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क्या कांग्रेस के पास भविष्य का कोई रास्ता है
Faisal Anurag
क्या कांग्रेस के पास भविष्य का कोई रास्ता है ? लगातार हो रही उसकी पराजयों से वह सबक सिखने को तैयार भी है ? क्या कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी विचारधारा के संघर्ष में हाशिए पर चली गयी है या फिर इन दोनों दलों ने अपनी ही विचारधारा से पीछा छुड़ा लिया है. आरएसएस ने अहमदाबाद में भारतीय आर्थिक मॉडल की रूपरेखा प्रस्तुत की है. इसका साफ मतलब है कि आरएसएस एक ओर पूंजीनिवेश के लिए अधिक से अधिक माहौल बनाते हुए आत्मनिर्भर भारत की आर्थिक संरचना के हिुदत्व का मॉडल बनाने की बात कर रही है.
क्या कांग्रेस के पास आर्थिक क्षेत्र का कोई ऐसा आकर्षक मॉडल पेश करने की दृढ़ता और क्षमता है जो उसे नवजीवन दे सके और भारत के लोगों में नए सपने का सृजन कर सके. इसके साथ कांग्रेस के समक्ष यह भी चुनौती है कि नेतृत्व के स्तर पर बहुलता की कोई नयी अवधारणा का वह प्रयोग कर सकती है या नहीं. सोनिया गांधी उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रही है जिसे 2014 के बाद से वोटरों ने लगातार नकारा है.
मतलब साफ है कि लोककल्याण की कांग्रेस की राजनीति को तेजी से भारतीय जनता पार्टी ने बेदखल कर दिया है. इसके साथ ही 1991 के डॉ. मनमोहन सिंह की अर्थनीति मानवीय चेहरे के साथ तेज विकास की अवधारणा को बहुत पीछे छोड़ दिया है. कमोवेश यही संकट मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी की भी है. कांशीराम की राजनीति से मायावती ने कब का पीछा छुड़ा लिया है और वोट समीकरण बैठाने की उसकी कोशिशों के कारण उसका कोर वोटर भाजपा में समहित हो गया है.
इस हकीकत को स्वीकार किए बगैर दोनों पार्टियों के भविष्य की राह उसे गहरे अंधकार की ओर ही ले जाएगी. कांग्रेस जिस बुरी तरह पंजाब,उत्तर प्रदेश,गोवा,मणिुपर और पंजाब में हारी है वह कोई समान्य हार तो नहीं ही है. पार्टी नेतृत्व अभी तक इसे समान्य परिघटना के रूप में अपनी पराजयों को देखता रहेगा तब तक उसकी हार का सिलसिला भी नहीं रूकेगा. बंगाल के विधानसभा चुनाव में तो उसने खाता भी नहीं खोला. इसके साथ ही केरल में उसकी पराजय गैर मामूली थी लेकिन नेतृत्व ने इन दोनों राज्यों की हार से सबक ही नहीं सीखा.
बजट सत्र के बाद कांग्रेस मंथन शिविर करने जा रही है. लेकिन क्या यह मंथन शिविर पंचमढ़ी की पुनरावृति हो सकेगा. पंचमढ़ी में एक नए कांग्रेस की बात की गयी थी जो विचारों की ऊर्जा के साथ ही संसदीय राजनीति में व्यापक दखल देने की नयी रणनीति की बात कर रही थी. उस समय कांग्रेस उस समय के अपने सबसे बुरे दिनों में थी.2014 के बाद से देखा जा रहा है कि कांग्रेस न केवल वैचारिक उलझन की शिकार है, बल्कि उसे भारतीय जनता पार्टी की तरह बनने की कोशिश भर की है.
कांग्रेस की ताकत उसकी धर्मनिरपेक्ष समाजवादी लोकतंत्र की अवधारणा थी. लेकिन 1990 के दौर में लालकृष्ण अडवाणी ने छद्म धर्मनिरपेक्षता की बहस खड़ी की. कांग्रेस इसका जबाव देने के बजाया खुद इस बहस का शिकार हो गयी. 2004 और 2009 में उसने एक व्यापक मोर्चा बना की चुनाव तो जीत लिया, लेकिन वैचारिक धरातल पर भाजपा का मुकाबला करने में पिछड़ गयी. पांच राज्यों की करारी शिकस्त के बाद भी ऐसा नहीं लग रहा है कि वह वैचारिक तौर पर आज के जमाने के अनुरूप एक वैकल्पिक आधार पेश करने को तैयार है.
दीर्घकालिक वैचारिक संघर्ष के बगैर कांग्रेस आरएसएस भाजपा की वैचारिक जीत को रोक नहीं सकती है. आरएसएस ने भाजपा की जीत के बाद भविष्य का एजेंडा तय कर दिया है. अहमदाबाद में पारित एक प्रस्ताव में आरएसएस ने कहा है ""हिंदुत्व, इसके इतिहास, सामाजिक दर्शन, सांस्कृतिक मूल्यों और परंपरा के बारे में सच्चाई और तथ्यों के आधार पर प्रभावी और मजबूत वैचारिक विमर्श स्थापित करना आवश्यक है.'"
इन चुनावों के बाद एक और तथ्य उभर कर सामने आया है कि 1989 के बाद की मंडल राजनीति को भाजपा ने पचा लिया है. यानी उसने न केवल पिछड़े, अन्य पिछड़े और दलितों को समाहित करने में बड़ी कामयाबी हासिल की है. किसान आंदोलन ने भले ही तीन कृषि कानूनों को रद्द करवा दिया हो, लेकिन उसकी राजनैतिक तौर पर व्यापक अपील नहीं है. छोटे से इलाके में उसने जरूर मुसलमानों और जाटो को एकजुट किया है, लेकिन व्यापक तौर पर जाटो का भाजपा मोह बना हुआ है.
कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि उसके किसी भी एक जाति का वोट नहीं है और ऐसे नेता भी नहीं के बराबर हैं, जिनका क्षेत्रों में खास असर हो. बसपा में केवल जाटवों का ही समर्थन बचा हुआ है. हालांकि यह तथ्य है कि इस बार सबसे ज्यादा जाटव विधायक भाजपा से जीते हैं. इसका साफ मतलब है कि जाटवों के कोर आधार में भाजपा ने बड़ी सेंध लगा दी है.
इन हालातों में कांग्रेस या बसपा दोनों के समक्ष खुद को प्रासंगिक और वैचारिक तौर पर ऐसे वैकल्पिक विचार की जरूरत है ताकि वह भाजपा के समानंतर नरेटिव बना सके. श्रीकांत वर्मा की एक कविता है कि मगघ में विचारों की कमी है. यानी विचारहीनता में ही मगध साम्राज्य के पतन की नींव पड़ी. कांग्रेस और बसपा दोनों के समक्ष वोटरों और समर्थकों में जज्बा भरने के लिए ऊर्जावान विचार की जरूरत को नजरअंदाज करना दोनों के लिए खतरनाक है. कांग्रेस की इस समय केवल दो राज्यों में सरकार है और तीन में वह सरकारों की साझेदार है. बावजूद इसके अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी की राष्ट्रीय महत्वकांक्षाओं से साझापन या नकारने की चुनौती स्वीकार किए बगैर अगले साल दो राज्यों से भी बचाना मुश्किल हो सकता है.
Rani Sahu
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