सम्पादकीय

उत्साह आए ही क्यों

Rani Sahu
1 May 2022 7:21 PM GMT
उत्साह आए ही क्यों
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वह उत्साहित है, क्योंकि उसके उत्साह से देश को कोई खतरा महसूस नहीं होता

वह उत्साहित है, क्योंकि उसके उत्साह से देश को कोई खतरा महसूस नहीं होता। हालांकि नागरिक उत्साह से देश डरता है और इसीलिए हर व्यक्ति के लिए उत्साह की मात्रा तय है। चुनाव के वक्त उत्साह में छूट देकर अपनी सरकार या डबल इंजन सरकार बनाई जा सकती है, लेकिन जनता के उत्साह में सरकार चलाई नहीं जा सकती। हर आदर्श दरअसल उत्साह का दुष्परिणाम है, जबकि ठंडे दिमाग से सोचें तो कोई भी आदर्श स्थापित करना मुमकिन नहीं है। उत्साह में आदर्श बीवी या पति ढूंढने वाले अक्सर मात खाते हैं। उत्साह में ली गई डिग्री बताती है कि नौकरी के पापड़ बेलना कोई उत्साह नहीं। उत्साह में पूजा नहीं हो सकती अलबत्ता हनुमान चालीसा पढ़ा जा सकता है। यही उत्साह अजान दे सकता है, लेकिन खुदा को नहीं पा सकता। उत्साह अपने भीतर भी छोटा-बड़ा, अगड़ा-पिछड़ा, धर्म-जाति चुन लेता है। इसलिए हमने आजादी के उत्साह में भले ही आरक्षण चुन लिया, लेकिन यही उत्साह जाति और वर्ण व्यवस्था के कायम पहलुओं को नहीं हटा पाया। आजादी के उत्साह में कांग्रेस खुद को देश बनाते हुए कुछ कर पाती, तो आज इसी उत्साह पर भाजपा का कब्जा न होता।

अब लगता है कि कांग्रेस का उत्साह कितना कमजोर था, जबकि भाजपा को देखने मात्र से उत्साह पैदा हो जाता है। पैदा होते ही बच्चे को केवल जिंदगी के उत्साह में रोना पड़ता है, बाढ़ के उत्साह में नदी को भटकना पड़ता है, तो फिर उत्साह हमारे जीवन में आए ही क्यों। यह खलनायक है, लेकिन इसकी पिक्चर चलती बहुत है। उस दिन तो हद ही हो गई। उत्साह मेरे पीछे पड़ गया। मुझे सुबह से शाम तक उत्साहित करता रहा। उसने मुझे उत्साह में ही इतना गौरवान्वित कर दिया कि मैं हिंदू होने के कारण यह भूल गया कि मुझमें तो नींबू की लाज बचाने तक का सामर्थ्य नहीं है। मुझे उत्साह के कारण एक सौ बीस का प्रति लीटर पेट्रोल और बारह सौ का रसोई गैस सिलेंडर महंगा नहीं लगता। धर्म संसद के कथन पर मेरा मोहल्ला इतना उत्साहित हो गया है कि अब हर घर से बच्चों के रोने की आवाजें बढ़ गई हैं।
उत्साह अब देखा-देखी होता है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए पैदा होता है। लोग बाग आपसी प्रतिस्पर्धा के उत्साह में कई बार ऐसे काम भी कर जाते हैं, जो ऐसे वैसे नहीं हो सकते। उत्साह राजनीतिक प्रवृत्ति रखता है, इसलिए केजरीवाल सरीखा होकर हर अधिकारी को चुनाव में कूदने की प्रेरणा देता है। हैरानी यह कि उत्साह में चमत्कार नहीं और न ही चमत्कार में उत्साह होता है, फिर भी लोग हर उत्साही को चमत्कृत देखना चाहते हैं। हम अपने-अपने धर्म को उत्साह में आगे बढ़ते हुए देखना चाहते हैं, इसलिए चमत्कार नहीं हो पाता। अब धर्म गुरु जनता को अधिक बच्चे पैदा करने का उत्साह भरते हुए भूल रहे हैं कि यह चमत्कार हो नहीं सकता। चमत्कार तो अब न खाने में और न ही खाना पकाने में से पैदा हो रहा है। चमत्कार जीवित नहीं, इसलिए बुलडोजर का खौफ जिंदा है। उत्साह में तन ढांपना मुश्किल हो रहा है, लेकिन पगड़ी का चमत्कार हो रहा है। सपने उत्साहित हो जाएं, तो नींद नहीं आती, लेकिन जिस झुग्गी में नींद आती है, वहां सपने नहीं आते। फिर भी हमारी सरकारें सपनों के बहाने चमत्कार दिखा सकती हैं। यह आजादी के बाद का उत्साह है, जो केवल दिखाई देता है, महसूस नहीं होता, वरना अपने देश में भूखे-नंगों के बावजूद सरकारें बार-बार चुनाव जीतने का चमत्कार कैसे करतीं।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक


Rani Sahu

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