्र किया जा सकता है.
बहरहाल, एड्स का वैक्सीन तो नहीं बन पाया पर दो बातें ज़रूर हुई हैं. एक तो इससे छुआछूत का डर कुछ कम हुआ है और दूसरा इससे होने वाली मौत का आंकड़ा कम हुआ है, इससे दहशत कुछ कम हुई है. इस मौके पर एड्स को लेकर बस इतना कह सकते हैं 'बीमारी से घृणा करो, बीमार से नहीं, जागरूकता फैलाओ, इग्नोरेंस नहीं.'
Rani Sahu
Next Story