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बरेली में लड़कियों की मैराथन में मची भगदड़ के बाद कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में चुनावी रैलियों और भीड़भाड़ वाले तमाम कार्यक्रमों को रद्द करने की घोषणा कर दी है
कमर वहीद नकवी। बरेली में लड़कियों की मैराथन में मची भगदड़ के बाद कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में चुनावी रैलियों और भीड़भाड़ वाले तमाम कार्यक्रमों को रद्द करने की घोषणा कर दी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी नोएडा में कोविड के बढ़ते मामलों के मद्देनजर 6 जनवरी की अपनी नोएडा रैली रद्द कर दी है। तेजी से संक्रमण फैलाने वाले ओमीक्रोन वेरिएंट और कोविड संक्रमण की तीसरी लहर के उभार का जो खतरा हमें दिख रहा है, उसमें राजनेताओं और राजनीतिक दलों की ऐसी सावधानी भरी पहल यकीनन स्वागत योग्य है।
लेकिन हम ऐसे कदम तब उठाने को सोचते हैं, जब कोई हादसा हो जाता है। कांग्रेस के मैराथन में जब हजारों लड़कियां बिना मास्क के शामिल हो रही थीं, तब किसी ने क्यों नहीं सोचा कि कोविड के इस दौर में इतनी भीड़ जुटाई जानी चाहिए थी या नहीं? और कुछ नहीं, तो कम से कम मास्क की पाबंदी तो लगाई होती? फिर कांग्रेस ही क्यों, राजनीति को बदलने के दावों के साथ आए अरविंद केजरीवाल खुद बिना मास्क अपनी चुनावी पदयात्राओं में भारी भीड़ के बीच घूम रहे थे और कोविड की चपेट में आ गए। सिर्फ केजरीवाल ही क्यों, भीड़ भरे कई कार्यक्रमों में बिना मास्क के शामिल होने पर अनेक नेता आलोचना का निशाना बन चुके हैं। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में तो चुनावी रैलियां न करने का एलान कर दिया, जहां उसकी उपस्थिति अब न के बराबर रह गई है, लेकिन पंजाब और उत्तराखंड में चुनावी रैलियां बंद करने या जारी रखने पर लगे हाथ घोषणा नहीं हुई।
सवाल यही है कि कोविड की तीसरी लहर का जो खतरा अब सिर पर आ चुका है, उसमें अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कैसे कराएं जाएं? कहने को तो चुनाव आयोग अगस्त 2020 में ही विस्तृत गाइडलाइन जारी कर चुका है कि कोविड काल में नामांकन, चुनाव-प्रचार और मतगणना के दौरान किस तरह के कोविड प्रोटोकॉल का पालन किया जाना चाहिए, पर व्यवहार में इसका पालन होता कहां है? 2021 के शुरू में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में न कहीं राजनेताओं ने, न राजनीतिक दलों ने इसकी कोई परवाह की और न ही उन अफसरों ने, जिनकी जिम्मेदारी थी कि वे निगरानी करें कि कोविड गाइडलाइन का पालन हो रहा है या नहीं।
हम देख चुके हैं कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा समेत सभी राजनीतिक दलों ने कैसे कोविड प्रोटोकॉल की खुलकर धज्जियां उड़ाईं और जैसे-जैसे चुनाव-प्रचार वहां नए इलाकों में बढ़ता गया, वैसे-वैसे वहां कोविड संक्रमण तेजी से बढ़ा और कई उम्मीदवारों की मौत भी हो गई। बाद में मद्रास हाइकोर्ट की कड़ी टिप्पणी के बाद चुनाव आयोग जागा और उसने चुनावी रैलियों में पांच सौ से ज्यादा की भीड़ पर रोक लगा दी। लेकिन उसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का पूरी तरह उल्लंघन हुआ। नतीजा, कोविड के मामले बेहद खतरनाक तौर पर बढ़े। उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ ने तो 1,621 शिक्षकों व दूसरे कर्मचारियों की सूची जारी कर दावा किया कि इनकी मौत कोविड से संक्रमित हो जाने से हुई।
चुनाव समय पर होना तो जरूरी है, उसे रोका नहीं जाना चाहिए। सवाल यही है कि चुनाव के समय क्या कोविड प्रोटोकॉल अपनाएं जाएं। चुनाव के दौरान कोविड गाइडलाइन के उल्लंघन के सबसे ज्यादा मामले नामांकन और चुनाव-प्रचार के दौरान आते हैं, जहां राजनीतिक दल बड़ी से बड़ी भीड़ जुटाकर शक्ति प्रदर्शन करते हैं। समय की मांग है कि अब इस तरीके को बदला जाना चाहिए। अगर कोविड ने 'वर्क फ्रॉम होम' की एक बिल्कुल नई कार्य-संस्कृति को जन्म दे दिया, तो क्या हम चुनाव-प्रचार और प्रक्रिया के नए व ऐसे सभ्य तरीके नहीं ढूंढ़ सकते, जिसमें भीड़, हो-हल्ला और बेमतलब का गुल-गपाड़ा किए बिना चुनाव हो जाएं।
आप में से कुछ बड़ी उम्र वालों को याद होगा कि पहले चुनावों के दौरान गली-गली दिन-रात छोटे-छोटे जुलूस निकलते थे, नारों और लाउडस्पीकरों के शोर से सिर भन्ना जाता था, पोस्टरों और झंडियों से दीवारें पटी रहती थीं। इन सबके बिना पहले हम चुनाव की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, लेकिन आज यह सब कुछ नहीं होता। ठीक इसी तरह वोट कभी मतपत्र से पड़ते थे, आज ईवीएम से पड़ते हैं और चटपट मतगणना हो जाती है। अगर ये सारी चीजें बदली जा चुकी हैं, तो आज के तरीके हम क्यों नहीं बदल सकते, जब हमारे पास कहीं बेहतर तकनीक और शानदार इंटरनेट कनेक्टिविटी है।
इसलिए यही सही समय है, जब चुनाव आयोग और राजनीतिक दल मिलकर इस बारे में सोचें कि भीड़ जुटाए बिना चुनाव कैसे कराए जाएं? यह इसलिए जरूरी है कि चुनाव आयोग चाहे जितनी ही कड़ी गाइडलाइन बना ले, तमाम कोशिशों के बावजूद उसका पालन करा पाना संभव नहीं होगा। तरह-तरह के विवाद उठेंगे, सो अलग और कुछ मामलों में तो चुनाव आयोग की साख को भी विवादों में घसीटा जा सकता है। गाइडलाइन के उल्लंघन का संकट केवल हमारा ही नहीं है, बल्कि दुनिया का शायद ही कोई देश हो, जहां कोविड प्रोटोकॉल के बड़े उल्लंघन के बिना चुनाव हो गए हों। 2020 में 51 देशों में हुए राष्ट्रीय चुनावों पर की गई एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें से कई देशों ने तो भीड़ की सीमा 20 या 50 या अधिक से अधिक 100 लोगों तक सीमित कर दी थी, लेकिन बहुत से मामलों में इसका पालन नहीं हो पाया। सिंगापुर अपवाद था, जिसने चुनावी सभाओं, रैलियों और भीड़ जुटाने पर पूरी तरह रोक लगा दी थी।
क्या चुनाव आयोग सिंगापुर से सीखकर ई-रैलियों के विकल्प पर नहीं सोच सकता? चुनाव आयोग चाहे, तो हर शहर में ई-रैलियों का एक दिन तय कर सकता है और वहां के प्रमुख स्थानों पर बड़ी-बड़ी वीडियो स्क्रीन लगा सकता है। हर राजनीतिक दल के स्टार प्रचारक को बोलने के लिए सुबह दस बजे से शाम सात बजे के बीच एक स्लॉट तय किया जा सकता है। सभी दलों के नेता अपने-अपने तय स्लॉट में भाषण करें और उसे अपने सोशल मीडिया चैनलों पर भी प्रसारित करें। अगले दिन ई-रैली किसी अन्य शहर में हो और उसके अगले दिन किसी और शहर में। इसका सारा खर्च चुनाव आयोग उठाए। इससे बेलगाम चुनावी खर्चों पर भी रोक लगेगी और छोटे या आर्थिक रूप से कमजोर दलों को भी चुनावी प्रक्रिया में बराबरी से भागीदारी का मौका मिलेगा। कोविड के संक्रमण फैलने का खतरा भी नहीं रहेगा। तो क्यों नहीं, इस पर विचार करके देखा जाए, महानुभावो?
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