सम्पादकीय

लंबी अवधि की योजना के साथ, अमेरिका एक नया मोर्चा खोलना चाहता है, ताकि इसके जरिए तिब्बत पर चीन को निशाना बनाया जा सके

Rani Sahu
22 May 2022 10:00 AM GMT
लंबी अवधि की योजना के साथ, अमेरिका एक नया मोर्चा खोलना चाहता है, ताकि इसके जरिए तिब्बत पर चीन को निशाना बनाया जा सके
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पचास के दशक में चीन (China) द्वारा तिब्बत पर कब्जा करना

के वी रमेश |

पचास के दशक में चीन (China) द्वारा तिब्बत पर कब्जा करना, उन ऐतिहासिक घटनाओं में से एक था, जिस पर आज तक भारत में दुख जताया जाता है और सवाल किए जाते हैं. भारत को इस हिमालयी बौद्ध देश पर चीन के आक्रमण को स्वीकार करना चाहिए था या नहीं, यह एक बहस का विषय है और यह बहस सात दशक बाद भी जारी है. हालांकि चीन इस देश का भले ही वास्तविक शासक हो न हो, लेकिन इसका नियंत्रण उसके हाथों में है. जब युवा दलाई लामा (Dalai Lama), ल्हासा पर कब्जा करने वाले चीन से नजरें बचाकर, मार्च 1959 के अंत में तवांग के उत्तर में चुथंगमु में भारतीय चौकी पर पहुंचे, उस समय यह कामेंग फ्रंटियर डिवीजन का हिस्सा था, तब लगभग यह माना गया कि उन्होंने हमेशा के लिए अपनी मातृभूमि छोड़ दी है.
भारत ने दलाई लामा और उनके अनुयायियों का स्वागत किया. उन्हें धर्मशाला में बसने की अनुमति दी. हजारों तिब्बतियों ने अपनी मातृभूमि छोड़ दी और अपने आध्यात्मिक नेता का अनुसरण किया. भारत में दलाई लामा की मौजूदगी ने भारत और चीन के बीच संबंधों को खराब कर दिया. विद्रोही खम्पा योद्धाओं द्वारा चीनी सेना की चौकियों पर हमले से हो सकता है कि तनाव और बढ़ा हो और सीमा विवाद का जन्म हुआ हो और जिसके कारण 1962 में युद्ध हुआ. लेकिन छह दशक से अधिक समय के बाद चीन, दलाई लामा या CTA, को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं है. वह इन्हें अपने सामने किसी भी तरह की राजनीतिक चुनौती नहीं समझता.
लामा की पश्चिमी देशों की उनकी यात्राएं, बीजिंग को केवल चुभती हैं, लेकिन उसे यह अच्छी तरह से पता है कि मोटे तौर पर पूरी दुनिया तिब्बत पर चीन के कब्जे को स्वीकार चुकी है. तिब्बत की जनसंख्या लगभग 35 लाख है, जिसमें एक लाख भारत में रहते हैं और लगभग 45,000 दुनिया के दूसरे हिस्सों में रहते हैं. यह एक छोटी आबादी है, स्वभाव से शांतिपूर्ण और यह शक्तिशाली चीनी साम्राज्य को कोई राजनीतिक या सैन्य चुनौती देने में असमर्थ है. बाकी दुनिया तिब्बत को भूल चुकी है. दलाई लामा अक्सर पश्चिमी देशों की राजधानियों का दौरा करते हैं, जहां उन्हें उचित सम्मान के अलावा और कुछ नहीं मिलता.
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (CTA) केवल नाम की सरकार है और कहा जाता है कि यह विदेश में तिब्बतियों को भेजने की एक एजेंसी भर है. धर्मशाला, बाइलाकुप्पे और कर्नाटक में मुंडगोड में तिब्बती बस्तियां तिब्बती बौद्ध धर्म की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को केवल संरक्षित हैं. दलाई लामा और सीटीए दोनों ने आजादी का सपना छोड़ दिया है और "सुलह" और शरण देने की बात करते हैं, जिसे बीजिंग स्वीकार करने की भी जहमत नहीं उठाता.
तो फिर, तिब्बत को लेकर अमेरिकी स्पेशल कोऑर्डिनेटर की धर्मशाला यात्रा को लेकर चीनी प्रवक्ता इतने उत्तेजित क्यों थे? इसका कारण साफ है, बीजिंग इसे अपने खिलाफ अमेरिका द्वारा शीत युद्ध को भड़काने रूप में देखता है. यह जेया की यात्रा को अमेरिका द्वारा उकसावे के रूप में देखता है, जो हान बहुमत द्वारा तिब्बती लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ अमेरिकी मुहिम का हिस्सा है. यह मुहिम तिब्बत की राजनीतिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता की मांग को बाद में उठाती है.
खास तौर पर, चीन इसे ताइवान, हांगकांग, शिनजियांग और अब तिब्बत के मामले पर अमेरिका द्वारा अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के रूप में देखता है. अमेरिका के लिए चीन बड़ा दुश्मन है. भले ही उसकी मौजूदा चिंता रूस हो. चीन का भौगोलिक आकार, विशाल जनसंख्या, शक्तिशाली अर्थव्यवस्था, वैज्ञानिक और तकनीकी कौशल और अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व के लिए एक चुनौती है. और यह वाशिंगटन के लिए एक चिंता का सबब है. तिब्बत में अमेरिका का कुछ दांव नहीं लगा है. इसकी मुख्य चिंता इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को लेकर है.
दक्षिण चीन सागर और उससे आगे प्रशांत क्षेत्र में चीन का वर्चस्व, वेस्ट कोस्ट में अमेरिका के प्रभाव को चुनौती देता है और इस खतरे को अमेरिका नजरअंदाज नहीं कर सकता. तिब्बत और झिंजियांग मामले को लेकर अमेरिका द्वारा चीन पर सुई चुभाने से मामला गर्म रहता है. वाशिंगटन मानता है कि तिब्बत, चीन की कमजोर नस है. और इसके जरिए वह भविष्य में फायदा उठाने की ताक में है. तिब्बत के भीतर, चीनी नियंत्रण के लिए असंतोष या चुनौती के कोई संकेत नहीं दिखते, हालांकि समय-समय पर सीटीए चीनियों द्वारा तिब्बतियों के दमन का मामला उठाता रहता है.
ऐसा लगता है कि चीन ने तिब्बती अभिजात वर्ग को सांस्कृतिक तौर पर अपने साथ मिलाकर और बौद्ध शासन के "दासों" के वंशजों का पोषण करके अपने रंग ढाल लिया है. इसके लिए चीन तिब्बत को औद्योगिक रूप से विकसित कर रहा है, वहां बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है और 1,142 किमी लंबी ल्हासा-न्यिंगची रेल लाइन, जो दुनिया का सबसे ऊंचा रेल मार्ग है, के जरिए इसको चीन से मिला रहा है. तिब्बती अभिजात वर्ग को द्विभाषी (चाइनीज और तिब्बती) माना जाता है. इनमें से ज्यादातर लोग चीन के विश्वविद्यालयों में ऊंची शिक्षा ले रहे हैं.
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके पास अतीत का बोझ नहीं है, और उनकी आर्थिक प्रगति ने उन्हें यह भी आश्वस्त कर दिया होगा कि उनका भविष्य चीन के ही साथ उज्ज्वल है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान चीन ने तिब्बत पर अपना रुख सख्त किया है. 1979 में, देंग शियाओपिंग ने बीजिंग में दलाई लामा के भाई से मुलाकात की थी और कहा था कि "स्वतंत्रता को छोड़कर, हर चीज पर चर्चा की जा सकती है." तब से चीन और अधिक आक्रामक हो गया है, तिब्बती निर्वासितों के संबंध में उसने अपने अतीत से दूरी बना ली है. चीन की इस अडिग रुख का कारण उसकी सैन्य और आर्थिक ताकत है. साथ ही पश्चिमी देश अपने विकास को लेकर आशंकित हैं, यह भी चीन की ताकत को बढ़ाता है.
पश्चिम द्वारा उइगर मुद्दे को उठाने से बीजिंग और अधिक चिंतित हो गया कि पश्चिम द्वारा उसके जातीय अल्पसंख्यकों, जिनकी संख्या 56 है, का उपयोग, उसके लोगों पर नियंत्रण कमजोर करने के लिए किया जा सकता है. बीजिंग के शासकों को यह विश्वास हो गया है कि इसके जातीय अल्पसंख्यकों के बीच असंतोष को स्वीकृति देने से, उसे अपने देश के भीतर और बाहर समस्याओं का सामना कर पड़ सकता है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के लिए सोवियत संघ का पतन एक कठोर सबक था. शुरुआत में, सीपीसी ने स्वायत्तता के सोवियत मॉडल पालन किया और यहां तक कि उसने अपने "स्वायत्त गणराज्यों" के आजादी के अधिकार को भी कुछ हद तक माना.
लेकिन इस तरह के अधिकार का संस्थागतकरण के कारण सोवियत गणराज्यों में आजादी की मांग और बढ़ने लगी. इसकी शुरुआत 1988 में एस्टोनिया से हुई और इसके बाद दूसरे बाल्टिक राज्यों और जॉर्जिया ने इस पालन किया. यूक्रेन और बेलारूस के अलग होने के बाद मध्य एशियाई राज्य भी सोवियत संघ से अलग हो गए और आखिरकार सोवियत संघ का विघटन हो गया. बीजिंग, भयभीत के है कि हान साम्राज्य के साथ ऐसा कुछ न हो. इसलिए, वह तिब्बत मुद्दे को लेकर सचेत रहता है.
दलाई लामा से उजरा जेया की मुलाकात, भारत के अनुमोदन के बिना नहीं हो सकती थी. भारत पिछले एक दशक से चीन को इस मामले पर परेशान करने के प्रति सावधान रहा है. भारत ने, दिल्ली में एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए उइगर विद्रोही नेता की यात्रा की भी अनुमति नहीं दी. हालांकि, गलवान की घटना के बाद लगता है कि दिल्ली ने चीनी को टक्कर देने का मन बना लिया है. हालांकि, भारत चीन के साथ मेलजोल जारी रखेगा. इसमें एनएसए अजीत डोभाल द्वारा आयोजित रीजनल सिक्योरिटी मीटिंग, ब्रिक्स विदेश मंत्रियों की आभासी बैठक में एस जयशंकर की भागीदारी और बीजिंग में आगामी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संभावित उपस्थिति, वगैरह शामिल हैं.
लेकिन भारत क्वाड में अपनी भागीदारी जारी रखेगा, जिसमें पीएम अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा आयोजित शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे. भारत, अमेरिका और यूरोप को प्रभावित करना जारी रखेगा कि वे एशिया में, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र से अपनी नजरें न हटाएं. भारत चीन को यह दर्शाना चाहता है कि वह किसी भी देश के खिलाफ किसी गुट का हिस्सा नहीं होगा बल्कि एशिया में अपनी स्थिति की पहचान चाहता है. धर्मशाला की उजरा जेया यात्रा, भारत का चीनियों को यह संदेश देने का तरीका है कि वह भी शतरंज का खेल सकता है.
मार्च के अंतिम हफ्ते में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की भारत यात्रा के दौरान, भारत ने स्पष्ट कर दिया था कि अगर बीजिंग भारत के साथ खेल खेलता रहा तो वह भी कड़ा मुकाबला करेगा. तब से, बीजिंग ने भारत के खिलाफ अपनी आवाज को धीमा कर लिया है. और धर्मशाला में अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि की अपनी आलोचना में, बीजिंग ने भारत के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोला. ऐसा लगता है कि दिल्ली का कठोर रवैया काम करता दिख रहा है.

सोर्स- tv9hindi

Rani Sahu

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