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कांग्रेस (Congress) इन दिनों संक्रमण के दौर से गुजर रही है
पंकज कुमार।
कांग्रेस (Congress) इन दिनों संक्रमण के दौर से गुजर रही है. आपसी कलह और रंजिश के साथ-साथ वर्चस्व की लड़ाई भी मुखर रूप से लोगों को देखने और सुनने को मिल ही जाती हैं. कई बार यह जुबानी जंग, नेताओं की किताबी में भी दिखाई देती है. इसी कड़ी में नया घटनाक्रम है मनीष तिवारी (Manish Tewari) की पुस्तक '10 फ़्लैश पॉइंट 20 इयर्स – नेशनल सिक्योरिटी सिचुएशन दैट इम्पैक्ट इंडिया" है. इस किताब में मनीष ने सीधे-सीधे पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर निशाना साधा है. यह निशाना ऐसे समय में साधा गया है जब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब समेत पांच राज्यों में अगले साल यानि फरवरी 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं.
डॉ. सिंह और तिवारी दोनों ही पंजाब से आते हैं. आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पंजाब बेहद महत्वपूर्ण हो गया है. कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू का विवाद थमा भी नहीं था, कि सिद्धू और नए मुख्यमंत्री बने चन्नी के बीच विवाद छिड़ गया. कैप्टन जो पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की निंदा करते नहीं थकते थे, वही उनके करीबी लोगों की सूची में शामिल हो गए हैं. इन सारे घटनाक्रमों का पंजाब चुनाव पर क्या असर पड़ेंगा, ये तो समय ही बताएगा.
लंबे समय से सत्ता सुख न मिलने से बेचैनी
दरअसल, कांग्रेसी नेताओं में नेतृत्व विहीनता की स्थिति उनमें अक्खड़ता और अनुशासनहीनता बढ़ाने का काम कर रही है. जानकार मानते हैं कि लंबे समय से सत्ता सुख की आदत लग चुकी कांग्रेस के इन नेताओं में बौखलाहट शुरू हो गई है. 2014 के बाद से लगातार उन्हें सत्ता से दूर रहना पड़ा. बात यहीं पर नहीं थमती, पार्टी को मुख्य विपक्ष का भी ओहदा नहीं मिला. लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद पाने के लिए जो जरूरी सांसद संख्या चाहिए, वह संख्या बल भी नहीं मिला. 2019 के आम चुनाव से कुछ पहले की परिस्थितियों में लग रहा था कि पार्टी सत्ता के करीब नहीं तो कम से कम विपक्ष की भूमिका तो जरूर बना लेगी, पर घटना कुछ इस तरह घटी की पुलवामा हमला हो गया और बीजेपी के मीडिया मैनेजमेंट व आईटी सेल के प्रयास व आरएसएस की मेहनत ने कांग्रेस के सपनों को धो दिया.
राजनीतिक विश्लेषक और कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के जानकार मनोहर मनोज का कहना है, 'हिंदी क्षेत्र की एक मशहूर कहावत है "थोथा चना बाजे घना". वर्तमान समय में यह कहावत कांग्रेस के कुछ नेताओं पर सटीक बैठती है. मनीष तिवारी भी उसी श्रेणी में आते हैं, जिन्हें इस बात की गहरी समझ नहीं कि वे क्या लिख रहे हैं और क्या कह रहे हैं. उन्हें तो बस अपनी बातों से मतलब है. मनीष तिवारी को अब भविष्य की राजनीति की चिंता सताने लगी है.'
स्थाई अध्यक्ष न मिलने से अवसाद की स्थिति
इसमें कोई शक नहीं कि सच्चाई बहुत कड़वी होती है और उसे सुनने, समझने और पचाने की क्षमता हर किसी में नहीं होती. देश की राजनीति का परिदृश्य आज बीजेपी ने बदल कर रख दिया है. कई मोर्चों पर कांग्रेस फिसड्डी साबित हो रही है. इसके अलावा 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद का परित्याग किया और उनके बाद से आज तक महज अंतरिम अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी काम कर रही हैं. वह भी पार्टी नेताओं को कहीं न कहीं अवसाद में धकेल रहा है.
हालांकि, मनीष तिवारी की पुस्तक ने बीजेपी और उसके मातृ संगठन आरएसएस को बैठे बिठाये दो फ्रंट पर एक नया मुद्दा दे दिया. पहला नवम्बर के आखिरी दिनों में शुरू होने जा रही शीतकालीन सत्र में संसद में उछालने के लिए तो दूसरे पांच राज्यों में होने जा रही आगामी विधानसभा चुनाव में भुनाने के लिए.
संसद पर हमला क्या कलंक नहीं था
पंजाब कांग्रेस को नजदीक से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार संजीव पांडेय कहते हैं, 'कांग्रेसी नेताओं की वर्तमान स्थिति उनकी आपसी खींचतान और कलह के साथ उनमें व्याप्त कुंठा का ही दुष्परिणाम है कि मनीष तिवारी जैसे नेता जो सोनिया गांधी के आशीर्वाद से अपनी नेतागिरी कर रहे हैं, जिनका अपना कोई खास जनाधार नहीं है, डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विद्वान और कुशल प्रशासक की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि 26/11 का हमला देश और मनमोहन सरकार के माथे का कलंक है, पर क्या यह घटना संसद पर हुए हमले से भी अधिक शर्मसार कर देने वाली थी?
मनीष तिवारी मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में भी थे और एक जिम्मेदार पद पर भी थे. इतना बड़ा खुलासा करने में इनको 13 साल लग गए. अगर इतनी नैतिकता थी तो वह मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में क्यों लगातार बने रहे. आज वह किसके कहने पर इतना बड़ा खुलासा कर रहे हैं. मनीष तिवारी फिर से राजनीतिक क्राइसिस में हैं और इनकी चिंता साल 2024 के लोकसभा चुनाव हैं. तिवारी अमरिंदर सिंह के नजदीकी हैं और इनकी चिंता भविष्य की राजनीति की है'
पार्टी में अनुशासन की भारी कमी, कांग्रेस नेताओं का सेल्फ गोल
यदि कांग्रेस में पिछले दो तीन साल से चल रही अंतर्कलह और खींचतान पर विहंगम दृष्टि डाली जाए तो यही निकल कर सामने आएगा की पार्टी में अनुशासन की भारी कमी है. चाहे नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह का विवाद हो या फिर पार्टी द्वारा नवनियुक्त पंजाब के सीएम चरनजीत सिंह चन्नी के साथ सिद्धू का विवाद या सलमान खुर्शीद की किताब या कपिल सिब्बल का चंद महीनों पहले का बयान और जी-23 नेताओं की मीटिंग से उपजा विवाद. ये सारे घटनाक्रम कांग्रेस के नेताओं का सेल्फ गोल दर्शाते हैं.
सिद्धू का अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी न होने की स्थिति में कांग्रेस में जाना, पार्टी अध्यक्ष पद पर पहुंचना, अमरिंदर सिंह से उलझना, अमरिंदर का इस्तीफा दे कर पार्टी छोड़ना, कैप्टन का अमित शाह से लगातार मुलाकात करना, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आपसी सत्ता संघर्ष, मध्यप्रदेश में आंतरिक कलह की वजह से कमलनाथ का कुर्सी जाना, गुलामनबी आज़ाद का फिर से राज्यसभा सांसद न बनना, सब का सब कांग्रेसी नेताओं की उच्चाकांक्षा और उसे न पा पाने की स्थिति में मानसिक अवसाद को न केवल दर्शाती है, बल्कि उसके निराकरण हेतु पार्टी में शीर्ष स्तर पर व्यापक बदलाव और स्थाई तौर पर एक नए अध्यक्ष की नियुक्ति तथा कड़ाई से अनुशासन को लागू करने की आवश्यकता को भी दर्शाती है.
Gulabi
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