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यूक्रेन में हज़ारों भारतीय छात्रों
रवीश कुमार,
24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला बोला था. आज चार दिनों बाद रूस को वैसी सफलता नहीं मिली है जिसका दावा किया गया था. ऐसी खबरें हैं कि यूक्रेन ने रूस का जमकर मुकाबला किया है और बड़ी संख्या में रूसी सैनिक मारे गए और रूसी लड़ाकू विमान भी गिराए गए हैं. इसके बाद भी रूसी सेना के टैंक यूक्रेन की सड़कों पर बिना किसी रोक टोक के चलते देखे जा सकते हैं. यूक्रेन ने अपील की है कि उसे तुरंत यूरोपीयन यूनियन में शामिल किया जाए. इस अपील के ज़रिए यूक्रेन संदेश दे रहा है कि वह रूस के मनोवैज्ञानिक दबाव में नहीं आया है और यूरोपियन यूनियन को बता रहा है कि अगर इन चीज़ों को लेकर झगड़ा शुरू हुआ है तो उसे औपचारिक रूप दिया जाए. पश्चिमी मीडिया के कवरेज में यूक्रेन में फंसे बीस हज़ार भारतीय छात्रों की कहानी को प्रमुख स्थान नहीं मिला है. वहां केवल भारत के ही नहीं नाइजीरिया और चीन के भी छात्र हैं. मीडिया की खबरों के मुताबिक चीन के छह हज़ार छात्र यूक्रेन में फंसे हैं. चीन और भारत ने रूस से दूरी बनाते हुए भी सुरक्षा परिषद में उसके खिलाफ मतदान नहीं किया लेकिन रूस ने उसके नागरिकों को क्या राहत दी. यूक्रेन में रह रहे चीन के राजदूत ने अपने छात्रों से कहा है कि किसी को घबराने औऱ यहां से जाने की ज़रूरत नहीं है.
आखिर चीन के राजदूत किसके बूते अपने छह हज़ार छात्रों को भरोसा दे रहे हैं. चीन के राजदूत ने कहा है कि युद्ध के बाद निकालने का प्रयास करेगा. क्या चीन को अपने नागिरकों की चिन्ता नहीं या उसे रूस पर कुछ ज्यादा ही भरोसा है कि उसके नागरिकों का कुछ नहीं होगा.
सन्नाटे अब रिकार्ड किये जा रहे हैं. कीव मेडिकल यूनिवर्सिटी की खिड़की के बाहर से रविवार की रात हर तरह की आवाज़ ने छुट्टी कर ली थी. इसी यूनिवर्सिटी के हास्टल की दूसरी खिड़की यानी दूसरी तरफ से दिन का यह मंज़र था. रूसी टैंकों का दल सड़क पर इस तरह से चला जा रहा है जैसे यह उनके चलने-फिरने के लिए बनी हो. जिस छात्रा ने इसे रिकार्ड किया है वो सोमवार दोपहर यहां थी. कीव रेलवे स्टेशन पर. कुछ देर के लिए कर्फ्यू हटा है तो कीव में फंसे हज़ारों छात्र स्टेशन पहुंच गए हैं. तीन चार रेल गाड़ियां हैं और जगह कम है. यहां यूक्रेन के लोग भी हैं. छात्रों ने बताया कि रूस की तरफ से संकेत आया है कि नागरिक कीव छोड़ दें लेकिन छात्रों के पास इसका विकल्प नहीं है कि वे किस सीमा की तरफ जाएं. जिधर की ट्रेन मिल जाएगी उस तरफ चले जाएंगे. कर्फ्यू कभी भी लग सकता है, तब तक ट्रेन न मिली तो वापस सभी को हॉस्टल के बंकर में जाना पड़ेगा. आप देख सकते हैं कि कीव स्टेशन की पटरियों पर कितनी भीड़ है. लोग इस प्लेटफार्म से उस फ्लेटफार्म की तरफ ट्रेन पकड़ने जा रहे हैं. अब आप उस ट्रेन का हाल देख सकते हैं जिस ट्रेन में भारतीय छात्र सवार हो पाए. पांव रखने की जगह नहीं है. इन छात्रों ने गदर फिल्म देखी है तो उसके सीन को याद कर रहे हैं. बताया कि अपने हास्टल से चार किलोमीटर पैदल चल कर स्टेशन पहुंचे. पांच सौ भारतीय छात्रों को लगा कि दूतावास कुछ इंतज़ाम करेगा. लेकिन पैदल ही चल पड़े. इन छात्रों को रास्ते भर में लाशें दिखीं. टैंक दिखे और युद्ध की तबाही. अब यह ट्रेन लविव की तरफ जा रही है. सात घंटे की यात्रा है, खड़े होकर तय करनी है. जिस छात्र ने यह वीडियो भेजा है उसने चार दिनों से खाना नहीं खाया है. फल खाकर काम चलाया है. जिस तरफ जा रहा है वहां भी भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ है. लविव में फंसे भारतीय छात्र कई दिनों से निकलने का इंतज़ार कर रहे हैं औऱ ये छात्र वहां जा रहे हैं.
कीव, खारकिव और लविव शहर में फंसे भारतीय छात्रों की स्थिति बहुत खराब है. ये शहर उन सीमाओं से काफी दूर हैं यहां सरकार की मदद नहीं पहुंच पा रही है. लविव मेडिकल यूनिवर्सिटी के छात्र इस बात पर सवाल उठा रहे हैं कि यह इवेकुएशन कैसे हुआ. इवेकुएशन तो वो होता है जहां से सरकार लोगों को निकालती है. यहां तो वे खुद पैदल चल कर जान जोखिम में डालकर बोर्डर पर पहुंच रहे हैं. वहां भी बॉर्डर से आसानी से कोई पार नहीं करा पा रहा है.
यह छात्र जिन्हें आप पैदल चलते हुए देख रहे हैं इन्हें एक दिन में पचास किलो मीटर पैदल चलना पड़ा है. लविव मेडिकल यूनिवर्सिटी के ये छात्र 56 किलोमीटर दूर पोलैंड की सीमा क्राको पहुंचे तो बस वाले ने बीस किलोमीटर पहले उतार दिया. 30,000 किराया लेने के बाद भी मंज़िल तक नहीं पहुंचाया. वहां से ये छात्र पैदल पहुंचे तो एडवाइज़री आई कि शैने बोर्डर पहुंचें जो वहां से तीस किलोमीटर दूर थी. माइनस चार से पांच डिग्री सेल्सियस ठंड में ये छात्र तीस किलोमीटर चल कर वहां पहुंचे तो चार दिनों से इंतज़ार कर रहे हैं कि पोलैंड अपनी सीमा के भीतर ले. दीपांशु कौशिक ने बताया कि उनकी तबियत इतनी खराब हो गई कि वे वापस हास्टल आ गए.
अब जाकर पोलैंड की सीमा से छात्रों को प्रवेश मिला है लेकिन वहां संख्या बहुत है. यूक्रेन के लोग भी कतार में हैं. पोलैंड बार बार कह रहा है कि भारतीय छात्रों की मदद की जाएगी लेकिन वक्त काफी लग रहा है. भारत सरकार ने सीमावर्ती इलाके में बसों का इंतज़ाम किया है लेकिन वहां तक पहुंचना हर छात्र के लिए संभव भी नहीं है. दूसरा युद्ध के हालात में दूतावास के पास भी बस वगैरह के इंतज़ाम के विकल्प सीमित हैं. छात्रों का कहना है कि दूतावास की तरफ से कहा गया है कि खुद अपना इंतज़ाम कर किसी तरह से सीमा की तरफ पहुंचे. सरकार भी अपनी तरफ से प्रयास कर रही है. जो छात्र इन शहरों से हंगरी या रोमानिया की सीमा तक बस के ज़रिए निकले हैं उन्होंने चार से पांच लाख रुपये दिए हैं. यही नहीं बहुत से छात्र चालीस से पचास किलोमीटर तक पैदल चले हैं. खारकीव में रहने वाले छात्रों का कहना है कि कभी भी बम गिर जाता है.
रोमानिया बोर्डर पर तापमान माइनस में है. बर्फ पड़ रही है. रोमानिया की सीमा में पहुंचने के लिए यूक्रेन के साथ साथ भारतीय छात्र भी लाइन में लगे हैं. दिन और रात इन्हें ठंड में लाइन में लगना पड़ा है. दो दिनों के बाद विजय सिंह और उनके साथियों का नंबर आ गया है. वे रोमानिया की सीमा में प्रवेश कर गए हैं और अब भारत सरकार के भेजे विमान से भारत आ जाएंगे. विजय और 49 छात्रों ने साढ़े चार लाख में बस किराये पर ली थी. पंद्रह किलोमीटर का सफर तय कर ओडेशा से यहां पहुंचे थे.
अभी तक छह विमानों से 1150 से अधिक छात्र भारत लाए जा चुके हैं. यह संख्या धीरे धीरे बढ़ रही है. भारत सरकार ने कई मंत्रियों को यूक्रेन की सीमा से लगे देशों में भेजने का निर्णय किया है. यह एक अच्छा कदम है लेकिन पहले ही उठा लेना चाहिए था. विदेश मंत्रालय ने opganga नाम से ट्विटर हैंडल बनाया है जिस पर विदेश मंत्रालय लोगों को व्यक्तिगत रूप से जवाब दे रहा है. यह काम पहले किया जाना चाहिए था. परेशान मां बाप तक सूचनाएं पहुंचती तो बेहतर होता. उनकी हालत बहुत खराब है. भारत में यूक्रेन के राजदूत कह रहे हैं कि वे निजी संबंधों का इस्तेमाल कर छात्रों की मदद कर रहे हैं. लेकिन मदद पहुंचती दिख नहीं रही है.
12 फरवरी तक एक दर्जन देशों ने अपने नागरिकों से कह दिया था कि 24-48 घंटे के भीतर यूक्रेन छोड़ दें. यूक्रेन के हालात को देख कर भारतीय छात्र जनवरी महीने से ही ट्वीट कर रहे थे. हमने ट्विटर पर कुछ ट्वीट खंगाले. 24-25 जनवरी से ही छात्र विदेश मंत्रालय और यूक्रेन दूतावास के हैंडल को टैग कर लिखने लगे थे कि सभी देश अपने नागरिकों को जाने के लिए कह रहे हैं, हमें क्या करना है, जल्दी बताएं. 25 जनवरी से भारतीय दूतावास ने पंजीकरण शुरू कर दिया लेकिन 15 फरवरी को अस्थायी तौर पर यूक्रेन छोड़ने की एडवाइज़री जारी की गई. कई छात्र इसे देरी मानते हैं. इसके बाद जब घोषणा होती है कि छोड़ दें तब छात्र ट्वीट करने लगते हैं कि हवाई जहाज़ का किराया बहुत महंगा है. एयर इंडिया का विमान भेजा गया तो उसका भी किराया डबल था. इसे लेकर भी छात्रों ने ट्वीट किया है. यह भी कि कोई कमर्शियल फ्लाइट नहीं है तो कैसे आएंगे. फिर 18 फरवरी को एयर इंडिया ने ट्वीट किया कि एयर इंडिया 22, 24 26 फरवरी को तीन विमान चलाएगा. क्या काफी था? यूक्रेन में 18-20 हज़ार छात्र फंसे थे. क्या वे सभी तीन विमान से आ सकते थे, ज्यादा से ज्यादा 900 बच्चे ही आ सकते थे. क्या तीन विमान से 20000 छात्र आ सकते थे?
मौत का सामना कर रहे भारतीय छात्रों का मज़ाक उड़ाने वाले महंगाई के सपोर्टर से भी हाई क्वालिटी के सपोर्टर निकले. इन्हें इतना पता नहीं कि भारत सरकार अपनी जेब से कुछ नहीं करती है. जनता के पैसे से विदेश मंत्रालय ने 2009 में एक फंड बनाया था जिसका नाम है इंडियन कम्युनीटी वेलफेयर फंड ICWF, इसमें जमा पैसे का इस्तेमाल विदेशों में फंसे भारतीयों को स्वदेश लाने में किया जाता है औऱ यह पैसा जनता के टैक्स से यहां जमा होता है. विदेश जाने वाले भारतीयों से इस फंड के लिए पासपोर्ट और वीज़ा बनवाने पर दो डालर या तीन डॉलर लिया जा रहा है. तो यह पैसा जिस काम के लिए है उसका वक्त आ गया था. पिछले साल दिसंबर में लोकसभा में भारत सरकार ने बताया है कि ICWF के पास 474 करोड़ का फंड है. कोविड के समय से लेकर अक्तूबर 2021 तक सरकार ने इस फंड से 44 करोड़ खर्च किया है. 400 करोड़ का फंड होते हुए भी इसका इस्तेमाल समय से नहीं हुआ. इस पैसे से ज्यादा विमानों का इंतज़ाम हो सकता था और छात्रों के टिकट पर सब्सिडी दे गई होती तो वे दोहा और दुबई होते हुए भारत पहुंच जाते. इन सब जानकारियों को छिपा कर इन छात्रों पर ही हमला किया गया कि विदेश क्यों गए पढ़ने. 25 फरवरी को सरकार ने कहा कि सरकार छात्रों को निकालने जा रही है, उन्हें टिकट का पैसा नहीं देना होगा. यह काम तो पहले भी हो सकता था.
भारतीय छात्रों की गलती निकालने वालों ने नहीं देखा कि दूसरे देश क्या कर रहे थे. ठीक है कि चूक हो गई लेकिन बाद में जो इंतज़ाम किए गए उसमें भी देरी हुई. रविवार के दिन जब खबरें आईं कि भारतीय छात्रों को मारा जा रहा है, बंकर में खाने का सामान खत्म हो रहा है तो मां बाप के होश उड़ गए थे. हापुड़ के फिरोज़ खान खारकीव से हाल भेजा है. खारकीव की हालत बहुत खराब है.
उसी तरह सुमी शहर में फंसे भारतीय छात्रों का भी वक्त निकला जा रहा है. दुकानों में खाने पीने की चीज़ें नहीं हैं. एटीएम में पैसा नहीं हैं. यह कहानियां बता रही हैं कि अभी भी हज़ारों छात्र उस जगह से दूर हैं जहां से भारत सरकार ने मदद की व्यस्था की है. महताब और उनके साथी सूमी शहर में घिरे हुए हैं. इस शहर में युद्ध रुकने का नाम नहीं ले रहा है.
युद्ध के बाद हालात भारत के बस में नहीं हैं, यह बात छात्र भी समझते हैं. उनकी कई प्रतिक्रियाओं में सुनने को मिला कि वे दूतावास की मुश्किलें समझते हैं लेकिन उन तक या उनके परिवार तक सूचनाएं नहीं पहुंच रही हैं. कुछ किया नहीं जा रहा है. समय पर कुछ किया नहीं किया। भारत के लिए भी यह वक्त नाज़ुक है.
भारत के संतुलन की चुनौती को आप प्रधानमंत्री के एक वीडियो से देख सकते हैं. प्रधानमंत्री वाराणसी की एक सभा में गोल्फ कार्ट में सवारी कर रहे हैं. दोनों तरफ जनता है और उसके बीच से गो-कार्ट से गुज़र रहे हैं. ऐसा करते हुए वे चुनावी मजबूरी और सुरक्षा के बीच नाज़ुक संतुलन बना रहे हैं. टीवी पर अपने बच्चों की सुरक्षा की खबरों को देखने के लिए बेचैन मां-बाप ने जब गो-कार्ट की सवारी करते हुए प्रधानमंत्री की तस्वीर देखी होगी तब आत्मविश्वास से भरे एक देश का भी दर्शन किया होगा.
भारत की किसी भी कूटनीतिक पहल का लाभ बंकर में फंसे इन छात्रों को नहीं मिला. जानकार भारत के कूटनीतिक स्टैंड की तारीफ़ में ही मगन रहे कि संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ वोट नहीं किया लेकिन रूस से बात कर हिंसा रोकने की अपील कर दी. यूक्रेन के राष्ट्रपति से फोन पर बात कर रूस को भी चेता दिया. मगर बंकर में जान की गुहार लगा रहे इन छात्रों के जीवन पर क्या असर पड़ा, अखबारों में पचासों लेख कूटनीतिक सफलता पर है उसकी तुलना में इन छात्रों की जि़ंदगी पर गिनती के भी लेख नहीं होंगे. जानकारों की कलम की स्याही बदल गई है. जो टेक्सस में ट्रंप के प्रचार के समय से अमरीका अमरीका लिख रहे थे अब रूस रूस लिख रहे हैं. कहने लगे कि भारत गुटनिरपेक्ष है.
सरकार कह रही है कि आपरेशन गंगा तब तक चलेगा जब तक एक एक भारतीय को नहीं निकाल लिया जाता. पूर्व विदेश मंत्री यशंवत सिन्हा ने ट्वीट किया है कि 1990 में खाड़ी युद्ध हुआ था तब भारत सरकार ने इराक और कुवैत से पौने दो लाख से अधिक भारतीयों को निकाला था. उस समय की तस्वीर आपको नहीं मिलेगी कि मंत्री एयरपोर्ट पर हैं, विमान के भीतर हैं लेकिन वक्त बदल गया है. काम पूरा होने से पहले प्रचार पूरा हो जाता है. रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने अपनी परमाणु रक्षा बलों को अलर्ट रहने के लिए कहा है. परमाणु हथियारों की तैनाती की ख़बरों के बीच संयुक्त राष्ट्र की आम सभा और सुरक्षा परिषद की राजनीति की कोई अहमियत नहीं रह जाती सिवाय इसके कि आज कल कई लोग इसके बहाने अखबारों के पन्ने भर रहे हैं. रूस के साथ दिखने वाले तमाम देशों का हलक सूख रहा है, उनसे यह बयान ही नहीं दिया जा सकेगा कि रूस परमाणु हथियारों की तैनाती न करे. पुतिन परमाणु हथियारों की बात न करें. यूक्रेन और रूस के युद्ध में परमाणु हमले का इस्तेमाल शुरू हो गया है. पुतिन ने परमाणु हथियारों को अलर्ट कर दिया है तो पश्चिमी देश रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों को वित्तिय परमाणु हमला बोल रहे हैं. दुनिया वास्तविक बनाम वित्तीय परमाणु हमले के बीच फंसी हुई है. वित्तीय परमाणु हमले का असर दुनिया के हर हिस्से में भयानक होने वाला है औऱ वास्तविक परमाणु हमले के असर के बारे में बताने की ज़रूरत नहीं है.
दुनिया भर के बैंकों की सूचना प्रणाली स्विफ्ट से रूस के बैंकों को अलग कर दिया गया है. अब लेन-देन का मैसेज रूसी बैंकों को नहीं मिलेगा. रूस ने अपने रिज़र्व का बड़ा हिस्सा सोना और चीनी मुद्रा युआन में बदल लिया है लेकिन लेकिन डॉलर में होने के कारण उसका बड़ा हिस्सा अमरिका सहित उन देशों में जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाए हैं. इस कारण रूस अपने विदेशी मुद्रा का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा. इसके ज़रिए रूसी अरबपति लोगों के छोटे से समूह पर हमला किया जा रहा है. इन्हें ऑलिगार्क कहा जाता है. ऑलिगार्क का मतलब पुतिन का यार होता है. पुतिन के दोस्तों और उनके बच्चों का रूस के संसाधनों से लेकर कारोबार तक पर कब्ज़ा हो गया है. रूस में पैसा उसी के पास है जो सत्ता के करीब है. पुतिन के बारे में कहा जाता है कि दोस्तों के लिए सब कुछ, दुश्मनों के लिए कानून. क्या पश्चिम के इन प्रतिबंधों से पुतिन के यार पूंजीपति उनसे अलग हो पाएंगे? इन मुट्ठीभर पूंजीपतियों का कारोबार उन देशों में भी फैला है जो इस समय रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा रहे हैं. एक सवाल और है. क्या पश्चिम और अमरीका ने तब नहीं देखा जब यही ऑलिगार्क उनके देशों में कंपनियां खोल रहे थे और धंधा कर रहे थे. रूस के सेंट्रल बैंक ने ब्याज दरों को 9.5 से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया है. इससे तो वहां की EMI पर जीने वाली जनता में तबाही आ जाएगी. रूस के एक बैंक SBERBANK ने अगले दस दिनों तक निवेश के खातों से निकासी पर रोक लगा दी है. रूसी मुद्रा रुबल अभी ही 40 प्रतिशत कमज़ोर हो चुकी है. ब्रिटिश पेट्रोलियम ने रूसी तेल कंपनी रोज़नेफ्ट से खुद को अलग कर लिया है. दक्षिण कोरिया रूस को रक्षा ज़रूरतों के सामान की आपूर्ति नहीं करेगा.
रूस ने हमला करने से पहले इन प्रतिबंधों के बारे में सोचा होगा लेकिन इसके कारण जो तबाही आएगी उसकी जनता को भुगतना होगा. ये ऐसे प्रतिबंध नहीं हैं कि अगर रूस आज युद्ध रोक दे तो वापस हटा लिए जाएंगे. अगर इससे रूस बर्बाद होने लगा तब वह क्या करेगा, क्या वह परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकेगा या धमकी देता रहेगा. कोई किसी से डर रहा है, न पीछे हट रहा है. भारत पर भी असर पड़ेगा. सोयाबिन, सूरजमुखी और पाम ऑयल के दाम काफी बढ़ जाएंगे. क्योंकि प्राकृतिक गैस महंगा होने से यूरिया महंगा हो सकता है. पोटाश का आयात रूस और बेलारूस से होता है. यह भी महंगा होगा. पेट्रोल का दाम तो होगा ही बस सात मार्च को मतदान खत्म होने का इंतज़ार कर लीजिए.
यूक्रेन की जनता पर तबाही लादी गई है. विश्लेषणों में वहां खाक हो रहे घरों औऱ परिवारों के प्रति मोह नहीं है. सब इन विश्लेषणों में अपने देश और अपने नेता की चाल को महान बताने में लगे हैं. इस युद्ध ने कई लोगों को युद्ध और कूटनीति का विशेषज्ञ बना दिया है. यूक्रेन के कवरेज में हम जिन पश्चिमी मीडिया का सहारा लेते हैं उसे भी ध्यान से पढ़ने की ज़रूरत है. युद्ध के वक्त और राष्ट्रहित के नाम पर हर देश का मीडिया भोंपू बन जाता है. भारत का गोदी मीडिया इनसे अलग है. वो बसंत से लेकर बरसात तक हर मौसम में भोंपू बना रहता है. युद्ध न भी हो तो हर मामले में ऐसे कवर करता है जैसे देश में युद्ध चल रहा हो.
पुतिन ने हमला करते वक्त जब राष्ट्र के नाम संबोधित किया था तब कहा था कि यूक्रेन में नात्ज़ी का प्रभाव है. उसकी सेना नात्ज़ियों से भरी पड़ी है जिसे वह सबक सिखाना चाहता है. तब इसके जवाब में यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने कहा था कि वे यहूदी हैं और उनके दादा के तीन तीन भाइयों को जर्मनी की नात्ज़ी सेना ने क़त्ल कर दिया था. आज हम नात्ज़ी एंगल के बारे में बात करना चाहेंगे. यूक्रेन में हर साल एक जनवरी को नात्ज़ी दौर के एक फासिस्ट स्टीपन बांदेरा के सम्मान में कई कार्यक्रम होते हैं. इस साल भी हुआ. 1959 में सोवियत एजेंटों ने बांदेरा की हत्या कर दी थी. यूक्रेन के लोग इसे राष्ट्र नायक के रूप में देखते हैं तो इज़रायल और पोलैंड के लोग मानते हैं कि बांदेरा ने यहूदी और पोलिश लोगों पर बहुत ज़ुल्म किए थे. 2014 में यूक्रेन के राष्ट्रपति यानुकोविच को पद से बेदखल किया गया तब नई सरकार ने मास्को एवेन्यु का नाम स्टीपन बांडेरा एवेन्यू कर दिया था. 2019 को स्टीफन बांडेरा वर्ष के रूप में घोषित किया गया जिससे इज़रायल और पोलैंड नाराज़ हो गए थे. 2018 में अमरीका के पचास से अधिक सांसदों ने पत्र लिखा था कि यूक्रेन में नात्ज़ी दौर के नायकों की पूजा होने लगी है और उनके सम्मान में कार्यक्रम होने लगे हैं. यूक्रेन, हंगरी, पोलैंड, रोमानिया में नव-नाज़ीवाद सर उठाने लगा है. यही नहीं पिछले साल दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव लाया गया कि नस्लभेद और रंगभेद या किसी भी तरह की असहिष्णुता को बढ़ावा देने वाले नात्ज़ी संगठनों और नात्ज़ीवाद का मुकाबला किया जाएगा, उस प्रस्ताव का केवल दो देशों ने विरोध किया था. यूक्रेन और अमरीका. भारत उन 130 देशों में शामिल था जिसने प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया था. यूक्रेन और अमरीका ने उन प्रस्तावों का विरोध किया जिसमें लिखा था कि सरकार इस बात की इजाज़त नहीं देगी कि नात्ज़ी दौर के नायक या संगठन की याद में कार्यक्रम होंगे. नात्ज़ी दौर के खिलाफ लड़ने वाले नायकों की मूर्तियां नहीं तोड़ी जाएंगी. अमरीका और यूक्रेन ने इसका क्यों विरोध किया. अमरीका का कहना था कि प्रस्ताव की भाषा उचित नहीं थी और इसका इस्तेमाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ किया जा सकता है. लेकिन इस प्रस्ताव से एतराज़ केवल दो देशों को होता है अमरीका और यूक्रेन को. इस पर सोचते रहिए.
इन घटनाओं से यह तो साफ है कि यूक्रेन में नात्ज़ी ताकतों का उभार हो रहा है लेकिन हम यह बताने की स्थिति में नहीं है कि पूरा यूक्रेन ही इसकी चपेट में आ गया है या इसका विरोध भी होता है. यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के इस बयान को आप खारिज नहीं कर सकते कि उनके दादा के तीन तीन भाई नात्ज़ी हमले में मारे गए थे और उनके दादा किसी तरह से जान बचा पाए थे. तो इस आवाज़ को भी सुना जाना चाहिए. क्या यूक्रेन में नात्ज़ी ताकतें इतनी मज़बूत हो चुकी हैं कि उन्हें खत्म करने के लिए रूस को यूक्रेन पर हमला करना पड़े? क्या रूस का तरीका नात्ज़ी ताकतों से कुछ अलग है? हम यह मान भी लें कि यूक्रेन की राजनीति में इन तत्वों के समर्थक बढ़ गए होंगे लेकिन 2018 के 50 अमरीकी सांसदों के पत्र के अनुसार ऐसा तो पोलैंड, हंगरी, रोमानिया में भी हो रहा है. क्या रूस उन देशों पर भी हमला कर देगा कि वह नव-नात्ज़ी ताकतों को कुचलना चाहता है? एक सवाल और है. यूक्रेन में नात्ज़ी दौर के उभार हुआ, कम या ज्यादा जिस भी रूप में…क्या उसमें अमरीका की कोई भूमिका है?
पुरानी खबरों को पलटने से पता चला कि 2014 की फरवरी में यूक्रेन में यानुकोविच सरकार के खिलाफ ज़बरदस्त प्रदर्शन हुए थे. अमरीकी अखबारों में ही साफ साफ और इशारों में लिखा है कि इन प्रदर्शनों के पीछे अमरीका और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का हाथ था. ताकि यूक्रेन सुधार और निवेश के नाम पर विदेशी निवेशकों के लिए अपने मुल्क को उनके हवाले कर दे. यानुकोविच ने इन सुधारों का विरोध किया था और यूरोपियन यूनियन के साथ कारोबारी जुड़ाव से इंकार कर दिया था. रूस से कारोबारी रिश्ते शुरू कर दिए थे. पश्चिम को यह बात पसंद नहीं. 2014 के बाद नई सरकार के आते ही यूरोपीयन यूनियन से डील करने लगती है. सब्सिडी कम करने लगती है. ऐसी बहुत सी खबरें मिलेगी कि अमरीका ने डॉलर के दम पर यहां तथाकथित आंदोलन खड़ा किया गया और यानुकोविच को बेदखल कर दिया गया. इस क्रम में अमरीका ने वहां नव नात्ज़ी ताकतों को मदद की जिनके दम पर प्रदर्शन बड़ा होता गया. उन्हीं लोगों से एज़ोव बटालियन नाम की नात्जी मिलिशिया बनाई गई है. इसके नेता वही हैं जो अमरीकी विदेश उप सचिव विक्टोरिया नुलांड के साथ मंचों पर नज़र आते थे. 2014 में यूक्रेन में सक्रिय रहीं विक्टोरिया नुलांड इस वक्त जो बाइडन के प्रशासन में हैं. तब अमरीकी प्रेस में ही खबर छपी थी कि अमरीका यूक्रेन में सरकार बनाना चाहता है.
2014 में कुछ और खबरें मिलती हैं कि विदेश उप सचिव विक्टोरिया नुलांड और यूक्रेन में अमरीका के राजदूत वहां पर आर्सेनी यात्सेनुक को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं औऱ जो बाइडन भी इसमें मदद करेंगे. दोनों की बातचीत लीक हो गई थी. 2014 में जो बाइडन अमरीका के उप राष्ट्रपति थे. यूक्रेन में नई सरकार के प्रमुख आर्सेनी यात्सेनुक ही बनाए जाते हैं. हमने यह सारी जानकारी fair.org से ली है जिसका दावा है कि वह अमरीकी मीडिया में जो पूर्वाग्रह हैं उनकी पड़ताल करता है.
फेयर डॉट ओआरजी ने लिखा है कि न्यूयार्क टाइम्स ने 6 दिसंबर 2021 से 6 जनवरी 2022 के बीच 228 और वाशिंगटन पोस्ट ने 201 आर्टिकल छापे हैं. इनमें से किसी में भी यूक्रेन की सरकार या जनता में नात्जी समर्थकों की मौजूदगी का ज़िक्र नहीं है. अमरीका के इन दो अखबारों ने इस सूचना को महत्व नहीं दिया या उनकी नज़र में ये बातें निराधार हैं, इसके बारे में और जानना होगा.
अमरीकी लोकतंत्र की बहाली भी चाहते हैं और नात्ज़ी तत्वों की निंदा भी नहीं करते हैं. पुरानी खबरों से पता चलता है कि 2014 में अमरीका यूरोपियन यूनियन को भी किनारे कर अपनी दखल बढ़ाना चाहता था? आप इन किस्सों से यह जानते हैं कि अमरीका जो दावा कर रहा है वो कितना पवित्र है औऱ तर्कसंगत है.
इसका मतलब यह नहीं कि रूस का हमला सही है. रूस अभी तक यही कहता रहा कि यूक्रेन को नेटो का सदस्य बनाया जा रहा है लेकिन आज तक नेटो ने सदस्य नहीं बनाया. अमरीकी अखबारों और जानकारों ने इस पहलू को ठीक से उजागर किया है कि अमरीका ने नेटो के विस्तार की बात कर रूस को लगातार उकसाया है और असुरक्षित किया है. अमरीका ने वादा किया था कि नेटो का विस्तार रूस की तरफ नहीं करेगा तब क्यों किया. लेकिन क्या इसके नाम पर रूस कितनी बार यूक्रेन के हिस्से को तोड़ता रहेगा. हमें संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद की रिपोर्ट मिली है जिसमें कहा गया है कि 2014 के बाद से यूक्रेन में मौलिक आज़ादी कुचली जा रही है. तब फिर इसे लेकर पश्चिमी ताकतों ने यूक्रेन में क्यों नहीं पहल की? और क्या मानवाधिकार के नाम पर यूक्रेन पर बम बरसा कर रूस मानवाधिकार को नहीं कुचल रहा है? किसी शहर पर बम गिराना क्या मानवतावाद की रक्षा है? अमरीकी अखबार यूक्रेन में अमरीका की भूमिका को छिपाते रहे हैं और इसकी जगह नेटो वाले एंगल को उभारते रहते हैं; जानते हैं कि अमरीका हस्तक्षेप करता है लेकिन हेडलाइन लिखते हैं कि रूस ऐसा कह रहा है. यानी इस पर यकीन न करें. 24 फरवरी 2014 का वाशिंगटन पोस्ट का संपादकीय है जिसमें लिखा है कि वाशिंगटन पोस्ट ने माना था कि यह बातचीत से पता चलता है कि यूक्रेन के संकट में अमरीका का हस्तक्षेप काफी गहरा है. मेडेन के प्रदर्शनकारियों का स्वागत किया गया है. उसे लोकतांत्रिक बताया गया है. वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा है कि कीव पर पश्चिमी दलों के समर्थकों का कब्ज़ा हो गया है.
यह भी साफ नहीं है कि रूस का मकसद क्या है, वह क्या हासिल करना चाहता है, सबके पास अपनी एक दलील है और दांव पर यूक्रेन है. यूक्रेन के लोग और हज़ारों भारतीयों की ज़िंदगी. इस बीच कई खबरों में यह भी पढ़ने को मिला है कि यूक्रेन को जितना हल्का समझा गया था उतना साबित नहीं हुआ. भले रूस के टैंक यूक्रेन के शहरों में घूम रहे हैं मगर रूस आसानी से कब्जा नहीं कर पाया है. रूस को युद्ध के क्षेत्र में भी भारी नुकसान उठाना पड़ा है.हज़ारों भारतीय छात्रों को यूक्रेन से निकालने में देरी क्यों हुई?
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